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सहकारी संघवाद या प्रतिस्पर्धी संघवाद: भारतीय संघ की चुनौतियां और संभावनाएं

भारत सहकारी संघवाद की कामना तो करता है लेकिन इस दिशा में प्रयास करने पर अक्सर प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है। बता रहे हैं एम गोविंद राव

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एम गोविंद राव   
Last Updated- November 15, 2024 | 9:31 PM IST

भारतीय संघ को लेकर गंभीर अध्ययन करने वाले विद्वान अक्सर उसे ‘सहकारी संघवाद’ वाला देश कहते हैं। इस बारे में गत 10 नवंबर को सेवानिवृत्त हुए देश के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने 26 अक्टूबर को मुंबई में दिए एक भाषण में दिलचस्प बातें कही थीं। उनके आधार पर हमें यह देखना चाहिए कि हम भारतीय संघवाद को किस दृष्टि से देखते हैं।

यह कहते हुए कि ‘सहकारी संघवाद’ भारत के लोकतांत्रिक शासन के मूल में नहीं है, उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि हमारे यहां राज्य सरकारों के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वे केंद्र सरकार की नीतियों का पूरी तरह अनुकरण करें। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के 1977 के निर्णय का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि भारत में संघवाद का मॉडल ‘बुनियादी तौर पर सहकारी है जहां केंद्र और राज्य अपने मतभेदों को विचार विमर्श के जरिये दूर करते हैं और साझा विकास लक्ष्यों को हासिल करते हैं।’

उन्होंने कहा कि संघीय सिद्धांतों को चर्चा और संवाद के जरिये आगे बढ़ाना चाहिए और सहयोग तो इन्हें बरकरार रखने का एक जरिया भर होना चाहिए। इसके अलावा चर्चाएं भी समान रूप से महत्त्व रखती हैं जो एक सिरे पर सहयोग तो दूसरे सिरे पर प्रतियोगिता तक विस्तारित हो सकती हैं। एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए दोनों आवश्यक हैं। निश्चित तौर पर प्रतियोगिता में प्रतिस्पर्धा भी शामिल हो सकती है।

‘सहकारी संघवाद’ शब्द को अक्सर अकादमिक मान लिया जाता है, भले ही ऐसा न हो। इसे परोपकारी राज्य की अवधारणा के साथ जोड़कर देखा जाता है। अल्बर्ट ब्रेंटन नामक अर्थशास्त्री जो रॉयल कमीशन ऑन द इकनॉमिक यूनियन ऐंड डेवलपमेंट प्रॉस्पेक्ट्स ऑफ कनाडा के सदस्य भी थे, वह बार-बार दोहराए जाने वाले इस शब्द को लेकर उत्सुक रहते थे।

उन्होंने इस विषय पर विचार शुरू किया कि क्या विभिन्न इकाइयों के बीच क्षैतिज और उर्ध्वाधर हस्तक्षेप वास्तव में सहकारी तथा प्रतिस्पर्धी थे। उन्होंने इस विषय पर एक कमीशन को एक रिपोर्ट भी लिखी जिसका शीर्षक था ‘टुवर्ड्स अ कंपटीटिव फेडरलिज्म।’ यह बाद में यूरोपियन जर्नल ऑफ पॉलिटिकल इकॉनमी में प्रकाशित हुई। भारत में विद्वानों के बीच ‘सहकारी संघवाद’ को लेकर अलग किस्म का लगाव है, भले ही वह अस्तित्व में भी न हो।

नियोजित विकास की रणनीति के दौर में यह खूब सुनने को मिलता था जब बाजार और राज्य सरकारों दोनों की संसाधनों के आवंटन में सीमित भूमिका हुआ करती थी। इसके अलावा लंबे समय तक देश में मौजूद रहे एक दलीय शासन ने राज्यों पर यह दबाव डाला कि वे केंद्र सरकार के आवंटन निर्णयों का पालन करें। एक तरह से देखें तो यह सहयोग का चरम रूप था जो दबाव बनने की सीमा पर पहुंच गया था। इसके दो प्रभाव हुए।

सहमति बनाने के लिए दबाव का इस्तेमाल एकात्मक रुख है। जैसा कि राज चेलैया ने अपने एल के झा स्मृति व्याख्या में कहा, ‘केंद्रीयकृत नियोजन में संघवाद का निषेध है। दूसरा शुरुआती वर्षों के दौरान एकदलीय शासन के दौर में अनौपचारिक व्यवस्था के जरिये सहमति कायम करने की व्यवस्था के चलते अंतरसरकारी सहयोग, सौदेबाजी और विवाद निपटारे की औपचारिक व्यवस्था नहीं कायम हो सकी।’

यकीनन सहकारी संघवाद उन मामलों में उपयुक्त है जहां संबंधित पक्षों को लाभ हो रहा हो। परंतु जहां लाभ असमान हों या जहां कुछ को लाभ तथा अन्य को नुकसान हो वहां विभिन्न पक्ष केवल तभी सहयोग करेंगे जब अधिक लाभ अर्जित करने वाले कम लाभ पाने या नुकसान सहने वालों की भरपाई करें। इसके लिए मुक्त सूचना, और बातचीत, सौदेबाजी तथा विवाद निस्तारण की सुविधा प्रदान करने वाली व्यवस्थाओं और संस्थाओं की आवश्यकता होती है।

