केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पिछले माह पेश किए गए तीसरी नरेंद्र मोदी सरकार के पहले केंद्रीय बजट में, चालू वित्त वर्ष के लिए राजकोषीय घाटे के लक्ष्य में 20 आधार अंकों का सुधार करते हुए इसे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 4.9 प्रतिशत पर ला दिया गया है, जो फरवरी में पेश अंतरिम बजट की तुलना में बेहतर है। यह केंद्र सरकार के राजकोषीय घाटे को कम करने के लक्ष्य की प्रतिबद्धता के अनुरूप है।
पिछले वित्त वर्ष (2023-24) में भी सरकार ने राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 5.6 फीसदी के स्तर पर सीमित किया है जबकि 5.9 फीसदी बजट अनुमान था। उम्मीद से बेहतर राजस्व संग्रह के साथ ही यथार्थवादी बजट अनुमानों ने हाल के वर्षों में सरकार की मदद की है। यह वर्ष 2025-26 तक राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 4.5 फीसदी से नीचे लाने की मध्यम अवधि के लक्ष्य के अनुरूप है।
राजकोषीय घाटा कम करने की राह पर बने रहने के लिए सरकार की तारीफ अवश्य की जानी चाहिए जो तब थोड़ा मुश्किल लग रहा था जब इसकी घोषणा 2021 में की गई थी। हाल के वर्षों में राजकोषीय प्रदर्शन को देखते हुए उम्मीद थी कि सरकार एक नई मध्यम अवधि के उपायों की घोषणा कर सकती है। हालांकि बजट में इस बात के संकेत दिए गए थे कि सरकार आने वाले वर्षों में राजकोषीय प्रबंधन कैसे करेगी लेकिन इसने कई सवाल भी उठाए जिन पर बहस की जानी चाहिए।
वित्त मंत्री सीतारमण ने अपने बजट भाषण में कहा, ‘वर्ष 2026-27 से, हमारा प्रयास प्रत्येक वर्ष राजकोषीय घाटे को इस तरह रखना होगा कि केंद्र सरकार का ऋण सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में घटता रहे।’ भारत का सार्वजनिक ऋण महामारी के बाद काफी बढ़ गया है और यह कमजोरियों का कारक बना हुआ है और इसीलिए ऋण-जीडीपी अनुपात में लगातार कमी लाने का लक्ष्य एक उपयुक्त राजकोषीय लक्ष्य है।
हालांकि सार्वजनिक ऋण में कमी की लक्षित गति अभी स्पष्ट नहीं है। उदाहरण के तौर पर चालू वित्त वर्ष में सरकार का अनुमान है कि केंद्र सरकार का ऋण, जीडीपी के 56.8 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच जाएगा जो वर्ष 2023-24 में 58.1 प्रतिशत था। इस गति से वर्ष 2017 में राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) समीक्षा समिति द्वारा सिफारिश किए गए 40 प्रतिशत के ऋण लक्ष्य तक पहुंचने में एक दशक से अधिक समय लगेगा। यह तभी संभव होगा जब अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ती रहे और अगले दशक में कोई ऐसे बाहरी झटके का सामना न करना पड़े जिसमें बड़े राजकोषीय हस्तक्षेप की आवश्यकता पड़े।
इसके अलावा यह स्पष्ट नहीं है कि केंद्र सरकार के 40 प्रतिशत के ऋण लक्ष्य के साथ जीडीपी के 60 प्रतिशत की कुल ऋण सीमा प्रासंगिक भी है या नहीं जिसकी सिफारिश एफआरबीएम समीक्षा समिति ने की थी। पिछले एक दशक में भारतीय और वैश्विक दोनों अर्थव्यवस्था में काफी बदलाव आया है।
राजकोषीय नीति के लिए ज्यादा गुंजाइश बनाने के लिए भारत को अगले कुछ वर्षों में ऋण में तेजी से कमी लाने की आवश्यकता होगी। ऐसे में सरकार को मध्यम अवधि के लक्ष्यों की रूपरेखा तैयार करते हुए, ऋण में कमी करने के उपायों की जरूरत होगी। निश्चित अवधि में ऋण में उचित कमी के लिए एक व्यावहारिक लक्ष्य की भी आवश्यकता होगी। अब तक राजकोषीय घाटे को लक्ष्य के तौर पर देखा गया है। यह तय करना भी महत्त्वपूर्ण होगा कि सरकार की दी गई समय-सीमा के भीतर, ऋण के स्तर में जरूरी कमी लाने के लिए किस मात्रा में राजकोषीय घाटे का भार सह सकती है।
