विनिर्माण क्षेत्र में, खासतौर पर श्रम आधारित विनिर्माण में भारत का निरंतर कमजोर प्रदर्शन देश की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा मुद्दा है। यह कोई पहेली भी नहीं है बल्कि इस बात को कई तरह से समझा जा सकता है और इसकी कई संभावित वजहें और स्पष्टीकरण हैं। व्यापार नीति में निरंतरता का अभाव, खराब लैंगिक संबंध और दिक्कतदेह कानून व्यवस्था और निष्प्रभावी शैक्षणिक और कौशल व्यवस्था आदि सभी की इसमें भूमिका है। परंतु लंबे समय से माना जाता है कि इसकी वजह अत्यधिक नियमन है। खासतौर पर श्रम और रोजगार के क्षेत्र में अति नियमन।
बीते कम से कम दो दशक से देश में कंपनियों के आकार पर नियमन के असर को समझा जाता रहा है। श्रम नियमन के कारण प्रति इकाई श्रम की लागत एक तिहाई से अधिक बढ़ जाती है और अत्यधिक नियमन से बचने के लिए एक खास सीमा से नीचे के आकार में बने रहने की संभावना अधिक रहती है। यही वजह है कि फैक्टरियों के वितरण में असमानता आई है।
उद्योगों का सालाना सर्वे वर्षों से इसका उदाहरण बनता रहा है। सर्वे के मुताबिक सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रम देश की कुल फैक्टरियों में 96 फीसदी के हिस्सेदार हैं और 10 से कम कर्मचारियों वाले सूक्ष्म उपक्रमों की हिस्सेदारी इनमें 99 फीसदी है। 2,000 से अधिक कर्मचारियों वाली फैक्टरियों की संख्या इसमें बहुत कम है।
अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रमण्यन एवं अन्य का विश्लेषण दिखाता है कि समस्या उद्योगों के सालाना सर्वे के आंकड़ों से कहीं अधिक बुरी है। एएसआई ने बड़ी फैक्टरियों की संख्या को बढ़ाचढ़ाकर पेश किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि कई कंपनियां एक ही राज्य में अलग-अलग उत्पादन इकाइयां तैयार करती हैं। इससे न केवल एक ही कंपनी के स्वामित्व वाली कंपनियों की फैक्टरियां अलग-अलग होती हैं लेकिन सर्वेक्षण में इन्हें एक फैक्टरी के रूप में दर्शाया जा सकता है जिससे डेटा में गड़बड़ी होती है।
लेखकों के मुताबिक इन विविध संयंत्रों की मौजूदगी देश के विनिर्माण संयंत्रों वास्तविक आकार से बड़ा आकार प्रदान करती है। बड़े संयंत्र कई वजहों से उत्पादक साबित होते हैं। लेखकों का अनुमान है कि विविध संयंत्रों की उत्पादकता एकल संयंत्र से करीब पांच फीसदी कम होती है। अधिकांश श्रम आधारित क्षेत्रों में मौजूद कम मार्जिन को देखते हुए उत्पादकता में पांच फीसदी का अंतर बहुत अधिक साबित हो सकता है।
छोटे संयंत्रों के साथ और दिक्कतें हैं जिनकी विस्तार से जांच परख करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए बड़े संयंत्र वैश्विक फैशन ब्रांडों से जुड़े बड़े ऑर्डर ले सकते हैं। बड़े संयंत्र में पूंजी निवेश अधिक उत्पादक साबित हो सकता है और वे मूल्य श्रृंखला में तेजी से ऊपर जा सकते हैं।
कंपनियों का बहु-ब्रांड बनाने का चयन नियामकीय और राजनीतिक जोखिमों से जुड़ा हुआ है जो उन्हें छोटे आकार में बनाए रखते हैं। छोटे संयंत्र कठिन श्रम कानून व्यवस्थाओं से जूझ रही कंपनियों को अधिक लचीलापन मुहैया कराती हैं। अन्य सामान्य राजनैतिक जोखिमों मसलन दुर्भावना की वजह से होने वाली मुकदमेबाजी आदि से भी एक से अधिक संयंत्र स्थापित करके बचा जा सका है।
ऐसे में एक से अधिक संयंत्रों की मौजूदगी को ऐसी सरकार के खिलाफ प्रतिक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए जो बड़े पैमाने पर काम करने के प्रयासों को दंडित करती है। परंतु बिना बड़े पैमाने पर काम किए भारत की विनिर्माण रोजगार तैयार करने की कोशिशों का नाकाम होना तय है।
लंबे समय से यह समझा जाता रहा है कि भारत में छोटे पैमाने पर काम को लेकर पूर्वग्रह विनिर्माण की वृद्धि के लिए समस्या बनी है। अब यह पता चल चुका है कि यह समस्या पहले लगाए गए अनुमान से कहीं अधिक बड़ी है। उदाहरण के लिए भारत के प्रतिस्पर्धी देशों बांग्लादेश और वियतनाम में श्रम गहन उद्योगों में बड़े आकार के संयंत्र अधिक हैं।
नियमन कम करने और राजनैतिक जोखिम में कमी लंबे समय से नीतिगत एजेंडे में रहे हैं। परंतु अब तक इस दिशा में पर्याप्त प्रयास नहीं किए गए हैं। सही मायनों में प्रभावी राष्ट्रीय और लचीले श्रम कानूनों के साथ शुरुआत करते हुए सरकार को नियमन खत्म करने की दिशा में काम करना चाहिए।