पिछले तीन साल के दौरान सकल घरेलू उत्पाद जीडीपी में 8 प्रतिशत सालाना से ऊपर की वृद्धि हासिल करने के बाद अर्थव्यवस्था चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में केवल 5.4 प्रतिशत वृद्धि दर्ज कर पाई। पिछली सात तिमाहियों में यह वृद्धि का सबसे कम आंकड़ा रहा। इस तिमाही में आर्थिक सुस्ती का अंदाजा तो लगाया जा रहा था मगर इतनी सुस्ती का अनुमान तो बाजार भी नहीं लगा पाया था। लगभग उसी समय अक्टूबर में खाद्य पदार्थों की ऊंची कीमतों के कारण मुद्रास्फीति की दर 6 प्रतिशत के सहज दायरे से ऊपर निकल गई।
खाद्य मूल्यों में लगातार उछाल ने मुख्य मुद्रास्फीति पर असर दिखाना शुरू कर दिया है। इसलिए हैरत नहीं हुई, जब राजनीतिक हलकों से दर कटौती का इशारा आने के बाद भी मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने मुख्य मुद्रास्फीति लक्ष्य पर ही ध्यान दिया और दरें जस की तस रखीं। दूसरी तिमाही में मंद वृद्धि से प्रश्न उठता है कि यह एकबारगी फिसलन थी या लगातार तिमाहियों में वृद्धि दर घटते रहने से मान लिया जाए कि बुनियादी तौर पर मंदी आ रही है। चालू वित्त वर्ष की पहली छमाही में केवल 6 प्रतिशत वृद्धि होने का अनुमान है और अगली दो तिमाहियों में इसके रफ्तार पकड़ने की उम्मीद है। इसके बाद भी भारतीय रिजर्व बैंक ने वृद्धि का अपना अनुमान 7.2 प्रतिशत से घटाकर 6.6 प्रतिशत कर दिया।
वृद्धि में सुस्ती और मुद्रास्फीति में उछाल के कारण एमपीसी को अब भी तलवार की धार पर चलना पड़ रहा है यानी नाजुक संतुलन बिठाने की कवायद अब भी जारी है। गिरती वृद्धि को पटरी पर लाने के लिए दरों में कटौती शुरू करना जरूरी है और कुछ वर्गों से कहा भी जा रहा है कि रिजर्व बैंक को शीर्ष मुद्रास्फीति के बजाय मुख्य मुद्रास्फीति पर निशाना साधना चाहिए। मगर रिजर्व बैंक शीर्ष मुद्रास्फीति को 4 प्रतिशत पर बांधने का संकल्प दोहरा चुका है और इसीलिए वह ढिलाई नहीं बरत सकता। इसलिए हैरत नहीं हुई, जब एमपीसी ने बहुमत वाला निर्णय लेते हुए नीतिगत दरों में कोई बदलाव नहीं किया मगर नकद आरक्षी अनुपात (सीआरआर) को दो किस्तों में 25-25 आधार अंक कम करने की बात कही। यह कमी 14 दिसंबर और 28 दिसंबर को की जाएगी, जिसका मकसद पर्याप्त तरलता बनाए रखना है।
इस फैसले से साफ संकेत मिलता है कि केंद्रीय बैंक के नीति संबंधी रुख में वृद्धि अहम है। सीआरआर कटौती से नकदी की स्थिति सुधरेगी, जो कर भुगतान के कारण तंग हो गई थी। साथ ही इससे बाकी दो तिमाहियों में सरकार के बढ़े पूंजीगत व्यय के लिए रकम भी आसानी से उपलब्ध हो सकती है। विनिर्माण में निवेश वापस लाने के लिए यह बहुत जरूरी है। लेकिन दरों में कटौती का सिलसिला हाल फिलहाल शुरू होता नहीं दिखता।
वर्तमान स्थिति में नीतिगत प्रतिक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि इसे फौरी तौर की परेशानी माना जा रहा है या किसी बड़ी परेशानी की जड़ें जमने का संकेत समझा जा रहा है। रिजर्व बैंक के नीतिगत बयान में इस स्थिति को ‘वृद्धि और मुद्रास्फीति के रास्ते से विचलन’ बताया गया है। ऐसा मानने की वजहें भी हैं। मगर खनन तथा विनिर्माण क्षेत्रों में मूल्य वर्द्धन में आई तेज गिरावट चिंता का विषय है। इसी गिरावट की वजह से इन दोनों प्राथमिक क्षेत्रों की वृद्धि कम रही है। कृषि क्षेत्र में मूल्य वर्द्धन अच्छी बारिश के बाद भी 3.5 प्रतिशत बढ़ा, जो पिछले वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में 1.7 प्रतिशत और पिछली तिमाही में 2 प्रतिशत बढ़ा था। इसे समझना और समझाना आसान नहीं है। इसकी वजह अनियमित बारिश मानी जा सकती है, जिसके कारण सब्जियों और फलों का उत्पादन कम हो गया।
