रतन टाटा (Ratan Tata) ने करीब दो दशक से अधिक वक्त तक देश के सबसे बड़े कारोबारी समूह का नेतृत्व किया। सन 1991 में जेआरडी टाटा विरासत में 34 सूचीबद्ध और गैरसूचीबद्ध कंपनियों के एक असमान समूह को जिस हालात में छोड़ गए थे, उन्होंने उसे मजबूती प्रदान की।
यह सही है कि टाटा समूह की आय और उसके लाभ का बड़ा हिस्सा पहले की तरह (रतन टाटा के टाटा संस का चेयरमैन बनने के पहले) अब भी तीन बड़ी कंपनियों टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (TCS), टाटा मोटर्स और टाटा स्टील पर निर्भर है लेकिन आर्थिक उदारीकरण के दौर में विरासत संभालने वाले रतन टाटा ने इस विशालकाय समूह को एक दूरदर्शी और एकजुट समूह बनाया।
लाइसेंस-परमिट राज में फलने-फूलने वाले अन्य प्रमुख उद्योगपतियों मसलन मोदी, सिंघानिया, रुइया और बिड़ला परिवार के कुछ सदस्यों का जहां पतन हो गया, वहीं टाटा समूह का लगातार मजबूत बने रहना कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।
समूह का नेतृत्व संभालने के पहले नेल्को में अपने कार्यकाल के दौरान रतन टाटा ने कोई उल्लेखनीय कारोबारी समझ नहीं दिखाई थी। अपने कार्यकाल के आरंभ में ही उन्हें कई अग्नि परीक्षाओं से गुजरना पड़ा। समूह के कद्दावर लोगों ने उनका विरोध किया और टाटा मोटर्स की पुणे इकाई में सबसे बड़ी हड़ताल आरंभ हुई।
उन्होंने दोनों चुनौतियों से निपटने में बहुत अधिक कौशल दिखाने के बजाय अपना ध्यान समूह के तत्कालीन कारोबारों को दुरुस्त और मजबूत बनाने में लगाया। वह उन कारोबारों से बाहर निकल गए जिनमें होड़ का कोई लाभ नजर नहीं आ रहा था। ये कारोबार थे-सौंदर्य-प्रसाधन, पर्सनल केयर, औषधि, कंप्यूटर हार्डवेयर और सीमेंट।
सदी के करवट लेने के साथ ही रतन टाटा ने अपने स्वदेश केंद्रित समूह को वैश्विक बाजारों के मुताबिक ढालना आरंभ किया जिसके मिलेजुले परिणाम निकले। वर्ष 2007 में एंग्लो-डच कोरस स्टील और 2008 में वित्तीय संकट से पहले जगुआर-लैंड रोवर के अधिग्रहण ने समूह की वित्तीय स्थिति पर असर डाला। परंतु एक के बाद एक इन बड़े अधिग्रहणों ने वैश्विक स्तर पर समूह को अन्य कारोबारी समूहों के मुकाबले काफी आगे खड़ा कर दिया।
विमानन और मोबाइल कलपुर्जा निर्माण पर उनके ध्यान ने समूह को भविष्य की सोचने वाला बनाया। प्रबंधकीय शैली में उन्होंने वे सभी विरोधाभास दर्शाए जो एक कारोबारी उत्तराधिकारी दिखा सकता है। उनके कुछ बड़े दांव ऐसे थे जो केवल एक मालिक द्वारा ही लिए जा सकते थे, न कि किसी ऐसे पेशेवर प्रबंधक द्वारा जो तिमाही नतीजों पर भी नजर रखता हो। ऐसे कदमों में एक था एक लाख रुपये से कम कीमत की कार बनाना और बेचना।
इसके बावजूद 2008 में आई टाटा नैनो एक विफल प्रयोग साबित हुई। इसकी इंजीनियरिंग अच्छी नहीं थी और छोटी कारों के बाजार में उस समय की मजबूत होड़ के सामने वह टिक नहीं सकी। उसे 2018 में बंद कर दिया गया। देश की सबसे बड़ी ट्रक निर्माता कंपनी टाटा मोटर्स को कार निर्माण की दिशा में ले जाने के कारण भी कंपनी को कुछ समय तक नुकसान हुआ, हालांकि बाद में बेहतर इंजीनियरिंग और ब्रांडेड उत्पादों की मदद से वह देश की दूसरी सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी बन गई।
घाटे में चल रही सरकारी विमानन कंपनी एयर इंडिया के अधिग्रहण के बाद समूह के नए-नए विमानन कारोबार पर क्या असर होगा यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। सेवानिवृत्ति से पहले रतन टाटा ने इस सौदे पर भरपूर ध्यान दिया था।
अन्य भारतीय समूहों के उलट हालात ने टाटा समूह को पेशेवर प्रबंधकों के भरोसे छोड़ दिया। इससे समूह अपेक्षाकृत कुशल ढंग से चला लेकिन वहां संगठनात्मक जांच परख या जोखिम लेने की प्रवृत्ति दिखनी कम हो गई। अपने तमाम आकर्षण और करिश्मे के बावजूद रतन टाटा आलोचना को पसंद नहीं करते थे। वर्ष 2013 में टाटा की जगह समूह के पहले गैर पारिवारिक चेयरमैन बनने वाले (अब दिवंगत) साइरस मिस्त्री के साथ उनका टकराव इस कमजोरी को रेखांकित करने वाला रहा।
मिस्त्री ने रतन टाटा के कार्यकाल के कुछ गलत निर्णयों को स्पष्टवादी तरीके से पलटने की कोशिश की जो बॉम्बे हाउस की संस्कृति के अनुरूप नहीं था। उनकी अचानक बर्खास्तगी ने टाटा ट्रस्ट की ताकत दिखाई लेकिन इससे पारदर्शिता के मोर्चे पर रतन टाटा की प्रतिष्ठा पर असर पड़ा।
गौरतलब है कि टाटा ट्रस्ट, टाटा संस में 66 फीसदी का हिस्सेदार है। बहरहाल इस बात पर कोई संदेह नहीं कर सकता है कि तीन दशक पहले विपरीत हालात में शुरुआत के बाद रतन टाटा अपने उत्तराधिकार के लिए एक मूल्यवान विरासत छोड़ गए हैं।