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Editorial: मांग में सुस्ती, निवेश को बढ़ावा देने की जरूरत

दैनिक उपयोग की उपभोक्ता वस्तुओं में से कुछ बड़ी कंपनियों ने हाल के दिनों में शहरी मांग में कमी को लेकर चिंता जताई है क्योंकि वह उनकी बिक्री में बड़ा योगदान करती है।

Last Updated- October 27, 2024 | 9:52 PM IST
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भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के ताजा मासिक बुलेटिन के अनुसार उच्च आवृत्ति वाले संकेतक बताते हैं कि मांग में लगातार इजाफा हो रहा है लेकिन पिछली तिमाहियों की तुलना में इसकी गति धीमी हुई है। केंद्रीय बैंक ने जहां चालू वर्ष के लिए अपने सालाना वृद्धि अनुमान को 7.2 फीसदी पर रखा है, वहीं इसकी संभावनाओं को लेकर बहस चल रही है। जैसा कि बुलेटिन में कहा गया, 2024-25 की पहली तिमाही में कारोबारी नतीजों में सकल मूल्यवर्धन में गिरावट नजर आई और ऐसा प्रतीत होता है कि कंपनियां कम व्यय के साथ मार्जिन बचा रही हैं।

दैनिक उपयोग की उपभोक्ता वस्तुओं में से कुछ बड़ी कंपनियों ने हाल के दिनों में शहरी मांग में कमी को लेकर चिंता जताई है क्योंकि वह उनकी बिक्री में बड़ा योगदान करती है। खुशकिस्मती से ग्रामीण मांग में इजाफा होता दिख रहा है और अच्छा मॉनसून होने के कारण पूरे परिदृश्य में और सुधार आना चाहिए। कुल मिलाकर शेयर बाजार में हालिया गिरावट को कमजोर कारोबारी प्रदर्शन से भी कुछ हद तक समझा जा सकता है।

चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि 6.7 फीसदी के साथ पांच तिमाहियों के निचले स्तर पर रही। इसकी वजह आम चुनाव के दौरान कम सरकारी व्यय को माना जा सकता है। वास्तविक स्थिति जहां दूसरी तिमाही के राष्ट्रीय लेखा के आंकड़ों के जारी होने के बाद सामने आएगी, वहीं उच्च आवृत्ति वाले संकेतकों से जुड़ी चिंताएं नई नहीं हैं। कुछ अर्थशास्त्री निरंतर विभिन्न संकेतकों और वास्तविक वृद्धि परिणामों के बीच अंतर को रेखांकित करते रहे हैं। कुछ पाठ यकीनन पहेलीनुमा भी हैं।

उदाहरण के लिए वाहन क्षेत्र में कोविड के बाद जहां यात्री वाहनों की मांग में सुधार हुआ, वहीं दोपहिया वाहनों की मांग कमजोर रही जबकि उन्हें व्यापक खपत और ग्रामीण मांग का परिचायक माना जाता है। 2023-24 में कुल दोपहिया वाहनों की बिक्री पिछले वित्त वर्ष में बिके वाहनों की तुलना में आधी रही। इतना ही नहीं यह 2018-19 में हुई बिक्री से भी कम थी।

एक अन्य चिंताजनक आंकड़ा कृषि श्रम शक्ति में इजाफा भी है। विकास की बुनियादी समझ कहती है कि अर्थव्यवस्था के विकास और वृद्धि के साथ इस आंकड़े में कमी आनी चाहिए थी। खेती के कामों में लगे लोगों की संख्या 2018-19 के 42.5 फीसदी से बढ़कर 2023-24 में 46.1 फीसदी हो गई। इस असंबद्धता की एक वजह यह भी मानी जा सकती है कि महामारी के बाद सुधार मोटे तौर पर मुनाफा केंद्रित रहा है जहां व्यवस्था का औपचारिकीकरण बढ़ा है।

कारोबारी मुनाफे में सुधार पिछले कुछ सालों में शेयर बाजार में आई तेजी में नजर आता है हालांकि अब यह गति खो रहा है। इस संदर्भ में एक अहम आलोचना यह भी रही है कि जीडीपी के अनुमानों में कंपनी के आंकड़ों का इस्तेमाल अर्थव्यवस्था की समुचित दशा नहीं दिखाता है और वह वृद्धि को बढ़ाचढ़ाकर दिखा सकता है। अब जबकि आधार में बदलाव पर काम शुरू हो चुका है तो सरकार को नई श्रृंखलाओं में ऐसी चिंताओं और आलोचनाओं का भी निराकरण करना चाहिए।

यह बात लगभग सर्व स्वीकार्य है कि महामारी के बाद की अवधि में वृद्धि मोटे तौर पर सरकारी व्यय से संचालित थी। केंद्र सरकार का पूंजीगत व्यय 2019-20 के जीडीपी के 1.67 फीसदी से बढ़कर चालू वर्ष में 3.2 फीसदी तक पहुंच गया। बजट की अन्य मांग को देखते हुए आवंटन बढ़ाते रहना आसान नहीं होगा। ऐसे में यह बात महत्त्वपूर्ण है कि निजी क्षेत्र निवेश आरंभ करे।

फिलहाल ऐसा बड़े पैमाने पर होता नहीं दिख रहा है। कर आंकड़ों के आधार पर देखें तो पूंजीगत आवंटन में इजाफा और अन्य आय से वास्तविक निवेश के बजाय कंपनियों की वित्तीय निवेश संबंधी प्राथमिकता में बदलाव का संकेत मिल सकता है। यह टिकाऊ उच्च वृद्धि के लिए अच्छा संकेत नहीं है। केवल वास्तविक निवेश और बेहतर मांग से ही उच्च कारोबारी आय और जीडीपी वृद्धि बरकरार रह सकेगी।

First Published - October 27, 2024 | 9:52 PM IST

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