एक ऐसी दुनिया में जहां सबसे बड़ी ताकत ने पहले ही स्वीकार्य नियमों को ताक पर रख दिया है, भविष्य के कदमों का अनुमान लगाना काफी मुश्किल है। अमेरिका और भारत के मौजूदा रिश्ते इस समय जिन हालात में हैं उनकी तो हम हाल के दशकों तक कल्पना भी नहीं कर सकते थे। इसी तरह यह कहना भी मुश्किल है कि अब से दो तिमाही बाद हालात कैसे होंगे।
अमेरिका ने भारत से होने वाले आयात पर 50 फीसदी का प्रतिबंधात्मक शुल्क लगा दिया है जो भारत की अर्थव्यवस्था पर गहरा असर डाल सकता है। इसका व्यापक परिणाम कारोबारी रिश्तों के परे भी देखने को मिल सकता है।
बहरहाल, अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के हालिया वक्तव्य सुझाते हैं कि शायद अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। उदाहरण के लिए इस सप्ताह दिए गए एक वक्तव्य में ट्रंप ने कहा कि भारत और अमेरिका निरंतर वार्ता जारी रखे हुए हैं और वह आने वाले सप्ताहों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने को उत्सुक हैं।
ट्रंप का वक्तव्य संकेत देता है कि दोनों पक्ष बातचीत जारी रखे हुए हैं। यह अच्छी खबर है। भारत ने अमेरिका की भावनाओं का प्रत्युत्तर देकर अच्छा किया है और एक नई शुरुआत को तरजीह दी है। बहरहाल, अभी यह निश्चित नहीं है कि भारत और अमेरिका कब तक साझा लाभ वाले व्यापारिक समझौते पर पहुंच सकेंगे। ट्रंप के उत्साह बढ़ाने वाले वक्तव्यों के बीच खबर यह भी है कि अमेरिका यूरोपीय संघ पर दबाव डाल रहा है कि वह भारत और चीन पर अतिरिक्त शुल्क लगाए क्योंकि वे रूस से कच्चा तेल आयात कर रहे हैं।
अन्य बातों के अलावा अमेरिकी नीति के साथ समस्या यह है कि वह शुल्क का इस्तेमाल भू-राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए कर रही है। परंतु यह सोच भी असंगत प्रतीत होती है। अमेरिका ने रूस से कच्चे तेल का आयात करने पर भारत पर तो 25 फीसदी का अतिरिक्त शुल्क लगा दिया लेकिन उसने चीन पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जबकि वह कहीं अधिक बड़ा आयातक है और रूस के साथ उसके व्यापारिक रिश्ते भी कहीं अधिक गहरे हैं। जाहिर है कि भारत के साथ कारोबारी तनाव कम करने की जिम्मेदारी ट्रंप की है लेकिन ऐसा कब होगा इस बारे में अंदाजा लगाना मुश्किल है।
यह स्पष्ट नहीं है कि अमेरिका शुल्क दरों को कब समायोजित करेगा या 25 फीसदी का जुर्माना कब समाप्त करेगा, इसलिए भारत को ऐसी नीति बनाने की जरूरत है ताकि निर्यातकों पर पड़ने वाले असर से निपटा जा सके। यह संभव है कि कम मार्जिन वाली श्रम गहन वस्तुओं के लिए अमेरिकी ऑर्डर अन्य देशों को स्थानांतरित हो जाएंगे और उनमें से कुछ शायद जल्दी भारत नहीं लौटें भले ही शुल्क दर का मसला हल भी हो जाए। ऐसे में इस बात का जोखिम उत्पन्न हो जाएगा कि कुछ कंपनियां बंद हो जाएं और बड़े पैमाने पर लोग बेरोजगार हो जाएं। हालात से निपटने का एक पहलू यह भी है कि भारत अन्य बाजारों की तलाश करे। सरकार इस मोर्चे पर काम कर रही है लेकिन व्यापार समझौतों में समय लगता है। यूरोपीय संघ के साथ संभावित समझौता इसका उदाहरण है।
ऐसे में फिलहाल के लिए तो प्रभावित कंपनियों की मदद करना महत्त्वपूर्ण है। अगर कंपनियां बंद होने लगीं तो उन्हें वापस कारोबार में लाना मुश्किल होगा भले ही अमेरिका शुल्क दरें कम कर दे या भारत को अन्य बाजारों में बेहतर सौदा हासिल हो जाए। भारत को निर्यात के अवसरों का स्थायी नुकसान हो सकता है।
खबर है कि सरकार निर्यातकों के लिए पैकेज पर काम कर रही है। सरकार इन उपायों की घोषणा जितनी जल्दी करे उतना अच्छा होगा। इस विषय में उन राज्यों से सलाह लेना उचित होगा जो शुल्क से सबसे अधिक प्रभावित हो रहे हैं। अमेरिकी प्रशासन की समग्र नीतिगत असंगति ने भारत को एक प्रतिकूल स्थिति में ला खड़ा किया है। पिछले कई दशकों से दोनों देशों के बीच मजबूत और लगातार गहरे होते संबंधों को देखते हुए यह आशा की जा सकती है कि व्यापार संबंधी मुद्दा जल्द ही सुलझा लिया जाएगा।