ऊर्जा से लेकर विमानन और रक्षा तक कई क्षेत्रों के लिए जरूरी दुर्लभ खनिजों की आपूर्ति श्रृंखला पर चीन के नियंत्रण को लंबे समय से वैश्विक जोखिम के रूप में देखा जा रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप द्वारा चीनी निर्यात पर प्रतिबंधात्मक उच्च टैरिफ लागू किए जाने के बाद चीन के नेताओं ने भी इस आर्थिक हथियार का इस्तेमाल आरंभ कर दिया है जिसके बारे में लंबे समय से आशंकाएं प्रकट की जा रही थीं। चीन ने निर्यातक के पास समुचित लाइसेंस न होने की स्थिति में 7 दुर्लभ खनिजों का निर्यात प्रतिबंधित कर दिया है। चीन के पास 17 ऐसे खनिजों की सूची है। अधिकांश निर्यातकों ने ध्यान दिया कि फिलहाल वहां प्रभावी लाइसेंसिंग व्यवस्था नहीं है और कम से कम निकट भविष्य में इसका मतलब निर्यात पर प्रतिबंध लगने जैसा ही है।
यह स्पष्ट नहीं है कि क्या चीन के अधिकारी वास्तव में कोई निर्यात लाइसेंसिंग प्राधिकार गठित करना चाहते हैं और उसे इतना क्षमता संपन्न बनाना चाहते हैं जो निर्यात की जांच परख कर सके? अगर वे ऐसा चाहते भी हैं तो इससे व्यवस्था में तनाव उत्पन्न होगा और संभव है कि चीन के अफसरशाह उन देशों के ग्राहकों और कंपनियों को निशाना बनाएं जो भूराजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील माने जाते हैं। अमेरिका इसका प्रमुख उदाहरण है लेकिन उसके साथ-साथ यूरोपीय देश और भारत भी जद में आ सकता है। ऐसे निर्यात नियंत्रण अब उन चुंबकों पर भी लागू होंगे जिनका निर्माण दुर्लभ खनिजों से होता है और जो वाहन और रक्षा क्षेत्र सहित कई तरह के विनिर्माण में इस्तेमाल किए जाते हैं।
कम से कम 2010 से यह बात ज्ञात है कि चीन चुनिंदा अहम खनिजों पर एकाधिकार करना चाह रहा है और वह इस एकाधिकार का इस्तेमाल आर्थिक दबदबा कायम करने के लिए करेगा। यही वह साल था जब चीन ने पहली बार इसे हथियार की तरह बरतते हुए अहम भू-खनिजों का जापान की कंपनियों को किया जाने वाला निर्यात रोक दिया था। उस समय दोनों देशों के बीच राजनीतिक तनाव बढ़ा हुआ था। तब से अब तक अन्य देशों के पास पर्याप्त अवसर था कि वे वैकल्पिक क्षमताएं विकसित कर लेते। दुर्भाग्यवश कई देशों में अलग-अलग नए नीतिगत मिशन स्थापित होने के बावजूद और अमेरिका के पिछले प्रशासन द्वारा ढेर सारी धनराशि आवंटित किए जाने के बावजूद इसके आपूर्ति शृंखला पर चीन का प्रभावी नियंत्रण बरकरार है। अमेरिकी कंपनियों ने खासतौर पर अक्षम्य आलस्य बरता है। इसके वैश्विक परिणाम बहुत परेशानी खड़ी करने वाले हो सकते हैं। खासतौर पर इलेक्ट्रिक कारों को अपना रही कार कंपनियों को अहम चुंबक हासिल करने में संघर्ष करना होगा। इसी तरह ड्रोन, रोबोटिक्स और मिसाइल विनिर्माण को भी आपूर्ति क्षेत्र की दिक्कतों का सामना करना होगा। इसका असर पश्चिमी देशों की सैन्य तैयारियों पर पड़ेगा। खासतौर पर ऐसे समय में जब यूक्रेन युद्ध और अटलांटिक पार के तनावों के कारण समूचे यूरोप में हथियारों के जखीरे तैयार हो रहे हैं।
ये चिंताएं भारत के औद्योगिक क्षेत्र में भी कई को परेशान करने वाली हैं। सरकार ने देश में दुर्लभ खनिजों की आपूर्ति के लिए लंबे समय तक सरकारी क्षेत्र पर भरोसा किया। इसके परिणामस्वरूप स्थानीय भंडारों में इनकी समुचित तलाश नहीं हो सकी। इस नियंत्रणकारी मानसिकता ने निजी क्षेत्र की रुचि को सीमित कर दिया जबकि हाल के वर्षों में कई ब्लॉक खनन के लिए खोले भी गए। सरकार ने भी सक्रियता से आयात के नए केंद्र नहीं तलाशे। उदाहरण के लिए चीन अब म्यांमार के कचिन प्रांत में भी ऐसे खनिजों पर नियंत्रण रखता है हालांकि वहां के विद्रोहियों ने बार-बार भारत से मदद के लिए संपर्क किया। भारत को नए कच्चे माल हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए लेकिन साथ ही उसे प्रक्रियागत क्षमता को भी चिह्नित करना चाहिए। इसमें धातु कर्म में संलग्न इंजीनियरों की संख्या बढ़ाना अहम है। ये आपूर्ति श्रृंखला का अहम हिस्सा हैं जहां भारत का निजी क्षेत्र विश्व स्तर पर योगदान कर सकता है। बशर्ते कि सरकार इजाजत दे और प्रोत्साहित करे।