वर्ष 2024-25 के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के आंकड़ों ने जनता और नीति-निर्माता, दोनों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। वर्ष के दौरान जहां सकल स्तर पर एफडीआई से भारत ने 81 अरब डॉलर की राशि जुटाई वहीं विशुद्ध स्तर पर केवल 0.35 अरब डॉलर हासिल हुए जो बीते दो दशक का सबसे निचला स्तर है। विशुद्ध एफडीआई का स्तर इतना कम इसलिए रहा क्योंकि विदेशी कंपनियों ने जमकर विनिवेश किया और प्रत्यावर्तन किया।
यहां प्रत्यावर्तन से तात्पर्य अपने मूल देश में धन वापस भेजना है। इसके अलावा भारतीय कंपनियों द्वारा बड़े पैमाने पर विदेश में निवेश करना भी एक वजह रही। विगत वित्त वर्ष में विदेशी कंपनियों ने करीब 51 अरब डॉलर की राशि अपने देश भेजी जो बीते दो दशक से भी अधिक समय का उच्चतम स्तर है। इस बीच भारतीय कंपनियों द्वारा विदेश में किया जाने वाला निवेश पिछले साल की तुलना में करीब 75 फीसदी बढ़कर 29.2 अरब डॉलर हो गया। इसके परिणामस्वरूप विशुद्ध स्तर पर बहुत कम राशि बची।
सामान्य समय में विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा स्वदेश धन भेजना या भारतीय कंपनियों द्वारा विदेश में निवेश करना भारत जैसी बड़ी और खुली अर्थव्यवस्था के लिए चिंता का विषय नहीं होना चाहिए। कुछ विदेशी कंपनियां अपनी खास वजहों से मुनाफा अपने देश भेजती हैं, दूसरी तरफ बढ़ती भारतीय कंपनियां विदेशों में मिल रहे अवसरों का लाभ लेना चाहती हैं। बहरहाल जो बात ध्यान आकर्षित कर रही है और चिंता की वजह बनी है, वह है बाहर जाने वाली राशि का पैमाना।
वर्ष 2023-24 में सकल एफडीआई महज 71 अरब डॉलर था लेकिन उस साल भारत के पास विशुद्ध एफडीआई के रूप में 10 अरब डॉलर बचे थे। यह भी ध्यान देने लायक बात है कि विदेशी कंपनियों द्वारा जहां धन वापस भेजने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, वहीं दूसरे देशों में भारतीय कंपनियों की एफडीआई में भी गत वर्ष उल्लेखनीय इजाफा हुआ है।
वित्त मंत्रालय की ताजा मासिक समीक्षा में भी इस घटनाक्रम पर गौर किया गया और कहा गया, ‘भारतीयों द्वारा विदेश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश वित्त वर्ष 25 में करीब 12.5 अरब डॉलर तक बढ़ा। यह तब हुआ जबकि विश्व स्तर पर अनिश्चितता का माहौल था। ऐसे में घरेलू निवेश को लेकर उनकी सतर्कता के चलते इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है।’
यह समूचा घटनाक्रम यकीनन जांच करने लायक है। इस संदर्भ में नीति-निर्माता विदेशी और भारतीय कंपनियों के लिए मामले से अलग तरह से निपट सकते हैं। विदेशी कंपनियां प्राथमिक तौर पर भारत इसलिए आईं ताकि वे भारतीय अर्थव्यवस्था की मांग को पूरा कर सकें। चूंकि भारत दुनिया का सबसे तेज अर्थव्यवस्था वाला देश बना हुआ है और खबरों के मुताबिक वह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है तो फिर विदेशी कंपनियां अपना अधिशेष यहीं भारत में क्यों नहीं निवेश कर रही हैं?
इस बात की संभावना नहीं है कि धन का प्रत्यावर्तन केवल शेयरधारकों को रकम लौटाने के लिए हो रहा है। कुछ कंपनियां भारतीय बाजार में अपनी हिस्सेदारी कम कर रही हैं क्योंकि उन्हें बेहतर मूल्यांकन की उम्मीद है। परंतु इससे भी बात पूरी तरह स्पष्ट नहीं होती। इसकी गहन जांच आवश्यक है कि कहीं वे कारोबारी माहौल के कारण या मांग की हालत के चलते तो नहीं जा रहीं? भारतीय कंपनियों की स्थिति तो और रहस्यमय है। वे भारत में निवेश की इच्छुक नहीं हैं लेकिन उन्हें इस अनिश्चित समय में भी विदेश में अवसर मिल रहे हैं। बहरहाल बाहर जाने वाले एफडीआई में इजाफा एकबारगी घटना हो सकती है।
वर्ष 2018-19 और 2023-24 में क्रमश: 12 अरब डॉलर और 18 अरब डॉलर की राशि बाहर गई जो 2024-25 में करीब 29.2 अरब डॉलर हो गई। इस मसले की गहन जांच आवश्यक है। परंतु इसके चलते सरकार और नियामकों को विदेशी या घरेलू कंपनियों के विदेश फंड स्थानांतरित करने पर रोक नहीं लगानी चाहिए क्योंकि इससे निवेश का माहौल प्रभावित होगा।
भारत को लगातार उच्च वृद्धि के लिए उच्च निवेश की आवश्यकता है। इसमें एफडीआई की अहम भूमिका होती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने साथ तकनीक और बेहतरीन कार्य व्यवहार भी लाती हैं। यह बचत-निवेश के अंतर को पाटने का भी बेहतर तरीका है क्योंकि एफडीआई विदेशी पूंजी का सबसे स्थिर स्वरूप है। ऐसे में यह अहम है कि इस तरह के निवेश गणित को समझा जाए और नीतिगत खामियों को दूर किया जाए।