नया वर्ष भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के लिए एक गंभीर पुनरावलोकन लेकर आया: सन 1901 के बाद 2023 आधिकारिक रूप से सबसे गर्म वर्ष रहा। आईएमडी के मुताबिक जमीन का वार्षिक औसत सतह तापमान दीर्घकालिक औसत से 0.65 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा और 0.71 डिग्री का वार्षिक माध्य भी गर्म रहा।
अनियंत्रित मौसम एक दूसरी कहानी है: आईएमडी ने कहा कि फरवरी, जुलाई, अगस्त, सितंबर, नवंबर और दिसंबर में अधिकतम और न्यूनतम तापमान मौसम के सामान्य तापमान से ऊपर रहा। बारिश के रुझान में भी अत्यधिक बदलाव देखा गया। उदाहरण के लिए उत्तर और उत्तर पूर्व के इलाके को छोड़ दिया जाए तो दिसंबर का महीना असाधारण रूप से अधिक बारिश वाला रहा और इस दौरान सामान्य से 60 फीसदी अधिक बारिश हुई।
दक्षिण में मॉनसून के बाद के मौसम में 2011 के बाद सर्वाधिक बारिश हुई और 1901 के बाद यह बारिश का दसवां सबसे ऊंचा स्तर था। हिंद महासागर में छह ऊष्णकटिबंधीय तूफान देखे गए जो सामान्य से ऊपर थे। इनमें से तीन तो गहरे चक्रवाती तूफान में तब्दील हो गए। मौसम के इस प्रकार के बदलाव के लिए अल नीनो को वजह बताया जा रहा है जिसने 2023 में वैश्विक तापमान को रिकॉर्ड स्तर तक बढ़ा दिया।
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परंतु दो से सात वर्ष के लिए सामने आने वाली इस प्रक्रिया को लेकर नीतिगत निष्क्रियता नहीं होनी चाहिए। हाल के वर्षों के जलवायु संबंधी रुझान को देखें तो अल नीनो को केवल एक और योगदानकर्ता माना जा सकता है। भारत के मौसम के इतिहास में पांच सबसे गर्म वर्ष बीते 14 सालों में हुए हैं। तीव्रता के अनुसार ऐसे अन्य वर्ष थे- 2009, 2017 और 2010।
औसत तापमान में निरंतर वृद्धि के दीर्घकालिक परिणाम काफी नुकसानप्रद हैं। भारतीय रिजर्व बैंक ने मुद्रा और वित्त से संबंधित अपनी 2022-23 की रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन को केंद्र में रखने का निर्णय लिया और स्पष्ट शब्दों में कहा कि जलवायु परिवर्तन और अनियंत्रित मॉनसून वित्तीय स्थिरता के लिए खतरा हैं। उसने कहा कि जलवायु परिवर्तन के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को सकल घरेलू उत्पाद के दो फीसदी के बराबर नुकसान हो सकता है तथा इसकी वजह से 2050 तक देश की आधी आबादी के जीवन स्तर पर असर पड़ सकता है।
भारतीय कृषि और विनिर्माण उद्योग दो सबसे बड़े नियोक्ता और उद्योग हैं तथा लू के थपेड़ों के कारण उनकी उत्पादकता पर बुरा असर पड़ा है। यह बात भारत की वैश्विक प्रतिस्पर्धी बढ़त को नुकसान पहुंचाने वाली साबित हो सकती है। विश्व बैंक का अनुमान है कि 2030 तक बढ़ती गर्मी और लू के थपेड़ों के कारण दुनिया भर में उत्पादकता की कमी के कारण रोजगार को जो हानि होगी उसमें से 40 फीसदी भारत में होगी।
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इस कमजोर पूर्वानुमान में एक बात यह भी शामिल है कि जलवायु परिवर्तन के असर से सबसे ज्यादा प्रभावित गरीब भारतीय होंगे। यह बात तो इस वर्ष टमाटर, प्याज, आलू, मिर्च और जीरा आदि की ऊंची कीमतों से ही सामने आ गई। सरकार ने हाल के समय में खानेपीने की चीजों के निर्यात को कम करने का निर्णय लिया है और उसकी वजह भी यही थी कि मौसम में बदलाव के चलते उत्पादकता में कमी आई। अकेले पिछले वर्ष का अनुभव ही यह बताता है कि भारत में जीडीपी में कार्बन उत्सर्जन में 2030 तक कमी लाने की रणनीतियों को तेज करने की आवश्यकता है।
भारत को कार्बन उत्सर्जन तथा जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिए भी पर्याप्त बजट की आवश्यकता होगी। नवीकरणीय ऊर्जा की स्थापित क्षमता में इजाफे के बावजूद निकट भविष्य में ताप बिजली संयंत्र ही मुख्य रूप से बिजली का उत्पादन करेंगे। समुचित विकल्पों के अभाव में भारत अपनी ऊर्जा संबंधी आवश्यकताओं के लिए कोयले पर निर्भर रहेगा लेकिन उसे नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश में भी इजाफा करना चाहिए ताकि बढ़ती गर्मी और जलवायु परिवर्तन के असर को कम किया जा सके।