सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रम (एमएसएमई) क्षेत्र में यह संभावना है कि वह निर्यात को बढ़ावा देकर तथा देश की आर्थिक गतिविधियों में योगदान करके देश के विकास के इंजन की भूमिका निभा सके। बहरहाल देश के निर्यात में इसकी हिस्सेदारी कम हो रही है और यह वित्त वर्ष 20 के 49.77 फीसदी से कम होकर वित्त वर्ष 23 में 42.67 फीसदी रह गई है।
नीति आयोग की एक हालिया रिपोर्ट इस संदर्भ में उपायों की एक श्रृंखला प्रस्तावित करती है ताकि एमएसएमई के निर्यात में इजाफा किया जा सके।एमएसएमई को अंतरराष्ट्रीय बाजार में कारोबार में सहायता पहुंचाकर उनके राजस्व में विविधता लाई जा सकती है और उनकी प्रतिस्पर्धी क्षमता में इजाफा किया जा सकता है। इसके साथ ही नवाचार और रोजगार बढ़ाने में भी इससे मदद मिल सकती है।
रिपोर्ट ऐसे कई क्षेत्रों को चिह्नित करती है जहां एमएसएमई विश्व स्तर पर प्रतिष्ठा हासिल कर सकते हैं। इनमें हस्तकला, हथकरघे पर बुना कपड़ा, आयुर्वेद और जड़ी बूटियों से बनने वाले पूरक आहार, चमड़े की वस्तुएं, नकली आभूषण और लकड़ी से बनने वाले उत्पाद शामिल हैं। ऐसा इसलिए कि इनमें निर्माण की पारंपरिक तकनीक और कला का इस्तेमाल किया जाता है तथा इनका विरासती मूल्य भी है।
वैश्विक स्तर पर इन क्षेत्रों का बाजार 340 अरब डॉलर से अधिक है। हालांकि भारत में श्रमिकों की प्रचुरता है परंतु इसके प्रतिस्पर्धियों मसलन वियतनाम, चीन और बांग्लादेश ने कम कौशल वाले वस्तु निर्यात में अच्छी खासी बढ़त हासिल कर ली है।
इस संदर्भ में एमएसएमई की क्षमताओं का इस्तेमाल कम कौशल वाले क्षेत्रों में भारत के निर्यात को बढ़ावा दे सकता है। कम कौशल वाले विनिर्मित उत्पादों के वैश्विक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी महज 5 फीसदी के करीब है।
यह दिलचस्प है कि हाल के दिनों में ई-कॉमर्स मार्केटप्लेस में सफलता भारत के पक्ष में गई है। ऐसा देश और विदेश दोनों स्थानों पर हुआ है। डिजिटल प्लेटफॉर्मों ने भी अबाध निर्यात को मदद पहुंचाई है और व्यापक बाजार पहुंच में सहायता की है।
वर्ष 2021 तक सालाना करीब एक लाख भारतीय निर्यातक इन प्लेटफॉर्मों का इस्तेमाल कर रहे थे। जिससे कुल मिलाकर 5 अरब डॉलर से अधिक का निर्यात राजस्व हासिल हो रहा था। इसके बावजूद एमएसएमई के डिजिटल प्लेटफॉर्म पर अपने उत्पाद बेचने को लेकर नियामकीय बाधाएं मौजूद हैं।
उदाहरण के लिए देश में शुल्क रियायत और निर्यात प्रोत्साहन प्रक्रियाओं में मोटे तौर पर निर्यात के समय माल ढुलाई के कार्गो स्वरूप को पहचाना जाता है। इससे कूरियर से निर्यात करने वाले ई-कॉमर्स निर्यातकों के लिए निर्यात प्रोत्साहन पाना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा बाजार शोध के लिए मंगाए गए नमूने अथवा ई-कॉमर्स में नकारी गई वस्तुएं जो वापस की जाती हैं या ऑनलाइन बिक्री में नहीं बिकने वाली वस्तुओं को दोबारा आयात करने पर आयात शुल्क लगाया जाता है।
ऐसी बाधाएं एमएसएमई कंपनियों के मुनाफे पर असर डालती हैं। ऐसे में एमएसएमई निर्यात को बढ़ावा देने के लिए व्यापक रणनीति बनाने की आवश्यकता है जिसमें ऐसे प्रोत्साहन हों जो ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्मों को बिना नियामकीय बाधाओं के काम करने की इजाजत देते हों।
समस्याओं का यहीं अंत नहीं होता। कुल एमएसएमई में से करीब 90 फीसदी सूक्ष्म उपक्रमों के रूप में दर्ज हैं और उनमें बड़े पैमाने पर काम करने की क्षमता नहीं है। भारत में मौजूदा नीतिगत परिदृश्य ऐसा है जहां एमएसएमई को छोटे पैमाने पर काम करने को प्रोत्साहित किया जाता है जिससे यह समस्या बरकरार है। औद्योगिक विवाद अधिनियम (आईडीए), 1947 तथा अन्य श्रम कानून भी एक वजह है। हालांकि श्रम कानूनों को संसद ने सुसंगत बनाया लेकिन उनका क्रियान्वयन नहीं किया गया।
इसके अलावा निर्यात के काम में बड़े पैमाने पर कागजी कार्रवाई की आवश्यकता होती है, ऋण तक पहुंच बनाने में दिक्कत होती है और लक्षित बाजार के बारे में सीमित जानकारी भी देश में एमएसएमई की निर्यात क्षमता को प्रभावित करती है। इन गतिरोधों को दूर करने के बाद ही एमएसएमई क्षेत्र के निर्यात प्रदर्शन में सुधार किया जा सकता है।
रिपोर्ट में एआई इंटरफेस वाले एकीकृत पोर्टल की बात की गई है ताकि एमएसएमई तक सूचनाएं प्रसारित हो सकें। कार्यशील पूंजी की मदद से निर्यात ऋण गारंटी को बढ़ावा दिया जा सकता है। सामान्य तौर पर वित्त तक पहुंच बढ़ाकर तथा सूचनाओं की विसंगति को कम करे एमएसएमई के निर्यात को गति प्रदान की जा सकती है।