राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के पहले अग्रिम अनुमान के मुताबिक भारतीय अर्थव्यवस्था के चालू वित्त वर्ष में 7.3 फीसदी की दर से बढ़ने की उम्मीद है जबकि वर्ष 2022-23 में इसने 7.2 फीसदी की दर से वृद्धि हासिल की थी। अभी कुछ तिमाही पहले तक अर्थव्यवस्था अधिकांश विश्लेषकों के अनुमान से तेज गति से बढ़ रही थी।
बहरहाल, संभव है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में जो गति नजर आ रही है वह समाज के बड़े तबके को लाभ नहीं पहुंचा रही है। महामारी के बाद आर्थिक सुधार की प्रकृति को लेकर काफी बहस हुई है। एक नजरिया यह है कि इस सुधार ने आबादी के उस तबके की बेहतरी में अधिक योगदान किया है जो पहले से अच्छी स्थिति में है। आंशिक तौर पर ऐसा उसके औपचारिक स्वरूप के कारण हुआ। चाहे जो भी हो अगर महामारी के बाद सुधार की बहस को एक तरफ कर दिया जाए तो भी भारतीय श्रम बाजार का ढांचा और अधिक नीतिगत तवज्जो का अधिकारी है।
आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा ग्रामीण इलाकों में रहता है और वहां रोजगार के हालात समग्र मांग पर बहुत बड़ा असर डाल सकते हैं। इस संदर्भ में यह बात ध्यान देने लायक है कि पिछले दिनों इंडियन एक्सप्रेस के एक आलेख में प्रस्तुत तथा अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी और उनके सहयोगी द्वारा विश्लेषित आंकड़े बहुत उत्साहित करने वाली तस्वीर नहीं पेश करते।
वर्ष 2004-05 से 2008-09 के बीच कमजोर प्रदर्शन के बाद, 2009-10 और 2013-14 के बीच ग्रामीण इलाकों में वास्तविक कृषि एवं गैर कृषि मेहनताने में सालाना क्रमश: 8.6 फीसदी और 6.9 फीसदी की दर से बढ़ोतरी हुई। अगले पांच वर्ष के दौरान वृद्धि दर में गिरावट आई और यह करीब तीन फीसदी रह गई।
बहरहाल, गत पांच वर्षों में यानी 2019-20 से 2023-24 की अवधि में ग्रामीण क्षेत्र के वास्तविक मेहनताने में वार्षिक वृद्धि दर नकारात्मक रही है। ऐसा कृषि और गैर-कृषि दोनों क्षेत्रों में हुआ है। वास्तविक मेहनताने में कमी का असर आबादी के इस हिस्से की मांग पर भी पड़ेगा।
इससे अंग्रेजी वर्णमाला के ‘के’ शब्द की आकृति (अर्थव्यवस्था के कुछ हिस्सों में तेज वृद्धि और कुछ में तेज गिरावट) का सुधार या वृद्धि देखने को मिल सकती है। रुझान बताते हैं कि 2009-10 से 2013-14 के अलावा ग्रामीण मेहनताने में इजाफा काफी कमजोर रहा है। यह बात व्यापक ढांचागत दिक्कतों की ओर ध्यान दिलाती है।
देश की बहुत बड़ी आबादी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। कृषि कामगारों की तादाद में लगातार कमी आने का सिलसिला कोविड-19 महामारी के दौरान थम गया था। मामूली सुधार के बाद 2022-23 में 45.8 फीसदी श्रम शक्ति अभी भी कृषि कार्यों में लगी हुई है।
यह ध्यान देने वाली बात है कि चालू वर्ष में देश के सकल मूल्यवर्धन में कृषि क्षेत्र का योगदान 14 फीसदी से कुछ अधिक होने का अनुमान है। कच्चे माल और उत्पन्न माल पर मूल्य समर्थन के साथ भी देश की करीब 46 फीसदी श्रम शक्ति केवल 14 फीसदी उत्पादन करती है। ऐसे में इस क्षेत्र के मुनाफे और मेहनताने पर दबाव बनना तय है।
ऐसे में नीतिगत प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि अधिक से अधिक लोगों को कृषि क्षेत्र से बाहर निकाला जाए। बीते वर्षों के नीतिगत हस्तक्षेप से वांछित परिणाम नहीं हासिल हुए हैं। इतना ही नहीं कृषि क्षेत्र की उत्पादकता भी कमजोर रही है। इसकी एक वजह किसानों की छोटी जोत का होना भी है। घरेलू मुद्रास्फीति को रोकने के लिए निर्यात प्रतिबंधित करने वाले सरकारी हस्तक्षेप ग्रामीण इलाकों में निवेश और वृद्धि को प्रभावित करते हैं।
बहरहाल, नीतिगत नजरिये से देखें तो ग्रामीण मेहनताने की स्थिति केवल समग्र रोजगार की स्थिति को दर्शाता है। उदाहरण के लिए 2022-23 में श्रम शक्ति का 18 फीसदी से अधिक घरेलू उपक्रमों में सहायक के रूप में काम कर रहा था। रोजगार के घटक और वास्तविक ग्रामीण मेहनताने में कमी भारतीय अर्थव्यवस्था की दीर्घकालिक चुनौतियों को रेखांकित करती है। अगर आबादी के बड़े तबके की ओर से मांग कमजोर बनी रहे तो निरंतर उच्च वृद्धि हासिल करना कठिन हो सकता है।