पूंजी की आवक और उसकी निकासी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, और जरूरत इस बात की है कि वित्तीय स्थिरता बनाए रखते हुए दोनों को सुगम बनाने की कोशिश की जाए। बता रहे हैं अतनु चक्रवर्ती
मैं ने पिछले वर्ष को ‘अनुमानित अनिश्चितताओं ’ का वर्ष कहा था। महामारी बीत चुकी है लेकिन दुनिया भर में मुद्रास्फीति बरकरार है जबकि वैश्विक वित्तीय संकट के बाद से ही सहज वित्तीय प्रभाव के कारण जानकारों ने मुद्रास्फीति के शुरुआती दौर को अस्थायी कहा था। इसने दुनिया भर में मांग और रोजगार को प्रभावित किया है। ब्याज दरें बढ़ी हैं तथा संरक्षणवाद नजर आ रहा है। स्टार्टअप के लिए भी फंड अपर्याप्त हैं।
यूरोप, पश्चिम एशिया और दक्षिण चीन सागर में भू-राजनीतिक अनिश्चितताओं में विस्तार की आशंका है। घरेलू स्तर पर देखें तो जहां हालिया संसदीय चुनावों के परिणाम चकित करने वाले रहे, वहीं जिस सहजता से सरकार बनी उससे अस्थिरता की चिंताएं दूर हुई हैं। अर्थव्यवस्था की बात करें तो भारत ने लगातार चार वर्षों तक सात फीसदी से अधिक की वृद्धि हासिल की है।
रिजर्व बैंक के कदमों के कारण कोर मुद्रास्फीति नीचे आई है, हालांकि खाद्य मुद्रास्फीति अभी भी चिंताजनक स्तर पर है। भारत ने वैश्विक वृद्धि में 18 फीसदी का योगदान किया है। वित्तीय क्षेत्र मजबूत है और डिजिटल लेनदेन बढ़ रहा है। बेंगलूरु-चेन्नई बेल्ट में स्टार्टअप को टिकाऊ वृद्धि हासिल हो रही है और वह देश के कई क्षेत्रों में विश्वस्तरीय स्टार्टअप को वृद्धि प्रदान कर सकता है। हालांकि कई चिंतित करने वाले संकेत भी हैं जिनका हमें ध्यान रखना होगा।
पारिवारिक बचत सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 5.1 फीसदी तक गिर गई है। इसका असर ऋण और वृद्धि दर के धीमेपन के रूप में देखने को मिल सकता है। खपत हमारी वृद्धि के कथानक का मुख्य आधार है और उसमें भी धीमापन आ रहा है। हालांकि अभी इसका असर सीमित है और अधोसंरचना में भारी सरकारी निवेश के कारण ढका हुआ है।
सरकार और रिजर्व बैंक ने महामारी के दौरान और उसके बाद जो प्रतिक्रिया दी वह प्रभावी रही। परंतु आम सरकारी डेट-जीडीपी अनुपात 80 फीसदी से ऊपर है और केंद्र सरकार के मामले में यह 57 फीसदी से अधिक है। हालांकि रुपये में होने के कारण यह अल्पावधि में कोई खतरा नहीं है लेकिन यह एक बड़ी देनदारी है जिससे विकास कार्यों की गुंजाइश सीमित होती है।
वित्त वर्ष 25 का बजट इसी महीने पेश किया जाना है और वह अगले तीन साल के लिए नीतिगत दिशा मुहैया कराएगा। बजट से उम्मीद होगी कि वह विकसित भारत का मार्गदर्शन करे। कर नीति बीते तीन साल से स्थिर रही है और माना जा रहा है कि यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहेगा। इस समय देश में व्यक्तिगत आयकर ऊंचा है और मार्जिनल कर दर 37 फीसदी है।
अब हमें इसे कम करने और उप कर समाप्त करने पर विचार करना चाहिए। आय कर कम होने से बचत और खपत में इजाफा होगा और वृद्धि को गति मिलेगी। अल्पावधि में राजस्व में कोई भी कमी मुनाफे वाली सरकारी कंपनियों के शेयरों की बिक्री करके दूर की जा सकती है। वित्त मंत्रालय को भी राजकोषीय घाटा कम करने की अपनी प्रतिबद्धता निभानी होगी।
कम राजकोषीय घाटा मुद्रास्फीति का दबाव कम करेगा और सरकारी के साथ अन्य कंपनियों की ऋण तक पहुंच सुनिश्चित करने के अवसर बनाएगा। इससे वृद्धि और रोजगार को बढ़ावा मिलेगा। बीते तीन दशक में देश में अधोसंरचना में निजी भागीदारी का कौशल विकसित हुआ है। निजी क्षेत्र को दीर्घावधि का ऋण मुहैया कराने के लिए यह जरूरी है कि कॉर्पोरेट बॉन्ड बाजार को विकसित किया जाए।
भारत सरकार के बॉन्ड पहले ही विदेशी भागीदारी के लिए खुल गए हैं और उन्हें अंतरराष्ट्रीय बॉन्ड सूचकांकों में भी शामिल किया जा रहा है। अब विदेशी मुद्रा भंडार के सहज स्तर पर होने के बाद भारत उच्च रेटिंग वाले कॉर्पोरेट बॉन्ड को भी खोल सकता है। वे रुपये में होंगे और बाजार को गहराई प्रदान करेंगे। इससे बैंक बैलेंस शीट में विसंगति नहीं आएगी।
