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अमेरिकी चोट के बीच मजबूती से टिका भारतीय निर्यात, शुरुआती आंकड़े दे रहे गवाही

भारत के शुरुआती निर्यात आंकड़े ट्रंप के तूफानी टैरिफ के सामने अच्छी मजबूती दिखा रहे हैं। बता रहे हैं अजय शाह

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अजय शाह   
Last Updated- November 11, 2025 | 11:07 PM IST

वर्ष 2025 के आखिरी महीनों में भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर डर का माहौल है। दरअसल आम राय यह है कि अमेरिका की विरोधी व्यापार नीति हमारी आ​र्थिक वृद्धि को पटरी से उतार देगी। अमेरिका की टैरिफ नीति ने दो बड़े झटके दिए हैं। पहला, आयात शुल्क (टैरिफ) अप्रैल के 25 फीसदी से बढ़कर 27 अगस्त तक 50 फीसदी हो गया।

दूसरा, 21 सितंबर से नए एच-1बी आवेदनों पर एक लाख डॉलर की फीस लगनी शुरू हो गई। वस्तुओं और सेवाओं पर हो रहे इस हमले को भारतीय निर्यात के अस्तित्व के लिए एक खतरा माना जा रहा है। हालांकि, आंकड़े एक अधिक जटिल लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भी टिकी रहने वाली तस्वीर दिखाते हैं। शुरुआती साक्ष्य किसी बड़े नुकसान की ओर इशारा नहीं करते।

किसी भी झटके के प्रभाव को समझने के लिए, हमें सबसे पहले तंत्र को सही ढंग से मापना होगा। निर्यात के कुल आंकड़ों में कुछ कोलाहल बढ़ाने वाले हिस्से भी होते हैं। मासिक व्यापार डेटा, पेट्रोलियम की अस्थिर कीमतों से प्रभावित होता है।

हाल के वर्षों में, यह चीज सस्ते रूसी कच्चे तेल को रिफाइन करके फिर से निर्यात करने के भू-राजनीतिक फायदे से और भी जटिल हो गई है। यह कहानी भारतीय प्रतिस्पर्धा की नहीं बल्कि वैश्विक राजनीति की है। इसी तरह, सोना और आभूषण का व्यापार अक्सर पूंजी प्रवाह के एक चैनल के रूप में काम करता है, जो अंतर्निहित उत्पादकता के बजाय निवेश प्रवाह पर प्रतिक्रिया देता है। एक साफ संकेत मुख्य निर्यात से मिलता है। यह डॉलर में, पेट्रोलियम और सोने को छोड़कर, सभी वस्तु और सेवा निर्यात का मासिक योग है। यह पैमाना वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ भारत के वास्तविक मूल्य-वर्धित जुड़ाव को दर्शाता है।

इस मुख्य पैमाने का उपयोग करते हुए देखें तो, अगस्त 2025 तक के आंकड़े अप्रैल के शुल्क के ‘पहली लहर’ के प्रभाव को दिखाते हैं। हालांकि 50 फीसदी शुल्क और एच1बी शुल्क का असर अभी इन आंकड़ों में दिखना बाकी है। हैरान करने वाली बात यह है कि कोई बड़ी गिरावट नहीं हुई है। अगस्त में 62.6 अरब डॉलर का मुख्य निर्यात, 2020 के निचले स्तर के बाद से ऊपरी स्तर पर बना हुआ है। अप्रैल के टैरिफ से कोई महत्त्वपूर्ण बदलाव नहीं हुआ। हालांकि अगस्त का स्तर दूसरी तिमाही के शीर्ष से थोड़ा कम है फिर भी यह 2024 से पहले की किसी भी अवधि की तुलना में संरचनात्मक रूप से ऊपर बना हुआ है।

