अतिवादी वाम-उदारवाद को नियंत्रित करने के लिए रूढ़िवाद का उभार भी उपयोगी है और यही बात विपरीत रूप में भी लागू हो सकती है। बता रहे हैं आर. जगन्नाथन
इटली में हाल में हुए चुनाव में जोर्जा मेलोनी और उनके सहयोगियों की जीत के बाद तथाकथित उदारवादियों में वही चिर-परिचित बयानबाजी शुरू हो गई है। अपनी युवावस्था में इतालवी तानाशाह बेनितो मुसोलिनी के प्रति उनके कथित आदरभाव को लेकर उनकी लानत-मलानत की जा रही है। वहीं कुछ हलकों में यह फुसफुसाहट शुरू हो गई है कि इटली फासीवाद और धुर-दक्षिणपंथ की दिशा में बढ़ रहा है।
यह ‘लिबरल या उदारवादियों’ की विचित्र समस्या है कि जिन लोगों को वे नापसंद करते हैं, उनके चुनाव में जीतते ही लोकतंत्र पर उनका भरोसा डगमगाने लगता है। उदारवाद के मठाधीशों के लिए प्रत्येक लोकतंत्र और मतदाता चुनावी नतीजों को लेकर उनकी अपेक्षाओं पर खरे उतरने चाहिए। अन्यथा विजेता अवैध, नकारात्मक चित्रण अथवा निंदा के योग्य ही माना जाता है। ऐसे उदारवादियों को अब परिपक्व हो जाना चाहिए।
उदारवाद का पराभव इसलिए नहीं हो रहा कि कुछ ‘धुर-दक्षिणपंथी’ तत्त्व फर्जी खबरों और दुष्प्रचार से लोगों के दिमाग में जहर घोल रहे हैं, बल्कि सामाजिक एवं आर्थिक मुद्दों पर उदारवादियों के अतिवादी रुख के कारण हो रहा है।
तथाकथित दक्षिणपंथ या धुर-दक्षिणपंथ जैसा शब्द फ्रांसीसी क्रांति के समय प्रासंगिक रहा, जिसका लेफ्ट-लिबरल मंडली द्वारा राजनीतिक सहमति की उनकी परिभाषा से असहमति रखने वाले राजनीतिक दलों और नेताओं को कलंकित करने के लिए अभी भी उपयोग किया जा रहा है।
परंतु, वास्तविकता कुछ अलग है। यूरोप में उदारवाद के नॉर्डिक गढ़ों सहित तमाम देशों में बड़ी संख्या में मतदाता इस बात को लेकर उकता चुके हैं कि वे न अपने मन की बात कह सकते हैं और न अपने डर को स्वर दे सकते हैं। फिर चाहे बात आव्रजन-घुसपैठ, बहु-संस्कृतिवाद या उनके समाज में इस्लामिक हिंसा की ही क्यों न हो। केवल इटली ही नहीं, बल्कि दक्षिणपंथ ने स्वीडन में भी सत्ता का स्वाद चख लिया है।
साथ ही फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया और नीदरलैंड सहित यूरोप के लगभग सभी देशों में भारी बढ़त बनाई है। यहां तक कि पूर्वी यूरोप की ओर भी उसका विस्तार हो रहा है विशेषकर हंगरी में। यहां ध्यान देने योग्य मुद्दा यही है कि यदि मतदाता किसी कथित स्त्री विरोधी या यहां तक कि नस्लवादियों को सत्ता सौंपने के लिए मतदान कर सकते हैं, तो समझिए कि यह रुझान हमें कुछ कहने का प्रयास कर रहा है और हमें उस पर अवश्य ही गौर करना चाहिए।
