लोकसभा चुनाव के नतीजों ने ज्यादातर एक्जिट पोल को गलत साबित किया और साफ तौर पर दिखा दिया कि भारत में चुनाव पहले की तरह कड़े मुकाबले वाले बने हुए हैं। भारतीय जनता पार्टी 240 सीट पर आगे है या जीत चुकी है। यानी वह अकेले दम पर बहुमत के आंकड़े से दूर है।
हालांकि, उसके नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) आसानी से अगली सरकार बनाने का दावा पेश कर सकता है। ऐसे में करीब एक दशक बाद भारत में गठबंधन सरकार की वापसी हो रही है। लोक सभा के साथ ही जिन कुछ महत्त्वपूर्ण राज्यों में विधान सभा चुनाव हुए, मंगलवार को घोषित नतीजों के अनुसार उनमें राजग को अच्छा फायदा हुआ है और वह मौजूदा सरकारों को सत्ता से बाहर करने में कामयाब हुआ है।
ओडिशा में करीब 23 साल से सत्ता में रहा बीजू जनता दल हार गया और राज्य की 147 सदस्यीय विधान सभा में भाजपा 80 सीट जीत रही है। इसके पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश में एन चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाली तेलुगू देशम पार्टी भी जबरदस्त जीत हासिल करते हुए अगली सरकार बनाने जा रही है। राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो भाजपा ने अपनी मत हिस्सेदारी में मामूली सुधार किया है, लेकिन उसे 2019 के बराबर भी सीट नहीं मिल पाईं।
दूसरी तरफ, कांग्रेस भी अपनी मत हिस्सेदारी करीब 3 फीसदी बढ़ाने में सफल हुई लेकिन उसकी सीट संख्या करीब दोगुनी हो गई है। भाजपा ने उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी पट्टी के अहम राज्य में अपनी जमीन गंवा दी है। हरियाणा और महाराष्ट्र के आंकड़ों को देखते हुए अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इन राज्यों में अगले कुछ महीने में होने वाले विधानसभा चुनाव में क्या होता है?
कई लोगों का यह मानना है कि गठबंधन सरकार सुधार प्रक्रिया को धीमी कर सकती है, शेयर बाजार सूचकांकों में भारी गिरावट इसी आशंका को दिखाती है, लेकिन साल 1991 में देश में आर्थिक सुधार की प्रक्रिया एक अल्पमत सरकार ने शुरू की थी और बाद में 2014 तक उसे गठबंधन सरकारों ने जारी रखा। अब ज्यादा सहमति बनाने की जरूरत होगी, जिससे निस्संदेह कुछ फैसलों में देरी हो सकती है, लेकिन इससे राजनीतिक स्वीकार्यता बढ़ेगी।
यह भी अहम होगा कि आर्थिक सुधारों के लिए अब राज्यों को भी साथ लिया जाए। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के मामले में जिस तरह से केंद्र और राज्यों में सहयोग दिखा, उससे यह उम्मीद बनी थी कि अन्य क्षेत्रों में भी इसी तरह से सहयोग कायम कर सुधार प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा सकता है।
लेकिन साफ है कि ऐसा हो नहीं पाया है। इसलिए अगली सरकार के लिए यह सलाह होगी कि वह नीतिगत मसलों पर राज्यों के साथ सहयोग के लिए संस्थागत तंत्र को पुनर्जीवित करे। यह शायद नीति आयोग के जरिये हो सकता है या कोई नया तंत्र बनाकर। इससे भूमि, श्रम और कृषि जैसे क्षेत्रों में काफी समय से लंबित सुधारों को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी।
करीब एक दशक बाद भारत को एक मजबूत विपक्ष मिला है और यह अब सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए अहम है कि वे एक-दूसरे की स्थिति का सम्मान करें। इस समय देश के व्यापक आर्थिक मानदंड अनुकूल हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था वर्ष 2023-24 में 8.2 फीसदी की दर से आगे बढ़ी है और लगातार तीसरे साल 7 फीसदी से ज्यादा की वृद्धि हासिल हुई है। मौजूदा साल के लिए नजरिया भी अनुकूल है और अच्छे मॉनसून का साथ मिलने से यह अनुमान लगाया जा रहा है कि इस वर्ष करीब 7 फीसदी की वृद्धि होगी।
महंगाई की हालत में भी सुधार हुआ है और पिछले कुछ वर्षों में बैंकों और कॉरपोरेट का बहीखाता काफी मजबूत हुआ है। लेकिन यह बताना भी अहम है कि हाल के वर्षों में आर्थिक वृद्धि में बड़ा योगदान ऊंचे सरकारी खर्च का रहा है, जिसकी कि अपनी सीमा होती है। वैसे तो सरकार इस वर्ष सहज राजकोषीय स्थिति में रहेगी, फिर भी उसे अपनी वित्तीय स्थिति को मजबूत करना होगा।
इसलिए निजी क्षेत्र के लिए यह अहम होगा कि वह सतत आर्थिक वृद्धि को बनाए रखने के लिए सरकार की कमी पूरी करे। फिलहाल तो निजी क्षेत्र ज्यादा निवेश से हिचक रहा है क्योंकि निजी खपत भी कमजोर है। खपत कमजोर रहने की एक वजह नौकरियों की हालत भी है। समग्र बेरोजगारी में तो कमी आ रही है, लेकिन ज्यादातर लोग खेती या स्वरोजगार, बहुत छोटे उद्यम चलाने जैसे कम उत्पादकता वाले पेशे में लगे हुए हैं। चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों से भी यह संदेश मिला था कि रोजगार मतदाताओं के बीच सबसे बड़े मुद्दों में से एक है।
इस नतीजे ने इस पर भी सवाल खड़े किए हैं कि देश में बढ़ते कार्यबल के लिए उत्पादक रोजगार का प्रबंध न होने के बीच मुफ्त अनाज जैसी योजनाएं कब तक कारगर हो सकती हैं। रोजगार का मसला हल करने के लिए अगली सरकार के लिए यह अहम होगा कि वह विनिर्माण को बढ़ावा दे, जहां कम कुशल कामगारों को बड़ी संख्या में काम मिल सकता है।
घरेलू मांग बढ़ाने के साथ ही भारत को निर्यात बढ़ाने पर भी जोर देना होगा, जिसके लिए व्यापार नीति में समीक्षा की जरूरत होगी। निर्यात को बढ़ावा देने और रोजगार सृजन के लिए यह जरूरी है कि देश वैश्विक मूल्य श्रृंखला का हिस्सा बना रहे।
ऊंचे शुल्क इसमें अड़चन बनते हैं। अब काफी कुछ नई सरकार की संरचना, ढांचे और कार्यक्रमों पर निर्भर करेगा, लेकिन आर्थिक नीति निर्माण क्षमता में सुधार और परामर्श बढ़ाने से निश्चित रूप से फायदा होगा।