राहुल गांधी जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली तीसरी सरकार के पहले पूर्ण संसद सत्र में जा रहे हैं तब उनके लिए यह राहत की बात हो सकती है कि पिछले दो दशकों से उन्हें परेशान कर रहे तीन सवाल अब खत्म हो चुके हैं। पहला, क्या भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कांग्रेस को गंभीरता से लेती है या उसे गंभीरता से लेना चाहिए़? दूसरा, क्या वह राहुल गांधी को गंभीरता से लेती है या लेना चाहिए? और तीसरा, क्या कांग्रेस जैसी मृतप्राय पार्टी में नई जान फूंकी जा सकती है?
इन तीनों सवालों के जवाब मतगणना के दिन यानी 4 जून की दोपहर को मिल गए। न केवल भाजपा को अब कांग्रेस और राहुल गांधी को गंभीरता से लेना होगा बल्कि उनकी पार्टी को भी अब 2029 में सत्ता में वापसी की वास्तविक राह नजर आ रही है। कम से कम उसमें नई जान नजर आ रही है और वह दोबारा लड़ने को तैयार दिख रही है। सोमवार को मॉनसून सत्र की शुरुआत से ही आपको यह दिखने भी लगेगा।
इस सत्र में केंद्रीय बजट का तड़का भी लगेगा। नए उत्साह से भरी कांग्रेस क्या अंतर लाएगी यह शेष विपक्ष के आचरण से भी स्पष्ट हो जाएगा। तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओब्रायन ने शुक्रवार को द इंडियन एक्सप्रेस में जो आलेख लिखा था वह पढ़ा जाना चाहिए। उन्होंने अपनी बात यह कहकर शुरू की कि संसद स्थगित होने का अधिक फायदा आखिर किसे होता है। जाहिर सी बात है सत्ता पक्ष को। जब विपक्ष का संख्या बल कम था और उसकी बात नहीं सुनी जाती थी तब स्थगन और सदन से बहिर्गमन जैसे उपाय ही उसके पास थे। लेकिन अब वह अखाड़े में उतरकर ताल ठोकेगा।
ओब्रायन की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में शानदार प्रदर्शन किया है। लेकिन इस बार अगर कांग्रेस इतनी मजबूत वापसी नहीं करती तो क्या तृणमूल इतने जोश में होती? बिना मजबूत आधार के विपक्ष का कोई भी गठबंधन विश्वसनीय नहीं हो सकता है। कांग्रेस अभी तक यहीं नाकाम हो रही थी मगर अब हालात बदल गए हैं।
जब मैं यह आलेख लिख रहा था तब मैंने अपनी टीवी स्क्रीन पर जे पी नड्डा को देखा जो अब भी भाजपा के अध्यक्ष हैं। वह ओडिशा में बोल रहे थे और उनका भाषण कांग्रेस और गांधी परिवार पर केंद्रित था, खास तौर पर प्रियंका और राहुल गांधी की जोड़ी पर। वह उन्हें पढ़े लिखे अनपढ़ कह रहे थे। उस राज्य में कह रहे थे, जहां कांग्रेस का वजूद ही नहीं के बराबर है। नड्डा की बात से हमें राहुल के नजरिये से रखे गए तीन में से दो सवालों का जवाब मिल जाता है। भाजपा के लिए कांग्रेस और गांधी परिवार की तिकड़ी मायने रखती है। तीसरे सवाल का जवाब स्वयं राहुल को देना होगा। 2004 में पहली बार सांसद बनने के बाद से उन्होंने अपनी एक राजनीतिक छवि बनाई है, जिससे उन्हें पीछा छुड़ाना होगा। यह छवि हमला करके भागने वाली राजनीति की है।
इसके लिए सोशल मीडिया या भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कानाफूसी वाली मशीनरी को दोष नहीं दिया जा सकता है। सार्वजनिक जीवन में दो दशक का समय प्रतिष्ठा बनाने के लिए पर्याप्त है चाहे अच्छी बनाएं या खराब। 2024 के चुनावों तक वह ऊहापोह के शिकार लगते थे। अगर वह हालिया सफलता के बाद इसे पीछे छोड़ देते हैं तो न केवल उनकी प्रतिष्ठा बदल जाएगी बल्कि सबसे अहम सवाल का जवाब भी मिल जाएगा: क्या कांग्रेस के पास सत्ता में वापसी का मौका है?