इसी तरह विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि की दर दूसरी तिमाही में घटकर 2 प्रतिशत रहने पर ताज्जुब होना चाहिए क्योंकि इस तिमाही के दौरान परचेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स में महीना दर महीना सुधार देखा गया था। निर्माण जैसे क्षेत्र में भी केवल 7.1 प्रतिशत वृद्धि हुई, जहां साल भर पहले दो अंकों में वृद्धि देखी गई थी।
मांग की बात करें तो खाद्य मूल्यों में उछाल आने के कारण निजी खपत में सुस्ती दिखी होगी और सरकार की खपत चुनावों के बाद रफ्तार पकड़ नहीं पाई है। लेकिन बड़ी वजह निवेश कम रहना थी। सकल स्थिर पूंजी सृजन में केवल 1.3 प्रतिशत इजाफा हुआ, जो कई तिमाहियों में सबसे कम वृद्धि दर थी और सार्वजनिक क्षेत्र के पूंजी सृजन में सुस्ती इसका मुख्य कारण रहा। केंद्र और राज्य सरकारें पूंजीगत व्यय के लिए चुनाव आचार संहिता खत्म होने का इंतजार करती रहीं।
दूसरी तिमाही में अपेक्षा से खराब वृद्धि के कारण ज्यादार विश्लेषकों ने चालू वित्त वर्ष के लिए वृद्धि के अनुमान घटा दिए हैं। एमपीसी ने भी अनुमान कम कर दिया है। यह मानने के कारण हैं कि बाकी दो तिमाहियों में अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट सकती है और 6.8 प्रतिशत तथा 7.2 प्रतिशत की दर से बढ़ सकती है। खरीफ फसलों की आवक ज्यादा है, जलाशय भी ऊपर तक भरे हैं तथा रबी का उत्पादन भी बेहतर रहने की संभावना है, इसलिए कृषि क्षेत्र से मजबूत प्रदर्शन की उम्मीद लगाई जा सकती है। चालू वित्त वर्ष के पहले छह महीने में केंद्र सरकार ने बजट में तय पूंजीगत व्यय का केवल 37 प्रतिशत हिस्सा खर्च किया है और बचे हुए महीनों में अच्छा-खासा व्यय होने की उम्मीद है। इससे सकल मांग तो बढ़ेगी ही, निजी निवेश की आवक भी तेज होगी। उच्च आवृत्ति वाले संकेतक विनिर्माण को पटरी पर लौटता दिखा रहे हैं। सेवा क्षेत्र में भी वृद्धि की रफ्तार बने रहने की उम्मीद है।
किंतु यह समझना नासमझी होगी कि समस्या कुछ समय में गुजर जाएगी। अर्थव्यवस्था को विकसित देश का दर्जा हासिल करने के लायक बनाने के लिए अगले 23 साल तक कम से कम 8 प्रतिशत की औसत जीडीपी वृद्धि हासिल करनी होगी। इसके लिए निवेश को बढ़ाकर जीडीपी के 40 प्रतिशत पर लाना होगा, जो अभी 31-32 प्रतिशत ही है।
अर्थव्यवस्था को विदेश निवेश के लिए खोलने के साथ निवेशकों के लिए कर्ज की ऊंची लागत भी कम करना जरूरी है। इसके लिए मुद्रास्फीति की दर को नीचे लाना होगा ताकि दर कटौती शुरू हो सके। साथ ही सरकारी उधारी सीमित करने के लिए राजकोषीय सुधार भी लागू करने होंगे। इस तरह दूर की सोचने पर यह राजकोषीय सुधार करने, श्रम के अधिक इस्तेमाल वाले विनिर्माण को केंद्र में रखते हुए इनपुट सामग्री के बाजार का सुधार करने और अर्थव्यवस्था को अधिक विदेशी व्यापार तथा निवेश के लिए खोलने का एकदम सही समय है।
कोई अनहोनी नहीं हुई तो महंगाई के मोर्चे पर और भी खुशखबरी मिल सकती हैं, जिनसे फरवरी में नीतिगत दर घटाने का रास्त साफ हो जाएगा। कृषि उत्पादन बेहतर रहने से खाद्य कीमतें नीचे आने की संभावना है, जिससे शीर्ष मुद्रास्फीति के आंकड़े भी कम होंगे। दलहन और खाद्य तेलों की कीमतें भी कम हो सकती हैं। सर्दियों में सब्जियों के दाम भी घटने की उम्मीद है और उत्पादन बढ़ने से दलहन के भाव भी गिर सकते हैं। इन वजहों से भारत सबसे तेज वृद्धि करने वाली बड़ी अर्थव्यवस्था तो बना रह सकता है मगर विकसित भारत बनने की तमन्ना पूरी करने के लिए गंभीर व्यवस्थागत सुधार लागू करना जरूरी है।
(लेखक कर्नाटक रीजनल इम्बैलेंसेज रीड्रेसल कमिटी के चेयरमैन हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं)