केंद्र सरकार ने मंगलवार को संसद में 129 वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया ताकि लोक सभा और राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराए जा सकें। एक अलग विधेयक भी पेश किया गया ताकि विधानसभा वाले केंद्र शासित प्रदेशों में भी एकसाथ चुनाव कराए जा सकें। उम्मीद के मुताबिक ही कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ने प्रस्तावित संशोधनों का विरोध किया। मोटे तौर पर ऐसा इस आधार पर किया गया कि ये विधेयक संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करते हैं और ऐसा करना सदन की विधायी क्षमता के बाहर है। विपक्ष ने कुछ अन्य आपत्तियां भी उठाईं। मिसाल के तौर पर विधेयक में भारत निर्वाचन आयोग को अतिरिक्त शक्तियां देने की बात शामिल है जिसका विरोध किया गया। चूंकि संविधान संशोधनों के लिए संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। ऐसे में सभी प्रस्तावित प्रावधानों पर विस्तार से चर्चा की उम्मीद की जाती है। विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति के पास भेज दिया गया है।
एक साथ चुनाव कराने का विचार नया नहीं है। आजादी के बाद कई सालों तक एक साथ चुनाव होते थे। यह चक्र उस समय बाधित हुआ जब राज्यों की विधान सभाओं को समय से पहले भंग किया गया। इसकी शुरुआत 1960 के दशक के आरंभ में हुई और इसकी वजहें राजनीतिक थीं। विधि आयोग समेत कई संस्थाओं ने भी एक साथ चुनाव की पुरानी व्यवस्था को अपनाने का सुझाव दिया है। अभी हाल ही में पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली एक उच्चस्तरीय समिति ने सर्वसम्मति से इस विचार को बढ़ावा देते हुए आगे की राह की अनुशंसा की। उसे प्रस्तुत विधेयक में देखा जा सकता है।
सैद्धांतिक तौर पर यह बात समझी जा सकती है कि लोक सभा और विधान सभा के चुनाव एक साथ कराना समझदारी भरा हो सकता है। चुनावों में राजनीतिक दलों और सरकार द्वारा खर्च किए जाने वाले धन के अलावा भी एक व्यापक नीतिगत पहलू है जिस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। एक बार चुनाव होने और सरकार बन जाने के बाद केंद्र और राज्य स्तर पर राजनीतिक दल शासन और नीतिगत मुद्दों पर वापस लौट सकते हैं। चुनाव की प्रतिस्पर्धी प्रवृत्ति को देखते हुए सभी राजनीतिक दलों का आचरण अक्सर राज्यों के चुनावों पर निर्भर करता है। कोविंद समिति द्वारा प्रस्तुत तकनीकी विश्लेषण बताता है कि वृद्धि, मुद्रास्फीति, निवेश और सार्वजनिक व्यय आदि पर भी एक साथ चुनाव का सकारात्मक असर होगा।
परंतु एक साथ चुनाव के लिए अपनाए जाने वाले तरीकों पर चर्चा करने की जरूरत है। संविधान में प्रस्तावित संशोधनों के अनचाहे असर पर भी विचार करना जरूरी है। उदाहरण के लिए विधेयक में प्रस्ताव किया गया है कि लोक सभा की पहली बैठक के बाद पांच साल के समय को सदन का पूर्ण कार्यकाल माना जाएगा। अगर सदन पूरी अवधि के पहले भंग होता है तो भंग होने और पहली बैठक से पांच साल तक के समय को शेष अवधि कहा जाएगा। नए सदन का गठन पांच साल पूरा होने के बाद होगा।
सैद्धांतिक तौर पर देखें तो अगर पहली बैठक के चार साल बाद सदन भंग होता है तो नया सदन केवल एक साल के लिए गठित होगा। चूंकि चुनावी प्रक्रिया में समय लगता है इसलिए सदन का वास्तविक कार्यकाल एक साल से भी कम होगा। ऐसे निष्कर्ष राजनीतिक दलों के चयन को भी प्रभावित कर सकते हैं। एक संभावना यह भी है कि विपक्ष शायद सदन का एक खास अवधि का कार्यकाल पूरा होने के बाद अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाए। इसके परिणामस्वरूप सरकार विश्वास गंवाने के बाद भी सत्ता में बनी रह सकती है। ऐसा ही राज्यों में भी हो सकता है। इसके अलावा पांच साल के भीतर लोक सभा या विधान सभा के दो या अधिक चुनाव होने की संभावना एक साथ चुनावों के आर्थिक तर्क को भी कमजोर करती है। संसदीय समिति के अलावा संसद को भी इन सभी संभावनाओं पर चर्चा करनी होगी।