मौसम के उतार-चढ़ाव की बढ़ती घटनाएं और देश के अधिकांश भागों में लू के थपेड़े हमें यह याद दिला रहे हैं कि जलवायु कितनी तेजी से बदल रही है और भारत जैसे देश पर इसका क्या असर हो सकता है।
भारत अपने ऊर्जा मिश्रण में नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए निवेश कर रहा है, लेकिन जलवायु परिवर्तन की समस्या को विकासशील देश अपने ही स्तर पर हल नहीं कर सकते हैं। ध्यान देने वाली बात है कि विकसित देशों ने विकासशील देशों को वित्तीय सहायता मुहैया कराने की प्रतिबद्धता भी जताई है।
इस संदर्भ में आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन की एक नई रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करती है कि वर्षों तक जलवायु वित्त प्रतिबद्धताओं के मामले में पिछड़ने के बाद विकसित देश आखिरकार 2022 में विकासशील देशों के लिए 115.9 अरब डॉलर की राशि जुटाने में कामयाब रहे जो 100 अरब डॉलर के वार्षिक लक्ष्य से अधिक रही।
यह लक्ष्य 2020 के लिए तय किया गया था लेकिन दो वर्ष बाद यानी 2022 में इसे हासिल करने में कामयाबी मिली। इस वादे को पूरा करने में हुई देरी के कारण नाराजगी पैदा हुई और विकासशील देशों के मन में भविष्य की जलवायु फंडिंग के वादों को लेकर संदेह भी पैदा हुआ। ऐसे में तय लक्ष्य को पार करने को एक छोटा लेकिन अहम कदम बताया जा रहा है जो विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के क्रम में मजबूती प्रदान करेगा।
वर्ष 2009 में कोपेनहेगन में आयोजित जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में विकसित देशों ने 2020 तक हर वर्ष 100 अरब डॉलर का फंड जुटाने की प्रतिबद्धता जताई थी। इसके बाद 2015 में पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर के समय ये देश इस बात पर सहमत हुए कि 2025 तक मिलकर 100 अरब डॉलर की राशि जुटाई जाएगी और उसके बाद एक नया सामूहिक परिमाणित लक्ष्य तय किया जाएगा। यह नया लक्ष्य शायद इस वर्ष अजरबैजान में कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (COP29) में अपना लिया जाए।
वर्ष 2022 में जो कुल राशि जुटाई गई उसमें 80 फीसदी हिस्सेदारी सार्वजनिक जलवायु वित्त (द्विपक्षीय और बहुपक्षीय) की है। निजी जलवायु वित्त हाल के दिनों में तेजी से बढ़ा है लेकिन अभी भी यह सार्वजनिक स्रोतों से हासिल फंड की तुलना में काफी कम है। कुल जलवायु वित्त का करीब 60 फीसदी उत्सर्जन कम करने के उपायों पर केंद्रित है। खासतौर पर ऊर्जा और परिवहन क्षेत्र में। जलवायु अनुकूल उपायों को अपनाने के लिए जुटाई गई राशि काफी कम है।
बहरहाल, अधिकांश सहयोग ऋण के रूप में है, न कि अनुदान और इक्विटी निवेश के रूप में। यह जलवायु न्याय की अवधारणा के खिलाफ है। जलवायु वित्त का अधिकांश हिस्सा चूंकि ऋण के रूप में है इसलिए इसका बड़ा अंश गैर रियायती प्रकृति का है। इससे अधिकांश क्षेत्रों और आय समूहों पर ऋण का दबाव बढ़ता है।
विकासशील देशों में भी कम और मध्य आय वाले देश इसके मुख्य लाभार्थी बने रहते हैं। उसके बाद उच्च मध्य आय वाले देश आते हैं। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह भी है कि 100 अरब डॉलर प्रति वर्ष की राशि पेरिस समझौते के अनुरूप जलवायु लक्ष्य हासिल करने में विकासशील देशों की कुछ खास मदद नहीं करती नजर आती।
संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन कन्वेंशन के वित्तीय मदद संबंधी ताजा विश्लेषण के मुताबिक विकासशील देशों को 2030 तक करीब छह लाख करोड़ डॉलर की आवश्यकता होगी। यह राशि भी उनके मौजूदा राष्ट्रीय निर्धारित सहयोग की आधी जरूरत ही पूरी कर पाएगी।
स्पष्ट है कि 100 अरब डॉलर का लक्ष्य जरूरत पर आधारित नहीं था। इसके बजाय इसने एक राजनीतिक प्रतिबद्धता के रूप में काम किया जिसने विकासशील देशों को सहायता प्रदान करने की विकसित देशों की प्रतिबद्धता को चिह्नित किया।
जीवाश्म ईंधन परियोजना को वित्तीय मदद भी जारी है। इस क्षेत्र में नई कंपनियों को सालाना एक लाख करोड़ डॉलर तक की राशि दी जा रही है। इससे जलवायु वित्त पोषण को लेकर प्रश्न पैदा होते हैं। विभिन्न देशों के लिए यह आवश्यक है कि वे पहले पर्यावरण के लिए नुकसानदेह परियोजनाओं के बारे में कुछ बुनियादी बातों पर सहमति बनाएं। इसमें डॉलर में राशि से लेकर हर देश की हिस्सेदारी तक शामिल हैं।