कड़े वित्तीय लक्ष्यों की आलोचना इस बात को लेकर होती है कि इस तरह की नीतियां अर्थव्यवस्था को और बेहतर भी बना सकती हैं, लेकिन जब अर्थव्यवस्था की स्थिति खराब होती है तब ये नीतियां और मुश्किल पैदा कर सकती हैं। ऐसा इसलिए होता है कि सरकार अच्छे समय में सुधार के कदमों के लिए तैयार नहीं होती है।
सरकारी अधिकारियों का कहना है कि सामान्य वर्ष में ऋण बढ़ाए बिना, सरकार जितना पैसा खर्च कर सकती है, वह फिलहाल जीडीपी के 3 फीसदी की तय सीमा नहीं हो सकती है जैसा कि एफआरबीएम अधिनियम में भी कहा गया है। लेकिन अब हमें ऋण को स्थिर रखने के बजाय इसे तेजी से कम करने पर ध्यान देना चाहिए। यह भी स्पष्ट नहीं है कि राज्यों को भी उसी तरह के नियमों का पालन करना होगा या नहीं जिसके तहत केंद्र सरकार अपना कर्ज कम करने की कोशिश कर रही है।
इसके अलावा, कोरोना महामारी के बाद देश की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में सरकार के बड़े पूंजीगत खर्चों का बहुत बड़ा योगदान रहा है, जो इस साल जीडीपी के 3.4 प्रतिशत तक पहुंचने की उम्मीद है। क्या सरकार अगले कुछ सालों में भी इतना ही ज्यादा खर्च करके अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाना चाहेगी, जिससे सरकारी घाटा बढ़ता रहेगा?
इसके अलावा, मध्यम अवधि के लिए तय किए गए राजकोषीय लक्ष्यों में आमतौर पर यह देखा जाता है कि देश की अर्थव्यवस्था कितना खर्च उठा सकती है। अगर राजकोषीय घाटे का स्तर जीडीपी के 3 फीसदी से ऊपर है तब यही बात राज्यों पर भी लागू होगी जो क्या अपनी बचत से बढ़े हुए खर्च की फंडिंग कर सकते हैं?
हाल के आंकड़ों के मुताबिक, घरों की बचत पिछले कई दशकों में सबसे कम स्तर पर है, जो जीडीपी का सिर्फ 5.3 फीसदी है। भले ही इसमें सुधार हो लेकिन क्या यह इतना बढ़ेगा कि देश की जरूरतें पूरी की जा सकेंगी? अगर कंपनियां ज्यादा पैसा लगाने लगें, जो देश की तरक्की के लिए जरूरी है तो उनके पास यह पैसा कहां से आएगा? अगर सरकार ज्यादा कर्ज लेती रही तब निजी क्षेत्र को आयात से जुड़ी बचत पर निर्भर होना पड़ेगा और इससे बाहरी क्षेत्र के प्रबंधन की जटिलताएं और तेजी से बढ़ सकती हैं।
देश के विकास के इस स्तर पर एक आसान, पारदर्शी और नियम आधारित राजकोषीय ढांचे की बहुत जरूरत है। यह उस समय और भी जरूरी हो जाता है जब सरकार और कंपनियों दोनों को ही निवेश के लिए विदेशों से पैसा लाने की जरूरत होगी।
पहली बार भारत के सरकारी बॉन्ड को दुनिया के सबसे बड़े बॉन्ड सूचकांक में शामिल किया गया है और उम्मीद है कि और भी बॉन्ड शामिल होंगे। भारत को उम्मीद है कि उसकी क्रेडिट रेटिंग भी बढ़ेगी और यह उचित भी है।
कुल मिलाकर, कोरोना महामारी के बाद भारत द्वारा लिए गए वित्तीय फैसलों से देश को फायदा हुआ है। अब हमें इन उपलब्धियों पर आगे बढ़ना चाहिए। इसलिए भारत को अपने वित्तीय हालात की पूरी समीक्षा करने की जरूरत है। इसके लिए एक स्पष्ट रोडमैप चाहिए जिसमें कर्ज जल्दी कम करने, अर्थव्यवस्था को लगातार बढ़ाने और इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए जरूरी पैसे जुटाने के लक्ष्य शामिल हों।