सत्ताधारी दल और विपक्ष दोनों ही स्थानीय निकायों को सशक्त बनाना चाहते हैं मगर इसके लिए सबसे पहले विकेंद्रीकरण की ‘जन्मजात खामी’ को दूर करना होगा। बता रहे हैं एम गोविंद राव
संविधान में 73वां और 74वां संशोधन हुए तीन दशक बीत चुके हैं। इतनी लंबी अवधि गुजरने के बाद भी पंचायती राज इकाइयों का वित्तीय सशक्तीकरण नहीं हो पाया है। ये दोनों संशोधन वर्ष 1993 में प्रभावी हुए थे मगर तब से स्थानीय निकायों का वित्तीय सशक्तीकरण महज दिखावा बन कर रह गया है।
सत्ताधारी दल और विपक्ष दोनों ही मान रहे हैं कि स्थानीय निकाय वित्तीय रूप से सशक्त नहीं हो पाए हैं। वे अपने चुनावी घोषणापत्रों में भी इस विषय को उठाने लगे हैं।
सत्ताधारी दल पंचायतों को अधिक वित्तीय ताकत देना चाहता है, वहीं विपक्ष संविधान में 73वें और 74वें संशोधनों का श्रेय ले रहे है। विपक्ष यह भी वादा कर रहा है कि वे अनुच्छेद 243 के अंतर्गत निहित प्रावधानों को उनकी मूल भावना के साथ लागू करने के लिए राज्यों को प्रेरित करने में सफल रहेगा।
यद्यपि, दोनों ही पक्ष विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ाने के महत्त्व को रेखांकित करते हैं मगर यह स्पष्ट नहीं है कि यह लक्ष्य किस तरह प्राप्त किया जा सकता है।
राजकोषीय विकेंद्रीकरण के संबंध में लागू होने वाला एक महत्त्वपूर्ण नियम यह है कि स्थानीय निकायों को दिए जाने वाले दायित्व स्पष्ट होने चाहिए, उनके पास सार्वजनिक सेवाओं के वित्त पोषण के लिए पर्याप्त संसाधन होने चाहिए और ये सेवाएं मुहैया कराने वाले कर्मचारियों एवं पदाधिकारियों को नियुक्त करने एवं उनके कार्य प्रबंधन का अधिकार मिलना चाहिए। राजस्व के पर्याप्त एवं निश्चित स्रोत नहीं होने के कारण स्थानीय निकायों के कार्य आर्थिक संसाधन के अभाव में पूरे नहीं हो पाते हैं।
भारत के संदर्भ में बात करें तो यह स्पष्ट है कि 73वें और 74वें संविधान संशोधनों के माध्यम से शुरू हुई विकेंद्रीकरण प्रक्रिया में गंभीर खामी है और वित्तीय तौर पर स्थानीय निकायों को दुरुस्त करने वाले किसी प्रयास को सबसे पहले इस खामी को दूर करना चाहिए।
स्थानीय निकायों को आवंटित कार्य भी स्पष्ट नहीं हैं। उन्हें राजस्व के पर्याप्त स्रोत नहीं दिए जाते हैं और इस कारण उन्हें राज्य एवं केंद्र सरकार से मिलने वाली मदद पर निर्भर रहना पड़ता है। स्थानीय निकायों के कर्मचारियों एवं अधिकारियों की नियुक्ति भी राज्य सरकारें करती हैं।
यद्यपि, संविधान संशोधन में उन्हें स्थानीय स्व-शासन का हिस्सा बनाने की बात कही गई है मगर इसकी जवाबदेही राज्य सूची की 7वीं अनुसूची में प्रविष्टि 5 के अंतर्गत राज्यों पर छोड़ दी गई है।
यानी अनुच्छेद 243-जी और 243-डब्ल्यू ग्रामीण एवं शहरी स्थानीय निकायों को आर्थिक विकास योजनाएं तैयार करने एवं विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन (11वीं एवं 12वीं अनुसूचियों में सूचीबद्ध योजनाओं सहित) का अधिकार देते हैं मगर कार्यों का वास्तविक निर्धारण पूरी तरह राज्य सरकारों की इच्छा पर छोड़ दिया गया है। इससे साफ होता है कि स्थानीय निकायों के कार्य स्पष्ट नहीं हैं क्योंकि इनमें राज्यों का हस्तक्षेप होता है।
वित्तीय संसाधनों से जुड़ी समस्या तो और भी कठिन है। अनुच्छेद 243-एच और 243 एक्स के अंतर्गत राज्यों को निर्देश दिए गए है कि वे कर लगाने का अधिकार पंचायतों एवं शहरी स्थानीय निकायों को दें मगर कितना कर लगाया जाए और इनके आधार या दरों में बदलाव का अधिकार पूरी तरह राज्यों के पास हैं। अब समस्या यह है कि राज्य कर संबंधी अधिकार या पर्याप्त संसाधन स्थानीय निकायों को स्थानांतरित नहीं कर रहे हैं।
नतीजा यह होता है कि स्थानीय निकायों के पास योजनाओं से जुड़े अधिकार तो हैं मगर उन्हें पूरा करने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। विकेंद्रीकरण का एक महत्त्वपूर्ण लाभ यह होता है कि इससे राजस्व और व्यय से जुड़े निर्णय एक दूसरे से जुड़ जाते हैं मगर उपयुक्त आवंटन व्यवस्था नहीं होने से इसका कोई सीधा लाभ नहीं मिलता है।