सालाना आधार पर वृद्धि इस बात की पुष्टि करती है। अमेरिकी डॉलर के लिहाज से मुख्य निर्यात में गिरावट नहीं आई है। अगस्त में सालाना वृद्धि 4.52 फीसदी थी और यह पूरे साल धनात्मक रही है। यह वर्ष 2021-2022 की महामारी के बाद आए अचानक उछाल की तुलना में धीमा जरूर हुआ है लेकिन फिर भी यह मजबूत मांग के संकेत देता है।

कुल डेटा विशेष तरह की कमजोरियों को छिपा सकता है। असली परीक्षा अमेरिका-भारत कॉरिडोर में होनी चाहिए। इसके लिए, हम सबसे जोखिम वाले घटक पर विचार करते हैं और वह है अमेरिका को वस्तुओं का निर्यात। हम इसे अमेरिका के कुल वस्तु आयात में भारत के हिस्से को देखकर मापते हैं। यहां, जुलाई तक उपलब्ध डेटा वास्तव में प्रभाव का पहला ठोस संकेत दिखाते हैं। भारत का हिस्सा वर्ष 2025 की शुरुआत में लगभग 3.7 फीसदी के शीर्ष से गिरकर जुलाई में 3.14 फीसदी हो गया।

इस गिरावट को एक मजबूत, दीर्घकालिक ऊपरी रुझान के विपरीत देखा जाना चाहिए। अमेरिका के वस्तु आयात में भारत का हिस्सा 1990 के दशक के अंत से लगातार बढ़ता रहा है। जुलाई 2025 के आंकड़े में भले ही गिरावट है, फिर भी यह इस दीर्घकालिक ऊपरी श्रृंखला के दायरे में बना हुआ है।

अमेरिका के वस्तु आयात में चीन की स्थिति के साथ यह एक स्पष्ट विरोधाभास है। अमेरिकी आयात में चीन की हिस्सेदारी वर्ष 2018 के 22 फीसदी से अधिक के शीर्ष स्तर से गिरकर जुलाई 2025 तक महज 9.04 फीसदी रह गई। यह एक निरंतर, कई साल से चल रही रणनीतिक वापसी है, जो अलग-अलग प्रशासन के माध्यम से चल रही है और अब तेज हो रही है। अमेरिकी आयातक सक्रिय रूप से चीन से अपनी निर्भरता कम कर रहे हैं। यह डेटा 50 फीसदी टैरिफ के असर को नहीं दर्शाता है और अभी और खराब स्थिति बन सकती है। बहरहाल, तीन वैचारिक तर्क भारत के पक्ष में हैं।

पहला, व्यापार की दिशा में बदलाव। भारतीय झींगों पर 50 फीसदी अमेरिकी शुल्क लगाने पर भारत के लिए अमेरिका को झींगा बेचना मुश्किल हो गया है लेकिन भारत दुनिया के बाकी देशों को तो झींगा बेच ही सकता है। भारतीय निर्यातक को नए खरीदार मिलेंगे। यह भी संभव है कि इसे बेहतर कीमत मिले, मसलन भारत जर्मनी में अपने झींगे बेहतर दाम पर बेचे तो इससे वहां वियतनामी झींगा कम बिकेगा। ऐसे में वियतनाम के विक्रेता, भारतीय प्रतिस्पर्धा कम होने के कारण, अमेरिका में झींगा बेच सकते हैं।

इस बदलाव में थोड़ा खर्च होगा, नए ग्राहक ढूंढने पड़ेंगे, नए नियमों के हिसाब से काम करना पड़ेगा और सामान भेजने का तरीका भी बदलना पड़ेगा। यह लागत मामूली नहीं है। लेकिन ये एक एकमुश्त लागत हैं और आ​खिरकार भारत के झींगे बेचने वाले और मजबूत हो जाएंगे और उन्हें दुनिया में झींगे बेचने के ज्यादा मौके मिलेंगे। इससे भारत में अच्छी गुणवत्ता वाली कंपनियों को फायदा होगा। यह एक सकारात्मक बात है।

