शुक्रवार को लोकसभा में वित्त विधेयक, 2023 बिना किसी चर्चा के पारित हो गया। इस विधेयक में लगभग 64 संशोधन थे। नई पेंशन योजना पर विचार करने के लिए वित्त मंत्री द्वारा समिति गठित करने जैसे निर्णय सामान्यतया विवाद का विषय नहीं बनते हैं। वित्त मंत्री के इस निर्णय का राजनीतिक महकमे के और शिक्षित लोग सभी स्वागत करेंगे। मगर दूसरे निर्णय अधिक सूझबूझ के साथ लिए गए नहीं लगते हैं, इसलिए इन पर विवाद खड़े हो सकते हैं।
किंतु-परंतु के बावजूद इन बदलावों पर संसद में काफी कम चर्चा हुई। संसद में इन विषयों पर चर्चा नहीं होने के लिए कुछ हद तक विपक्ष को दोष दिया जा सकता है। विपक्षी दलों ने अदाणी एंटरप्राइजेज के मुद्दे पर संसद की कार्यवाही में व्यवधान डाला और वे इस मामले पर संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की मांग पर अड़े रहे।
मगर संसद में अधिक से अधिक चर्चा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सरकार के कंधों पर होती है। इस उत्तरदायित्व के निर्वहन में सरकार विफल रही है। आर्थिक नीति से जुड़े महत्त्वपूर्ण विधेयकों का बिना खास चर्चा के पारित कराना अनुचित है और इसे किसी दृष्टिकोण से अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता है।
इन सभी विषयों पर चर्चा इसलिए भी जरूरी थी कि संशोधित वित्त विधेयक में कुछ बदलाव सरकार की कर नीतियों को लेकर असमंजस की स्थिति पैदा कर सकते हैं। डेट म्युचुअल फंडों के मामले में दीर्घ अवधि के पूंजीगत लाभ की गणना में महंगाई एवं अन्य खर्च में बढ़ोतरी में समायोजन का लाभ (इंडेक्सेशन बेनिफिट) हटाना एक ऐसा ही बदलाव है।
इस संशोधन के बाद डेट म्युचुअल फंडों पर कराधान वाणिज्य बैंकों में जमा रकम पर होने वाले कराधान के अनुरूप ही हो जाता है। परंतु प्रश्न उठता है कि क्या यह समानता उचित है? बैंक में जमा रकम बीमित होती है और इनका नियमन भी समुचित ढंग से होता है। ये डेट म्युचुअल फंडों की तुलना में अधिक सुरक्षित मानी जाती हैं। अगर डेट म्युचुअल फंडों के संबंध में कराधान में बदलाव में जोखिम का पहलू शामिल नहीं था तो इक्विटी में 35 फीसदी से अधिक निवेश करने वाली म्युचुअल फंड योजनाओं को इस बदलाव के दायरे से क्यों बाहर रखा गया?
धन और निवेश पर कराधान किस तरह होना चाहिए, इसे लेकर निहित सिद्धांत तय होना चाहिए। व्यापक स्तर पर सुधार भी जरूरी हैं ताकि शेयर, राजस्व और निवेश के लिए दिए जाने वाले प्रोत्साहन के बीच संतुलन से जुड़ी चिंताओं का निराकरण किया जा सके। सामान्यतया, सभी तरह की आय पर कराधान उचित मार्जिनल दर पर होना चाहिए, जबकि दोहरे कराधान से परहेज किया जाना चाहिए।
शेयर या दीर्घावधि की वृद्धि के मामलों में ही इस सिद्धांत से भटकाव को उचित ठहराया जा सकता है। दीर्घ अवधि की वृद्धि के दृष्टिकोण से भारत में ऋण बाजार का आकार एवं इसमें लेनदेन बढ़ना चाहिए। इससे कंपनियां दीर्घ अवधि के लिए अधिक पूंजी जुटा पाएंगी और इसके साथ ही बैंकिंग प्रणाली से जुड़े तंत्रगत जोखिम भी कम हो जाएंगे। मगर कराधान के जो उपाय ऐसे दीर्घकालिक विषयों को ध्यान में नहीं रखते हैं वे भारत के वित्तीय बाजार की परिपक्वता को प्रभावित करेंगे।
कुछ ऐसे विषय हैं जो संसद में वित्त विधेयक पर चर्चा के दौरान उठ सकते थे या उठाए जाने चाहिए थे। यह निश्चित रूप से समझ से परे है कि कर प्रणाली में ऐसे बड़े बदलाव की घोषणा वित्त मंत्री के बजट भाषण में या वित्त विधेयक के मूल मसौदे में क्यों नहीं की गई।
अगर ये घोषणाएं होतीं तो संसद के अंदर और बाहर इनसे जुड़े परिणामों पर जरूर बहस होती। सरकार को यह स्पष्ट रूप से बताना चाहिए कि वह इन बदलावों को वित्त विधेयक के मूल मसौदे में शामिल क्यों नहीं कर पाई। भविष्य में ऐसी बड़ी गलती से बचने के लिए सरकार को एक ऐसी एकीकृत और तार्किक प्रत्यक्ष कर संहिता पर अवश्य पुनर्विचार करना चाहिए जिनमें ये सिद्धांत निहित होंगे।