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दोधारी तलवार: युद्ध के स्वरूप में बदलाव के साथ तैयारी जरूरी

आज तक नियंत्रण रेखा पर भारतीय सीमा चौकियों पर भारत के उन इन्फैंट्रीमेन के नाम उल्लिखित हैं जिन्होंने उनकी रक्षा करते हुए अपनी जान गंवाई।

Last Updated- April 14, 2024 | 10:01 PM IST
युद्ध के स्वरूप में बदलाव के साथ तैयारी जरूरी, The transformation of war

हर वर्ष 27 अक्टूबर को भारतीय सेना ‘इन्फैंट्री डे’ मनाती है। यह दिन पैदल सैनिकों की बहादुरी को याद करने के लिए मनाया जाता है जो सेना के लड़ाकू दस्ते का सबसे बड़ा हिस्सा हैं। सन 1947 में इसी दिन पाकिस्तान के कबायली घुसपैठियों ने कश्मीर घाटी पर भीषण हमला किया था और तब भारतीय इन्फैंट्री के सैनिकों मसलन फर्स्ट सिख और फोर्थ कुमाऊं जैसी बटालियन को पुराने डकोटा परिवहन विमानों की मदद से श्रीनगर हवाई अड्‌डे तक पहुंचाया गया ताकि कबायलियों को रोका जा सके।

उस वक्त तक कबायली श्रीनगर के करीब पहुंच चुके थे और हवाई अड्‌डे को कब्जे में करने की फिराक में थे। थोड़े हथियार और ढेर सारे साहस की बदौलत चुनिंदा भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तानियों को श्रीनगर के बाहर ही रोक दिया और उन्हें वहां वापस धकेल दिया जो बाद में सीमा कहलाई। इस तरह जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा बना रहा। आज तक नियंत्रण रेखा पर भारतीय सीमा चौकियों पर भारत के उन इन्फैंट्रीमेन के नाम उल्लिखित हैं जिन्होंने उनकी रक्षा करते हुए अपनी जान गंवाई।

उनके बलिदान का सम्मान करते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उनमें से कई को इसलिए जान गंवानी पड़ी कि उस समय सेना वैसे युद्ध के लिए तैयार नहीं थी। सन 1947 में श्रीनगर, बारामूला, पुंछ, नौशेरा और अन्य स्थान, 1962 में जसवंतगढ़ और वालॉन्ग, 1965 में हाजी पीर पास को वापस लेने से लेकर 1971 में बांग्लादेश की आजादी तक भारत की लड़ाकू टुकड़ियां अक्सर भयानक परिणामों के साथ आरंभिक लड़ाई में हार जाती थीं। यह तो देश के योजनाकारों को सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसा फिर न हो।

समकालीन युद्ध का विश्लेषण करना इसलिए मुश्किल है क्योंकि यूक्रेन में चल रही लड़ाई में नए और पुराने युद्ध का मिश्रण है। तोपखाना, बारूदी सुरंग और खाई के जरिये युद्ध आदि पहले विश्व युद्ध के समय के तरीके हैं और यूरोप की तोपों की गोलाबारी पर ड्रोन से नजर रखी जा रही है और उसे टैबलेट कंप्यूटर की मदद से संयोजित किया जा रहा है। यह सैटेलाइट के माध्यम से इंटरनेट से जुड़ा हुआ है।

हल तक पहुंचने के लिए यह पता लगाना जरूरी है कि क्या नहीं बदलेगा, क्या बुनियादी रूप से बदल जाएगा और उन अंतर्दृष्टियों को कैसे लागू किया जाएगा। युद्ध ने यह भी दिखाया है कि युद्ध में जवानों के इस्तेमाल की एक सीमा है। अगर मामला केवल सैनिकों और टैंकों की तैनाती का होता तो रूस ने बहुत पहले कीव पर कब्जा कर लिया होता। यूक्रेन ने उन्हें दूर रखने के लिए पहले जैवलिन और स्टिंगर जैसी हाथ से छोड़ी जाने वाली मिसाइलों का इस्तेमाल किया। यह बड़े बदलाव को रेखांकित करता है। इसमें यूक्रेन और हिंद-प्रशांत का गहरा अध्ययन और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग का इस्तेमाल शामिल है।

समकालीन युद्ध कला के कई विद्वानों का कहना है कि हालांकि 90 फीसदी हथियार दोनों पक्षों से इस्तेमाल किए जा रहे हैं जिनमें विमान, टैंक, तोपखाना और सशस्त्र जवानों को ले जाने वाले वाहन आदि शामिल हैं वे 20वीं सदी में विकसित किए गए थे। अन्य 10 फीसदी का परिवर्तनकारी प्रभाव होगा।