राहुल के पास ढाई बड़ी सफलताएं हैं। 2009 में लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में 21 सीट जिताकर उन्होंने अपनी पार्टी में नई जान फूंक दी थी। जीतने वाले लगभग सभी उम्मीदवार उनके चुने हुए थे। दूसरी कामयाबी 2018 के जाड़ों में मिली जब पार्टी को राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में कामयाबी मिली। आधी कामयाबी 2017 के गुजरात विधानसभा में मिली जब कांग्रेस ने भाजपा को बहुत कड़ी टक्कर दी थी। उन चुनावों में विभिन्न जातियों के युवा और बागी नेताओं ने कांग्रेस का साथ दिया था, जिसने भाजपा को वाकई में डरा दिया था।
पार्टी को अपने प्रदेश में सत्ता में बनाए रखने के लिए खुद मोदी को मैदान में उतरकर भारीभरकम प्रचार अभियान चलाना पड़ा था। यह चुनाव कितना कांटे का था और यह जीत उनके लिए क्या मायने रखती थी, इसे परिणामों के बाद उनके भाषण से समझा जा सकता है। कैमरों ने उनकी आंखों में आंसुओं की झलक कैद की, जो आम तौर पर नहीं दिखते। मैंने 29 दिसंबर, 2017 को इसी स्तंभ में इस बात का जिक्र भी किया था।
अहम बात यह है कि राहुल ने इन तमाम सफलताओं का फायदा उठाकर आगे बड़ी उपलब्धियां हासिल करने की कोशिश नहीं की। 2009 के चुनाव के बाद हमने उन्हें अपनी ही पार्टी के भीतर असंतुष्ट बनते देखा। उन्होंने सजायाफ्ता राजनेताओं के बारे में अपनी ही सरकार का लाया अध्यादेश सार्वजनिक रूप से फाड़ दिया था। हालांकि बाद के कई साक्षात्कारों में उन्होंने अपनी इस हरकत पर खेद भी जताया।
दिसंबर 2018 में राज्यों के विधानसभा चुनावों में मिली जीत के बाद भी उन्होंने गठबंधन करने या पार्टी में नई जान फूंकने पर कोई ध्यान नहीं दिया। वह भटके हुए दिखे। 2017 के गुजरात के विधानसभा चुनाव के बाद भी ऐसा ही हुआ। इनमें से हर लम्हा उनकी राजनीति का अहम मोड़ साबित हो सकता था।
यही वजह है कि हालिया आम चुनाव में बेहतरीन प्रदर्शन के बाद भी उनके समर्थकों के मन में शंका है। इस आशंका से ही उनके प्रतिद्वंद्वियों को उम्मीद है कि काम को सफलतापूर्वक पूरा करने के बाद राहुल एक बार फिर रुचि खो देंगे, गायब हो जाएंगे।
परंतु अब तक उन्होंने ऐसा नहीं किया है। वह राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं, सार्वजनिक बहसों में दिख रहे हैं और सोशल मीडिया पर भी नजर आ रहे हैं। यह अहम बदलाव है। इससे उनकी पार्टी में उम्मीद जगेगी। हो सकता है कि मोदी को बहुमत के आंकड़े से नीचे रोक लेने की उपलब्धि ही उन्हें आगे के लिए प्रेरित करे और मोर्चे पर लगाए रखे। यह भी हो सकता है कि मोदी, पराजय, शर्मिंदगी, अपमान और मखौल भरे एक दशक ने और उनकी पार्टी तथा उसके मुख्य लोगों को ‘एजेंसियों’ द्वारा निशाना बनाए जाने ने उन्हें बदल दिया हो। अगर वह इसी तरह डटे रहते हैं तो तीसरे सवाल का जवाब भी मिल जाता है। कांग्रेस वाकई सत्ता में वापसी की उम्मीद कर सकती है।
यहां मैं आपको राहुल पर लिखे गए दो आलेखों की याद दिलाऊंगा, जो एक दशक के अंतराल पर आए थे। पहला आलेख 6 अप्रैल 2013 को तब लिखा गया था, जब वह कांग्रेस के उपाध्यक्ष बने थे और उन्होंने जयपुर में ‘सत्ता जहर है’ का मशहूर भाषण दिया था। इसमें हमने उनकी राजनीति की तीन खामियां बताई थीं। इनमें से पहली दो का संबंध भारत की असमानता और आकांक्षाओं के बारे में उनकी गलत समझ से था। तीसरी खामी सत्ता को जहर कहने की उनकी मान्यता थी। लोकतंत्र में सत्ता जहर नहीं होती। यह अद्भुत उपहार है, सम्मान है, जो मतदाता आपको देते हैं। मैंने तब लिखा था कि सत्ता को जहर कहना सामंती सोच है, लोकतांत्रिक नहीं।
दूसरा आलेख मैंने 24 दिसंबर, 2022 को लिखा था, जब वह भारत जोड़ो यात्रा पर थे और उसमें भी कुछ सवाल उठाए गए थे। तब हमने लिखा था कि उन्हें लोगों के हुजूम से घिरना, भीड़ और स्वीकार्यता बढ़ना पहले से ज्यादा पसंद आ रहा है। वह विचारधारा पर अभियान खड़ा कर रहे थे: भारत जोड़ो बनाम भारत तोड़ो, प्रेम बनाम घृणा, धर्मनिरपेक्ष बनाम सांप्रदायिक, गांधी बनाम सावरकर और ऐसा लग रहा था वे इनका लुत्फ ले रहे हैं।
यहां हमने दो और प्रश्न उठाए। पहला, कांग्रेस क्या चाहती है़? इसका जवाब आसान था: सत्ता। दूसरा प्रश्न थोड़ा दिलचस्प था: राहुल गांधी क्या चाहते हैं? वही चाहते हैं, जो उनकी पार्टी चाहती है? अगर ऐसा है तो क्या सत्ता को जहर कहने का उनका विचार बदल गया है? क्या एक दशक तक वनवास और उपहास झेलने के बाद उन्हें सत्ता के लाभ समझ आ गए हैं? अगर इसका उत्तर हां है तभी कांग्रेस सत्ता में वापसी की उम्मीद कर सकती है।