गरीबी उन्मूलन में भारत का प्रदर्शन प्रभावशाली रहा है। इस चुनाव में विपक्ष एकजुट होकर कल्याण योजनाओं और रोजगार के मुद्दों पर लड़ता हुआ नजर आया। अर्थशास्त्र के विद्वानों का मानना है कि कल्याण योजनाओं पर भारत का कुल व्यय जीडीपी के 1.8 फीसदी के बराबर है। इस स्तर के परे जाने पर राजकोषीय घाटे में कमी प्रभावित होगी और मुद्रास्फीति बढ़ेगी। उत्पादकता पर इसका बहुत कम सकारात्मक असर होगा।
कई नीतिगत विशेषज्ञों का कहना है कि रोजगार बढ़ाने और ग्रामीण इलाकों में कृषि पर दबाव कम करने के लिए विनिर्माण में इजाफा ही इकलौता उपाय है। मैं रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर की बात से सहमत हूं जिन्होंने अपनी हालिया पुस्तक में बड़े उद्योगों के अंधे समर्थन का विरोध करते हुए कहा है कि चीन और दक्षिण पूर्वी एशिया की नकल शायद हमारे लिए सही नहीं हो।
बहरहाल, मैं मानता हूं कि भारत में सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यम क्षेत्र यूरोप के तर्ज पर फलाफूला है और ऋण का बड़ा हिस्सा उसमें जा रहा है। ऋण गारंटी जैसी योजनाएं कम डिफॉल्ट दर के साथ उपयोगी साबित हुई हैं। इनमें से कई व्यापक आपूर्ति श्रृंखला का हिस्सा बन सकती हैं और बड़े उद्योग में बदल सकती हैं। उन्हें ऋण और कौशल के क्षेत्र में निरंतर सरकारी मदद की आवश्यकता होगी।
सेवा क्षेत्र पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। सेवाओं को आसानी से निर्यात किया जा सकता है और ये बड़े पैमाने पर रोजगार तैयार करती हैं। इन्हें ऊपर से नीचे तक हर स्तर पर मदद की जरूरत होती है। यानी एआई से लेकर निचले दर्जे पर रसोइयों, सहायकों आदि को प्रशिक्षित करने तक।
दीर्घजीविता, बेहतर आय और अधिक महिलाओं के श्रम शक्ति का हिस्सा बनने से इन सेवाओं की मांग भी बढ़ रही है। परंतु इन क्षेत्रों में काम करने वालों को बेहतर कौशल, विनियमित और उच्च गुणवत्ता वाले मध्यस्थ संस्थाओं के रूप में मदद की आवश्यकता होती है। इन्हें यूनिवर्सल पेंशन और स्वास्थ्य सहायता की भी आवश्यकता होती है।
सेवाओं और एमएसएमई क्षेत्र की वृद्धि के कारण लोगों का गांवों से शहरों में आना बढ़ेगा। सरकार ने जहां सस्ते घरों पर ध्यान केंद्रित किया है वहीं अधिकांश कामगारों को काम की जगह के करीब घर की आवश्यकता होती है क्योंकि वे लंबी दूरी तक सफर नहीं कर सकते। ऐसे में किराये का घर अच्छा विकल्प है। इसके लिए नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता होगी। इसका अन्य संबद्ध उद्योगों पर सकारात्मक असर होगा तथा नए रोजगार तैयार होंगे।
चुनाव ने कृषि के मुद्दे को भी रेखांकित किया। अगर फसल पैटर्न को सरकारी हस्तक्षेप के बजाय बाजार मूल्य संकेतों के साथ जोड़ दिया जाए तो किसानों को बेहतर भुगतान मिल सकेगा। वित्तमंत्री ने 2020-21 के बजट भाषण में कृषि के लिए एक व्यापक योजना बनाई थी। इसके लिए सहमति निर्माण करना होगा।
आखिर में आने वाले समय में निरंतर 6.5 फीसदी से 7 फीसदी के बीच की वृद्धि दर बरकरार रखने के लिए काफी पूंजी की जरूरत होगी। वित्तीय बाजार निरंतर निखर रहे हैं। अगर नियामकीय बोझ कम हो और राजकोषीय और नियामकीय व्यवस्था स्थिर हो तो उन्हें लाभ भी होगा। बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करेगा कि आने वाले वर्षों में जीआईएफटी आईएफएससी किस प्रकार विकसित होते हैं।
परंतु हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि पूंजी की आवक और उसका बाहर जाना दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और वित्तीय स्थिरता के लिए दोनों में संतुलन बनाए रखना जरूरी है। मेरा मानना है कि वित्तीय सुधारों के मूल में यही है। विकसित भारत के लिए वित्तीय क्षेत्र को सहज कामकाज से परिभाषित किया जाना चाहिए जिसके लिए धैर्य, सुधारों तथा नीतिगत और नियामकीय स्थिरता की आवश्यकता होगी।
(लेखक एचडीएफसी बैंक के चेयरमैन हैं)