पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली एक उच्चस्तरीय समिति, जिसकी स्थापना सरकार के तीनों स्तरों पर एक साथ चुनाव की संभावनाओं का अध्ययन करने के लिए की गई थी, उसने सर्वसम्मति से इस विचार का समर्थन किया है और गुरुवार को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को भेजी गई रिपोर्ट में इसकी अनुशंसा की है। केंद्र और राज्य स्तरों पर सरकार बनाने के लिए चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं और एक साथ चुनाव कराने का विचार भी नया नहीं है।
आजादी के बाद शुरुआती वर्षों में लोक सभा और राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव एक साथ होते थे। यानी मूल विचार यह है कि संविधान में संशोधन के जरिये एक साथ चुनाव की व्यवस्था बन सके और इसे चुनाव प्रक्रिया का स्थायी गुण बनाया जा सके।
एक साथ चुनाव कराने की बात सैद्धांतिक तौर पर समझदारी भरी लगती है और इसकी कई वजह हैं। उदाहरण के लिए चुनावी लोकतंत्र की प्रतिस्पर्धी प्रकृति को देखते हुए निरंतर चुनाव नीतिगत बहस को प्रभावित करते हैं क्योंकि चुनावों को ध्यान में रखते हुए राज्यों तथा केंद्र में राजनीतिक दल अपने आचरण में बदलाव करते हैं।
अगर एक साथ चुनाव होंगे तो सत्ताधारी दल तथा विपक्षी दल दोनों नीतिगत मामलों पर अगले आम चुनाव होने तक ठोस तरीके से काम करेंगे। इससे अनिश्चितता कम होगी और वृद्धि को गति प्रदान करने में मदद मिलेगी। पैनल ने जो तकनीकी काम प्रस्तुत किया है वह दिखाता है कि वृद्धि, मुद्रास्फीति, निवेश और सार्वजनिक व्यय के संदर्भ में एक साथ चुनाव कराने से लाभ होगा। अलग-अलग समय पर चुनाव कराने की प्रत्यक्ष राजकोषीय कीमत बहुत अधिक नहीं है लेकिन इससे उत्पन्न नीतिगत अस्थिरता शासन को प्रभावित करती है।
यह विचार बेहतर है लेकिन असली चुनौती है एक ऐसी प्रणाली तैयार करना जहां एक साथ चुनाव कराए जा सकें। ऐसा इसलिए कि लोक सभा या राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव कई बार भिन्न-भिन्न वजहों से अलग-अलग समय पर हो सकते हैं। पैनल ने इस संदर्भ में यह अनुशंसा की है कि सबसे पहले राज्यों की विधान सभाओं और लोक सभा के चुनावों को सुसंगत बनाया जाना चाहिए।
स्थानीय निकायों के चुनाव पहले चरण के 100 दिन के भीतर कराये जा सकते हैं। ऐसा करने के लिए समिति ने कहा है कि आम चुनाव के बाद लोक सभा की पहली बैठक एक नियत तिथि को होनी चाहिए। सभी राज्यों की विधान सभाओं कार्यकाल, इस नियत तिथि के बाद और लोक सभा के पूर्ण कार्यकाल की समाप्ति के पहले गठित सभी राज्य विधान सभाओं का कार्यकाल केवल लोक सभा के लिए अगले आम चुनाव की अवधि तक होगा।
त्रिशंकु सदन या ऐसी किसी भी स्थिति में लोक सभा का अगला चुनाव केवल पिछले सदन के शेष कार्यकाल के लिए होगा। राज्यों की विधान सभाओं के नए चुनावों के मामले में नई विधान सभा केवल तब तक काम करेगी जब तक कि लोक सभा का कार्यकाल समाप्त नहीं हो जाता। सुझाई गई व्यवस्था और इसके लिए संवैधानिक प्रावधान जहां इसकी सुसंगतता सुनिश्चित करेंगे, वहीं इससे दूसरी दिक्कतें आरंभ हो जाएंगी।
उदाहरण के लिए अगर सरकार लोक सभा का कार्यकाल समाप्त होने के करीब एक साल पहले विश्वास मत हार जाती है, तो विपक्ष अविश्वास मत लाना ही नहीं चाहेगा। ऐसी स्थिति में सरकार बनी रहेगी लेकिन वह जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करेगी। यह लोकतंत्र के हित में नहीं होगा।
ऐसे में यह बात अहम है कि अनुशंसाओं को केवल व्यापक राजनीतिक सहमति के साथ ही आगे बढ़ाया जाए। यह अहम है क्योंकि अधिकांश राष्ट्रीय दल इस विचार के पक्ष में नहीं हैं। एक साथ चुनाव कराने की कीमत अगर लोकतांत्रिक मूल्यों के रूप में चुकानी पड़े तो ऐसा करना श्रेयस्कर नहीं होगा।