वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) प्रणाली में अगले हफ्तों में एक बार फिर बड़ा बदलाव होने वाला है। खबरों के मुताबिक केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह विभिन्न पक्षों से बातचीत करेंगे ताकि लंबित मसलों को हल किया जा सके। अगर यह बात सही है तो यह दिखाता है कि जीएसटी व्यवस्था में केंद्र सरकार तथा राज्यों के बीच आपसी सहमति से सुधार करना राजनीतिक दृष्टि से कितना आवश्यक है। गत सप्ताह प्रकाशित एक और खबर में कहा गया था कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने जीएसटी फ्रेमवर्क के पुनर्गठन को सैद्धांतिक रूप से मंजूरी दे दी है। केंद्र सरकार का इरादा जीएसटी व्यवस्था को समायोजित करके इसके काम को बेहतर बनाने का है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। बहरहाल, इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि जहां जीएसटी ने मंशा के मुताबिक एक राष्ट्रीय बाजार तैयार करने में मदद की है, वहीं राजस्व संग्रह के मामले में इसका प्रदर्शन कमजोर रहा है। इस बात ने केंद्र सरकार की वित्तीय स्थिति पर असर डाला है। राज्यों के उलट केंद्र सरकार के पास शुरुआती वर्षों में राजस्व की कमी से बचाव के लिए क्षतिपूर्ति का उपाय नहीं था।
बातचीत के आगे बढ़ने के साथ जीएसटी परिषद को कम से कम तीन क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। पहला, स्लैब और दरों को युक्तिसंगत बनाना। अब यह बात मानी जा चुकी है कि जीएसटी व्यवस्था के कमजोर प्रदर्शन की एक वजह इसके दरों के ढांचे और विविध स्लैब्स की जटिलता भी है। आदर्श स्थिति में देखा जाए तो अर्थशास्त्री कहते हैं कि महज एक दर होनी चाहिए। हालांकि, भारत ने इसे प्रगतिशील बनाने का निर्णय लिया। इस लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश के बावजूद कई स्लैब को कम किया जा सकता है। इस संदर्भ में यह खबर है कि 12 फीसदी के स्लैब को समाप्त कर दिया जाएगा और जिन वस्तुओं पर इस दर से कर लग रहा था उन्हें 5 फीसदी और 18 फीसदी के स्लैब में स्थानांतरित कर दिया जाएगा। लेकिन इससे व्यवस्था में और जटिलता आ सकती है। बेहतर तरीका यह होगा कि 12 और 18 फीसदी की दर को एक उचित दर में विलीन कर दिया जाए। दरों को युक्तिसंगत बनाने का लक्ष्य दरों के ढांचे को सरल बनाना होना चाहिए, वह भी बिना राजस्व गंवाए। शुरुआती वर्षों में दरों में अपरिपक्व ढंग से कमी किए जाने ने राजस्व संग्रह को प्रभावित किया। कुल सकल जीएसटी संग्रह की बात करें तो उपकर सहित वर्ष 2023-24 में यह सकल घरेलू उत्पाद का 6.7 फीसदी रहा जबकि 2016 में जीएसटी में समाहित करों में यह 6.3 फीसदी रहा था। उपकर को छोड़ दिया जाए तो 2023-24 में शुद्ध संग्रह काफी कम था।
परिषद को एक अन्य पहलू पर विचार करना होगा और वह है क्षतिपूर्ति उपकर। सामान्य परिस्थितियों में क्षतिपूर्ति उपकर का संग्रह जीएसटी के पांच साल बाद रुक जाना चाहिए था लेकिन इसे मार्च 2026 तक बढ़ा दिया गया ताकि महामारी के दौरान क्षतिपूर्ति उपकर संग्रह में कमी के कारण राज्यों को मुआवजा देने की खातिर लिए गए ऋण को चुकाया जा सके। अनुमान बताते हैं कि यह इसका भुगतान दिसंबर या जनवरी तक पूरा हो जाएगा। अगर प्रासंगिक प्रावधानों में कोई परिवर्तन नहीं किया गया तो उपकर संग्रह को भुगतान पूरा होने के बाद रोकना पड़ेगा। कुछ अंशधारकों ने सुझाव दिया कि उपकर को जीएसटी दर में ही समाहित कर दिया जाए।
इस दौरान याद रखना होगा कि प्रारंभिक लक्ष्य पांच साल की सीमित अवधि के लिए उपकर लगाने का था ताकि एक खास उद्देश्य हासिल किया जा सके। असाधारण हालात में इसे बढ़ाया गया था। ऐसे में जीएसटी ढांचे को सरल बनने के उलट अगर उपकर को जीएसटी दर में शामिल किया गया तो स्लैब और अधिक बढ़ेंगे तथा कर व्यवस्था और जटिल हो जाएगी। ऐसे में यह महत्त्वपूर्ण है कि ऐसे सभी मुद्दों को ध्यान में रखा जाए। मंत्रियों के विभिन्न समूहों ने दरों और उपकर दोनों मुद्दों पर काम किया है। तीसरा, परिषद को अनुपालन के मुद्दों पर भी ध्यान देना होगा जिन्हें कारोबारी समय-समय पर उठाते रहे हैं। जीएसटी के कमजोर प्रदर्शन की एक वजह अनुपालन की जटिलताओं को भी माना जाता है। जीएसटी परिषद के लिए बेहतर होगा कि वह ढांचे को सरल बनाने और राजस्व संग्रह में सुधार के लिए सभी बाकी मुद्दों का समाधान एक साथ करे। भारत को स्थिर और सरल जीएसटी की आवश्यकता है।