उदारवाद के साथ समस्या यह नहीं है कि वह क्या करना चाहता है, बल्कि यह कि वह अपने मूल अर्थ को सार्थक करने के लिए कुछ नहीं कर रहा है। असल में उदारवाद कोई तमगा या लेबल नहीं जिसे आप अपने ऊपर लगा लें। यह तो दिमागी रवैया है। इसका सरोकार तो सहिष्णुता बढ़ाने और समाज में विविधता और अंतर को स्वीकार्यता दिलाने से है। यदि यह शब्द विशेषण के रूप में लिया जाए तो व्यवहार में कोई भी लिबरल (उदार) हो सकता है। परंतु जब यह शब्द एक संज्ञा रूप धारण कर ले और आप खुद को इस श्रेणी में रखें और जिन्हें तुच्छ समझें या जो आपको नापसंद हों, उन्हें इससे वंचित रखें तो यह भेदभाव है।
चलिए, और स्पष्ट करते हैं। कोई भी मनुष्य विशुद्ध रूप से उदार या रूढ़िवादी नहीं होता। आप कुछ पैमानों पर उदार होगे और कुछ मामलों में रूढ़िवादी। उदार और रूढ़िवादी होने के बीच महत्त्वपूर्ण अंतर उन मापदंडों की संख्या में है, जिन पर आप उदार या रूढ़िवादी रूप से सोचते या फिर व्यवहार करते हैं।
समाज या सामाजिक संस्थानों के सुधार को लेकर पूर्ण प्रतिरोध नहीं, बल्कि प्रगति की गति ही किसी उदार को रूढ़िवादी से अलग करती है। जैसा कि जयतीर्थ राव ने अपनी पुस्तक ‘द इंडियन कंजरवेटिव’ में लिखा है कि रूढ़िवादी जब यह जान लेते हैं कि वह किस दिशा में जा रहे हैं, तो राह बदलना चाहते हैं, जबकि लिबरल यही दावा करना चाहते हैं कि उन्हें पता है कि वे किस दिशा में जा रहे हैं और हर किसी को उसी दिशा में ही जाना चाहिए।
इसी तरह, लिबरल तबका एलजीबीटीक्यूआईए निरंतर विस्तार की ओर है। ये सुस्पष्ट और पूरी तरह से अलग-अलग समूह न होकर सामान्य मनुष्य ही हैं, जिनमें दूसरों से कुछ विशिष्ट लक्षण होते हैं। कुछ मामलों में एल और बी समान हैं तो दूसरे मामलों में अलग। दरअसल उदारवादियों ने उदारवाद को सभी प्रकार की रूढ़ियों के पुलिंदों और स्व-रचित सीमाओं के दायरे में सिमेट दिया है। अगर आप उनके साथ सहमत नहीं तो आप नस्लवादी, इस्लामोफोबिक या जातिवादी हैं।
यदि आप गहराई से देखें तो पाएंगे कि लेफ्ट-लिबरल बौद्धिकों की बिरादरी ने एक अलग ही किस्म की जातिवादी व्यवस्था ईजाद कर ली है, जहां उनके खुद के अकादमिक और बुद्धिजीवी ही मठाधीश हैं और वही उनकी नव-उद्घाटित सामग्री को पढ़ने एवं उसकी व्याख्या करने के अधिकारी हैं। जो शेष हैं, वे उन भेड़ों की भांति हैं, जिन्हें उनके निर्देशों का ही पालन करना होगा या चुप रहना होगा या खारिज हो जाना होगा। खारिज किए हुए लोग ही नव-अस्पृश्य है।
यह बहुत पुरानी बात नहीं जब यही तबका निर्बाध भूमंडलीकरण, मुक्त व्यापार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि-इत्यादि का प्रशस्तिगान कर रहा था। अब बढ़ती असमानता को लेकर उन्हीं विचारों पर सवाल उठाए जा रहे हैं और इसके लिए ‘वोक लिबरलिज्म’ की नई जमात भी गढ़ ली गई है और अभी केवल यही विचारधारा स्वीकार्य है।