इनमें से प्रमुख है नि:शस्त्र हवाई वाहन (यूएवी) जो शादियों तथा अन्य अवसरों पर खूब इस्तेमाल किए जा रहे हैं। ये शत्रु का पता लगा सकते हैं या हथगोले अथवा विस्फोटक को शत्रु के जवानों के ऊपर गिरा सकते हैं। यूक्रेन को पश्चिम से ऐसे ड्रोन मिले जिनमें तुर्किए का बेरक्तार टीबी2, अमेरिका का स्विचब्लेड 300 और फीनिक्स घोस्ट तथा ऑस्ट्रेलिया का प्रिसीजन पेलोड डिलिवरी सिस्टम शामिल है। इस बीच रूस ईरान में बने और खुद फट जाने वाले ड्रोंस तथा अपने लांसेट ड्रोंस और जीपीए निर्देशित ग्लाइड बॉम्ब पर निर्भर रहा।

ड्रोन धीमे उड़ते हैं, बहुत शोर करते हैं और उन्हें आसानी से जाम किया जा सकता है। उन पर गोली, मिसाइल या जैमिंग उपकरणों का इस्तेमाल किया जा सकता है। ब्रिटिश थिंक टैंक रॉयल यूनाइटेड सर्विसेज इंस्टीट्यूट (आरयूएसआई) के मुताबिक किसी लड़ाई में ड्रोन औसतन तीन उड़ानें भर पाता है। चीन और अमेरिका बड़े पैमाने पर स्वचालित उपकरण बना रहे हैं और भविष्य में ड्रोन की तादाद बढ़ने वाली है।

यूक्रेन के एक अधिकारी ने कहा, ‘एक नई तरह की सेना होगी। वायु सेना और तोपखाने की तरह ड्रोन भी एक ताकत होंगे। यानी सेना के भीतर एक अलग सेना होगी।’ अमेरिका सेना नए तरह के युद्ध के लिए तैयार रहने में यकीन करती है और उसने आर्मी फ्यूचर्स कमांड नामक एक नया कमांड ढांचा बनाया है। सेना में रह चुके एरिजोना के रिपब्लिकन सीनेटर जॉन मैकेन 2018 में इसकी स्थापना की प्रमुख वजह थे। उस समयसेना महंगे हथियारों को बनाने के कार्यक्रमों को रद्द किए जाने से परेशान थी।

मैकेन को यकीन था कि ड्रोन जिस तरह की चुनौती पेश कर रहे हैं उनके चलते सेना के आधुनिकीकरण के काम को एकजुट करने की आवश्यकता है और इसका केंद्र पारंपरिक सैन्य क्षेत्रों से दूर होना चाहिए। यह काम आर्मी फ्यूचर कमांड और उसके 20,000 कर्मियों को सौंपा गया ताकि वे ऐसी तकनीक और विचार तैयार करें जो सेना को रोबोटिक्स, क्वांटम कंप्यूटिंग, हाइपरसोनिक, लक्षित ऊर्जा और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस के जरिये तेजी से काम कर सकें।

इस कमांड का लक्ष्य है रोबोटिक प्लाटून आदि की मदद से सेना को 2040 के युद्धों के लिए तैयार करना। इसमें चालकरहित और चालक सहित यानों को एक इकाई में एकीकृत किया जाएगा ताकि दुश्मन के साथ पहला संपर्क सैनिकों के जरिये न हो जो अमेरिका की हथियार प्रणाली में सबसे कीमती हैं। इसके बजाय एक इंसानी टुकड़ी को अधिक घातक बनाना होगा क्योंकि भविष्य के युद्धों में ड्रोन और उन पर लगे सेंसर आदि के कारण चिह्नित होने से बचना लगभग असंभव होगा। यह कहता है, ‘लक्ष्य इसे गलत समझना नहीं है। हम 70 फीसदी हल चाहते हैं, चाहते हैं कि पता चले गलती कहां हुई और इस तरह विरोधियों से तेजी से इसे अपना सकें।’

नवाचार की इन बातों के अलावा यह कमांड दुनिया की सबसे बड़ी अफसरशाही का हिस्सा है यानी अमेरिकी रक्षा मंत्रालय का। वह हथियार विकसित कर सकती है लेकिन यह उन्हें थोक में हासिल नहीं कर सकती। यह पेंटागन की खरीद प्रक्रिया का हिस्सा है। यह देखना होगा कि यह पांच साल पुरानी कमांड अमेरिका के सैन्य नवाचार को गति देने में कितनी सफल साबित होती है। परंतु अमेरिकी सेना को यह श्रेय देना होगा कि वह कम से कम भविष्य के युद्धों के लिए तैयार तो हो रही है। भारतीय सेना को उसका अनुकरण करना चाहिए।

First Published - April 14, 2024 | 10:01 PM IST

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