मध्यम अवधि में वैश्विक व्यापार वृद्धि के कमजोर बने रहने की उम्मीद है। मोटेतौर पर ऐसा इसलिए कि आर्थिक वृद्धि में धीमापन रहने की उम्मीद है जबकि भूराजनीतिक स्तर पर विभाजन बढ़ा है। परंतु ये बातें अपेक्षाकृत छोटी अर्थव्यवस्थाओं को वृद्धि के नए स्रोत तलाशने से नहीं रोक सकीं।
उदाहरण के लिए भारत के पड़ोस में श्रीलंका और बांग्लादेश के बारे में जानकारी है कि वे क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) में शामिल होने पर विचार कर रहे हैं।
श्रीलंका के राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे ने हाल ही में कहा कि उनके देश ने इस व्यापारिक ब्लॉक की सदस्यता के लिए आवेदन किया है।
आरसेप में एशिया प्रशांत क्षेत्र के 10 देश हैं। इसका इरादा वस्तुओं की आवाजाही को सुविधा प्रदान करना और सदस्य देशों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करना है कि वे सहज सीमा शुल्क प्रक्रियाओं और उत्पत्ति से जुड़े कानूनों के नियमों के लिए क्षेत्र के भीतर के आपूर्तिकर्ताओं पर विचार करें।
श्रीलंका आर्थिक संकट से जूझ रहा है और उसके लिए क्षेत्रीय बाजारों तक पहुंच अधिक प्रतिस्पर्धी बनने में मददगार साबित होगी। बांग्लादेश की बात करें तो आरसेप में प्रवेश उसके निर्यात घाटे की भरपाई में मदद करेगा क्योंकि वह सबसे कम विकसित देशों के समूह से बाहर हो गया है।
भारत बांग्लादेश और श्रीलंका का दूसरा सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है। आरसेप में शामिल होना उसे बड़े एशिया प्रशांत क्षेत्र में व्यापार पहुंच उपलब्ध कराएगा। यह भारत के पड़ोस में चीन के लिए भी बाजार को खोल देगा और इससे यह प्रश्न दोबारा पैदा होगा कि क्या भारत को आरसेप में शामिल न होने के अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए?
भारत चार वर्ष पहले इसमें शामिल होने की बातचीत से अलग हो गया था। ऐसा आरसेप के सदस्य देशों, खासकर चीन से सस्ती वस्तुओं के सस्ते आयात की चिंता में किया गया था। व्यापक भूराजनीतिक और सुरक्षा संबंधी चिंताएं भी एक वजह हैं।
तात्कालिक रूप से कई को भारत का दृष्टिकोण सही प्रतीत हो रहा होगा लेकिन दीर्घकालिक विमर्श यही सुझाता है कि भारत को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए। खासतौर पर ऑस्ट्रेलिया और जापान ने चीन के साथ चल रहे भूराजनीतिक तनाव के बाद भी आरसेप में शामिल होने का निर्णय लिया है।
भारत ने निश्चित तौर पर दुनिया के सबसे बड़े और सबसे जीवंत कारोबारी समूह में शामिल होने का अवसर गंवाया है जिसमें क्षेत्रीय व्यापार के रुझानों को आकार देने और विभिन्न देशों के आर्थिक एकीकरण को बढ़ावा देने की क्षमता है। अब जबकि दो अन्य दक्षिण एशियाई देश आरसेप में शामिल होने को तैयार हैं तो भारत की अवसर लागत में इजाफा ही होगा।
बहरहाल अगर भारत अपने निर्णय पर पुनर्विचार करता है तो संभवत:अधिकांश सदस्य देश उसकी सदस्यता को स्वीकार कर लेंगे। इसके अलावा मौजूदा हालात यही बताते हैं कि इस समूह में नहीं शामिल होने से भी भारत को चीन के साथ व्यापार घाटा कम करने में मदद नहीं मिली है। इसमें उल्लेखनीय इजाफा हुआ है।
यदि भारत इस समूह में शामिल होता तो वह व्यापार संबंधी मसलों से अधिक प्रभावी ढंग से निपट सकता था। इसके साथ ही सदस्य देशों के बाजार भी उसके लिए खुलेंगे। वैश्विक व्यापार में भागीदारी बढ़ाकर ही स्थानीय विनिर्माण को बढ़ावा दिया जा सकता है और रोजगार उत्पन्न किए जा सकते हैं।
ऐसे में यह महत्त्वपूर्ण है कि व्यापक वैश्विक मूल्य श्रृंखला का हिस्सा बना जाए। बहरहाल, भारत उच्च टैरिफ और बड़े निर्माताओं के लिए राजकोषीय प्रोत्साहन की अलग रणनीति के साथ काम करता आया है। इसके अलावा आरसेप में नहीं शामिल होने के अपने निर्णय की भरपाई के लिए भारत विभिन्न मुक्त व्यापार समझौतों पर काम कर रहा है।
हालांकि इनके लाभ सीमित होंगे और मुक्त व्यापार समझौतों के संभावित साझेदार भी कम टैरिफ पर भारतीय बाजारों में अधिक पहुंच की मांग करेंगे। निश्चित तौर पर भारत दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में मुक्त व्यापार समझौते करके अपने निर्यात और विनिर्माण संभावनाओं को बेहतर बनाएगा बल्कि बहुपक्षीय कारोबारी समझौतों की मदद से उत्पाद गुणवत्ता और निर्यात के अवसरों में भी इजाफा किया जा सकता है। इस लिहाज से देखें तो आरसेप का प्रश्न उठता रहेगा।