यकीनन सहयोग के उदाहरण भी हैं मसलन, केंद्र और राज्यों द्वारा कई खपत करों को मिलाकर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) का निर्माण। केंद्र और राज्य दोनों ने देखा कि एक राष्ट्रीय बाजार बनाने के आर्थिक लाभ भी हैं और भले ही राजस्व स्वायत्तता को हानि हुई लेकिन करों को इस प्रकार सुसंगत बनाने से मध्यम अवधि में राजस्व उत्पादकता में भी इजाफा होगा।

इसके बावजूद सुधार प्रक्रिया को गति देने के लिए जीएसटी-परिषद जो केंद्र और राज्यों की एक सहकारी संस्था है, का निर्माण किया गया। बहरहाल सुधार को लागू करने में एक अहम कारक था केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को राजस्व नुकसान की भरपाई करने का वादा। ऐसा करके आधार वर्ष से हर वर्ष 14 फीसदी की वृद्धि सुनिश्चित की गई।

महामारी आने के बाद जब केंद्र सरकार ने समझौते की शर्तों को निरस्त किया तो राज्यों में भारी असंतोष फैल गया। इससे यह रेखांकित होता है कि जिन मामलों में सहकारी संघवाद व्यावहारिक है वहां भी संबद्धता के स्पष्ट निश्म, सूचना की नि:शुल्क उपलब्धता और मजबूत व्यवस्थाएं और संस्थान जरूरी हैं ताकि समन्वित कदम उठाए जा सकें और विवादों को हल किया जा सके।

हम जितना सहकारी संघवाद की कामना करते हैं यह उतना ही मायावी नजर आता है और हमें अक्सर प्रतिस्पर्धा देखने को मिलती है। केंद्र और राज्यों के बीच आपसी अंतरसरकारी प्रतिस्पर्धा मौजूद है। जब राजनीतिक दल नियंत्रण हासिल करने के लिए एक दूसरे से जूझ रहे हों तो प्रतिस्पर्धा चुनावी हो सकती है। यह प्रतिस्पर्धा संसाधनों या राजकोषीय गुंजाइश की या फिर निवेश आकर्षित करने की भी हो सकती है। यहां तक कि प्रतिस्पर्धी संघवाद में भी प्रभावी लाभ केवल तभी मिल सकता है जब कुछ महत्वपूर्ण पूर्व शर्त हों। उदाहरण के लिए प्रतिस्पर्धी समानता और लागत लाभ उपयुक्तता।

यद्यपि संघ और राज्यों के बीच विषम शक्ति, ‘प्रतिस्पर्धी समानता’ को बनाए रखने को मुश्किल बनाती है। इस संदर्भ में निष्पक्ष और स्थिर संघीय भागीदारी के लिए प्रतिस्पर्धा को विनियमित करने, आक्रामक प्रथाओं से सुरक्षा करने और विवादों को हल करने के लिए भागीदारी के नियम, व्यवस्थाएं और संस्थान आवश्यक हैं।

अंतरसरकारी सहयोग, सौदेबाजी और विवाद निस्तारण के लिए औपचारिक व्यवस्था की अनुपस्थिति भारतीय संघ में एक अहम कमी है। सौहार्द की बढ़ती कमी, कटुता और अनियमित प्रतिस्पर्धा को देखते हुए ऐसे संस्थान की सख्त जरूरत है। केंद्र और राज्यों के बीच के संघर्ष तथा राज्यों के आपसी विवादों को न्यायपालिका को हल करना चाहिए लेकिन वह पहले ही काम के बोझ और देरी से जूझ रही है। राष्ट्रीय विकास परिषद है लेकिन उसकी शायद ही कभी बैठक होती है और जब होती है तो कुछ खास निष्कर्ष नहीं निकल पाता।

जब योजना आयोग था तब वार्षिक योजनाओं पर चर्चा होती थी। हालांकि 1991 के बाद राज्यों की भागीदारी मोटे तौर पर अनुदान सुरक्षित करने तक सिमट गई। पहला प्रशासनिक सुधार आयोग 1966 में बना था और उसने यह अनुशंसा की थी कि एक अंतरराज्यीय परिषद बनाई जानी चाहिए। केंद्र राज्य संबंधों को लेकर 1983 में बने आर एस सरकारिया आयोग ने भी यह बात दोहराई। 63वें संविधान संशोधन की मदद से अंतर-राज्यीय परिषद का गठन किया गया लेकिन विडंबना ही है कि इसे केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन कर दिया गया और इसे स्वतंत्र एवं निष्पक्ष भूमिका नहीं दी गई।

केंद्र और राज्यों के बीच सामंजस्य की बढ़ती कमी तथा राज्य स्तर पर क्षेत्रीय दलों के नेतृत्व में गठबंधन सरकारों के उभार के बीच यह महत्त्वपूर्ण है कि अंतरसरकारी सहयोग, विनियमित प्रतिस्पर्धा तथा विवाद निस्तारण सुनिश्चित करने के लिए एक प्रभावी संस्थान का गठन किया जाए। विकसित भारत का लक्ष्य हासिल करने के लिए ऐसे संस्थान जरूरी हैं।

(लेखक 14वें वित्त आयोग के सदस्य और एनआईपीएफपी के निदेशक रह चुके हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं)

First Published : November 15, 2024 | 9:31 PM IST