दुनिया में जायदाद कर स्थानीय राजस्व का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत होता है मगर भारत में यह सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का मात्र 0.2 प्रतिशत के स्तर पर बताया जा रहा है।
जितनी मात्रा में राजस्व स्थांतरित होता है वह भी अपर्याप्त है। अनुच्छेद 243-आई और 243-वाई के अंतर्गत किसी राज्य के राज्यपाल को प्रत्येक पांच वर्षों पर राज्य वित्त आयोग (एसएफसी) का गठन करना होता है। यह आयोग ग्रामीण एवं शहरी इकाइयों को करों एवं अनुदानों का विभाजन निर्धारित करता है।
हालांकि, पिछले तीन दशकों का इतिहास इस बात का गवाह है कि राज्य तय प्रावधानों की अनदेखी करते हुए राज्य वित्त आयोग की नियुक्ति नहीं करते हैं। जब कभी आयोग गठित होता है तो रिपोर्ट की गुणवत्ता क्रियान्वयन के योग्य नहीं होती है और राज्य इन रिपोर्ट को और इनके आधार पर उठाए गए कदमों को विधानसभा में नहीं रखते हैं।
राज्यों के लिए ऐसा करना आवश्यक होता है। अब तक छह राज्य वित्त आयोगों को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करनी चाहिए थी मगर केवल कुछ ही राज्यों में ऐसा हो पाया है। राज्य स्थानीय निकायों को कुछ अस्थायी अनुदान दे रहे हैं मगर ये अपर्याप्त होते हैं और उनको मिलने पर भी अनिश्चितता बनी रहती है।
73वें और 74वें संशोधनों के साथ अनुच्छेद में बदलाव किए गए। इस बदलाव का मकसद राज्य वित्त आयोगों के सुझावों के आधार पर ग्रामीण एवं शहरी स्थानीय निकायों को अतिरिक्त संसाधन देने के लिए राज्य की संचित निधि को बढ़ाने का रास्ता खोजना था।
यद्यपि, इनका सूक्ष्मता से अध्ययन करें तो सीधा अभिप्राय अनुदान से नहीं है और इसे लेकर एसएफसी रिपोर्ट भी उपलब्ध नहीं हैं, मगर केंद्रीय वित्त आयोग कुछ अस्थायी अनुदान की सिफारिश करते रहे हैं।
15वें वित्त आयोग ने पांच वर्षों के लिए शहरी एवं ग्रामीण निकायों के लिए 4.36 लाख करोड़ रुपये देने की अनुशंसा की है। दिवंगत अर्थशास्त्री राजा चलैया ने एक बार कहा था, ‘हर कोई विकेंद्रीकरण का हिमायती है मगर उसी सीमा तक इसकी बात करता है जहां तक यह उसके अनुकूल जान पड़ता है।’
राज्य भी लगातार यह कहते आ रहे हैं कि उन्हें पर्याप्त स्वायत्तता नहीं मिली है जितनी मिलनी चाहिए थी मगर इसके साथ वे भी स्वयं विकेंद्रीकरण के सिद्धांतों का अनुपालन नहीं कर पा रहे हैं। राजकोषीय विकेंद्रीकरण की दयनीय हालत देखते हुए 15वें वित्त आयोग ने ऐसे अनुदान का लाभ उठाने के लिए कुछ शर्तें लगा दी हैं। इनमें अंकेक्षित लेखा (ऑडिटेड अकाउंट) तैयार करने और उन्हें प्रस्तुत करने जैसी शर्तें शामिल हैं।
राज्यों के लिए एसएफसी की नियुक्ति और राज्य विधानसभा में रिपोर्ट रखना भी अनिवार्य कर दिया गया है। 13वें वित्त आयोग ने भी कम से कम 13 शर्तें रखी थीं। हालांकि, समस्या यह है कि इन शर्तों का पालन नहीं करने पर राज्यों के लिए किसी तरह के दंड का प्रावधान नहीं है और अंत में नुकसान स्थानीय निकायों को उठाना पड़ता है।
यह स्पष्ट है कि स्थानीय निकायों को राजकोषीय रूप से मजबूत करने के लिए प्रोत्साहित करने का उपाय कारगर नहीं दिख रहा है। प्रभावी विकेंद्रीकरण तभी होगा जब स्थानीय निकायों को प्रत्यक्ष या सीधे सशक्त बनाने के कदम उठाए जाएं। इसके लिए कार्यों का निर्धारण एवं राजस्व के स्रोतों का स्पष्ट होना जरूरी है।
मगर इसके लिए संविधान का संशोधन कर सातवीं अनुसूची में सामाजिक सूची जोड़नी होगी और एसएफसी नियुक्त नहीं करने के लिए राज्य (न कि स्थानीय निकायों को) को दंडित करने का प्रावधान तैयार करना होगा। क्षमता निर्माण जरूरी है और इस कार्य में स्थानीय निकायों की सहायता करनी होगी। अंततः विकेंद्रीकरण सही मायने में प्रभावी हो जाएगा और एक टिकाऊ व्यवस्था की तरह काम करेगा।
(लेखक एनआईपीएफपी के निदेशक और14वें वित्त आयोग के सदस्य रह चुके हैं)