यह उससे किस प्रकार अलग है, जो स्टालिन, माओ और पोल पोट अपने देशों के लिए चाहते थे? लेखक राजीव मल्होत्रा अपनी नई पुस्तक ‘स्नेक्स इन द गंगा’ में कहते हैं कि क्रिटिकल रेस थियरी ने मार्क्सवादी द्वंद्वात्मकता को अपनाया है, जिसके अंतर्गत हम केवल दो श्रेणियों से संबंध रखते हैं और ये श्रेणियां हैं-शोषित और शोषक यानी एक पीड़ित और दूसरा उसका उत्पीड़न करने वाला। और शोषितों-पीडि़तों को निश्चित ही लिबरल मार्गदर्शन के साये तले आकर उन सामाजिक संरचनाओं का विकल्प जाने बिना ही उनके ध्वंस के लिए एकजुट होना चाहिए।
उनका दर्शन ही यही है कि पहले ध्वंस करो और उसके बाद इसकी चिंता कि आगे क्या किया जाए। तमाम भली मंशाओं के बावजूद यह विनाशकारी संकल्पना ही है, जो हॉर्वर्ड जैसे दुनिया के तमाम आला संस्थानों द्वारा गढ़ी जा रही है। जबकि ऐसे संस्थान और उनके अधिकांश छात्र समुदाय स्वयं उच्च-वर्गीय अभिजात्य की उपज होते हैं।
ब्राह्मणों की तुलना नस्लवादी गोरों से करके क्रिटिकल रेस थियरी को विरूपित किया जा रहा है। केवल एक ही आंकड़ा इसकी हवा निकालने के लिए पर्याप्त है कि यह कोरी बकवास है। जनसांख्यिकीय कारणों से अमेरिका में नस्लवाद बहुत मजबूत हो सकता है। अमेरिका की आबादी श्वेत बहुल है। कुल आबादी में 60 प्रतिशत से भी अधिक श्वेत बहुसंख्यक हैं, जबकि एफ्रो-अमेरिकंस की तादाद कुल जनसंख्या की 10 प्रतिशत से भी कम है।
वहीं ब्राह्मणों की बात करें तो हिंदुओं में बमुश्किल 2 प्रतिशत ही ब्राह्मण हैं और अधिकांश जातियां गैर-ब्राह्मण हैं। अधिकांश राज्यों और यहां तक कि केंद्र में राजनीतिक शक्ति का झुकाव अन्य पिछड़ा वर्ग की ओर हो गया है। दलितों का बड़ी संख्या में सत्ता संरचना का हिस्सा बनना कुछ समय की ही बात है। हॉर्वर्ड जैसों की ओर से बिना किसी हस्तक्षेप के ही चुनावी लोकतंत्र से यह परिणाम सुनिश्चित होगा।
लब्बोलुआब यही है कि लोकतंत्र स्वयंभू लिबरल के समीकरणों के बजाय अपने हिसाब से काम करता है। लोकतंत्र कभी रूढ़िवादियों का चयन कर सकता है तो कभी उदारवादियों का और कभी दोनों के मिश्रण का। ‘प्रगति’ के लिए हमें उद्देश्यवादी दृष्टिकोण की कदाचित आवश्यकता नहीं, जहां किसी भी सूरत में उसी एक दिशा में आगे बढ़ना हो। प्रकृति की भांति प्रगति भी चक्रीय है। अतिवादी वाम-उदारवाद को नियंत्रित करने के लिए रूढ़िवाद का उभार भी उपयोगी है और यही बात विपरीत रूप में भी लागू हो सकती है।
कोई भी लोकतंत्र, चाहे वह रूढि़वादी हो या उदार, वह अच्छे वक्त में बढ़िया परिणाम ही देगा। दक्षिणपंथ और वामपंथ दोनों अपेक्षाओं पर खरे उतर सकते हैं, बशर्ते कि वे एक दूसरे को पूरी तरह खारिज न करें। विविधता का अर्थ वैचारिक रुझान में विविधता से भी तो होना चाहिए।
(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)