दूसरा है ‘टैरिफ इंजीनियरिंग’। समझदार कंपनियां 50 फीसदी शुल्क को चुपचाप नहीं सहेंगी। भारत की जो सबसे अच्छी कंपनियां हैं, वो बहुराष्ट्रीय हैं। वे अपना सामान बनाने का तरीका बदल देंगी और उस देश से उत्पादित कर सामान अमेरिका भेजेंगी जहां शुल्क कम लगता है।

अमेरिका का ये 50 फीसदी शुल्क भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फायदा पहुंचाएगा और भारतीय कंपनियों को दूसरे देशों में और ज्यादा निवेश करने के लिए प्रेरित करेगा। इससे भारतीय कंपनियां और बेहतर बनेंगी, ग्लोबल वैल्यू चेन (जीवीसी) में अच्छे से जुड़ पाएंगी। भारत में ज्यादा उत्पादन करने वाली कंपनियों के उभरने के लिहाज से यह बेहद सकारात्मक है।

तीसरा तर्क यह है कि भारत अब अमेरिका के मुकाबले ‘नेगेटिव बीटा’ परिसंपत्ति है, यानी अमेरिका के विपरीत चलने वाला बाजार। ट्रंप की अराजकता भारत की सेवा अर्थव्यवस्था के लिए सकारात्मक है। जब अमेरिकी माहौल अराजक हो जाता है तब भारतीय सेवाओं की मांग बढ़ जाती है। महामारी के दौरान घर से काम करने के रुझान ने भारतीय आईटी की मांग में स्थायी वृद्धि की स्थिति बनाई थी। साल 2025 का व्यवधान भी उसी तरह का झटका है।

अमेरिकी कंपनियां, भारत में वैश्विक क्षमता केंद्र (जीसीसी) में अधिक लोगों को काम पर रखेंगी और भारत में सेवा निर्यातकों को अधिक अनुबंध देंगी। वे वीजा से जुड़ी दिक्कतों का सामना कर रहे अनुभवी कर्मचारियों को वापस भारत में स्थानांतरित कर देंगी। इनमें से प्रत्येक कदम भारत में अधिक मूल्य वाले काम के मौके तैयार करेगा और भारतीय कार्यबल में जानकारी का विस्तार होगा जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि को गति मिलेगी।

भारतीय फर्मों के लिए, यह डरने का समय नहीं बल्कि बेहतर रणनीतिक सोच का समय है। वैश्विक माहौल बदल रहा है, तो इस बदलते परिदृश्य में भारतीय फर्मों के लिए सबसे अच्छी जगह क्या हो सकता है?

केंद्र सरकार को टैरिफ और गैर-टैरिफ बाधाओं को कम करना चाहिए ताकि भारत में लागत कम हो, भारतीय कंपनियों द्वारा सामना किए जाने वाले प्रतिस्पर्धी दबाव को बढ़ाया जा सके और भारत में अधिक वैश्विक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मेजबानी की जा सके। इसमें ब्रिटेन, यूरोपीय संघ और अमेरिका के साथ बेहतर व्यापार समझौते शामिल हैं। इन समझौतों का सार भारतीय निर्यात के खिलाफ बाधाएं (जो अमेरिका में ट्रंप टैरिफ के अलावा ज्यादा नहीं हैं) नहीं है।

हमारा मुख्य ध्यान इस बात पर होना चाहिए कि भारत कैसे एक परिपक्व बाजार वाली अर्थव्यवस्था बने जो वैश्वीकरण में अच्छी तरह से एकीकृत हो, जिसमें वस्तुओं, सेवाओं, पूंजी, श्रम और उद्यमशीलता का मुक्त प्रवाह हो। बाजार को खोलने के लिए भारत द्वारा उठाया गया हर कदम देश को मजबूत बनाता है, देश में लागत कम होती है और यहां काम कर रही वैश्विक कंपनियां रोजगार, निर्यात और ज्ञान को बढ़ावा देती हैं।

First Published : November 11, 2025 | 9:17 PM IST