देश में काम कर रहे फंड प्रबंधकों और बाजार विश्लेषकों को ‘बड़े सुधारों’ के बारे में चिंता करना बंद कर देना चाहिए। विस्तार से बता रहे हैं टी टी राम मोहन
हाल ही में संपन्न हुए आम चुनावों में केवल एक्जिट पोल और स्वयंभू चुनाव विशेषज्ञों के पूर्वानुमान ही बुरी तरह गलत नहीं साबित हुए, बाजार विश्लेषक और फंड प्रबंधकों का प्रदर्शन भी बहुत अच्छा नहीं रहा।
उदाहरण के लिए निवेश बैंक नोमूरा ने 21 मई से 27 मई तक करीब 150 निवेशकों के बीच किए गए सर्वेक्षण के नतीजे पेश किए। इनमें से 83 फीसदी ने अनुमान जताया था कि भारतीय जनता पार्टी (BJP) को अपने दम पर सामान्य बहुमत मिल जाएगा। 36 फीसदी का अनुमान था कि भाजपा 2019 के चुनावों से बेहतर प्रदर्शन करेगी।
औसतन प्रतिभागियों ने यही अनुमान जताया था कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) को करीब 344 सीट पर जीत मिलेगी। यह अनुमान एक्जिट पोल (Exit Poll) से ज्यादा अलग नहीं था।
फंड प्रबंधकों और बाजार विश्लेषकों का दावा था कि अब उनकी पहुंच देश के दूरदराज इलाकों तक है और उन्होंने विनिर्माताओं, वेंडरों, उपभोक्ताओं और अन्य लोगों से बात करके अर्थव्यवस्था, क्षेत्रों और कंपनियों को लेकर राय बनाई है। अगर चुनाव को लेकर उनके अनुमान इतने गलत साबित हो सकते हैं तो यह उम्मीद ही की जा सकती है कि व्यक्तिगत कंपनियों और क्षेत्रों के बारे में उनके निर्णय सही होते होंगे।
चुनाव नतीजों को लेकर निवेशकों का नजरिया एकदम सतही निकला। नोमूरा के सर्वेक्षण में निवेशकों ने अनुमान जताया कि अगर राजग सरकार सत्ता में वापस आती है तो भारतीय अर्थव्यवस्था 7-8 फीसदी की दर से बढ़ेगी। अगर इंडी (इंडियन नैशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव) गठबंधन जीता तो वृद्धि दर गिरकर 6.5 फीसदी रह जाएगी।
क्यों भला? क्योंकि नोमूरा ने एक्जिट पोल के बाद जारी एक नोट में कहा, ‘अगर भाजपा नए सिरे से बहुमत के साथ सत्ता में लौटती है तो उसके पास सार्थक सुधारों को अंजाम देने के लिए पर्याप्त राजनीतिक पूंजी होगी।’ इसके विपरीत इंडी सरकार यथास्थिति बरकरार रखेगी।
ऐसा प्रतीत होता है कि निवेशक बीते तीन दशकों के आर्थिक प्रदर्शन और राजग/भाजपा के अपने प्रदर्शन से अनभिज्ञ थे। अब तक उन्हें पता होना चाहिए था कि जरूरी नहीं है बहुमत की सरकार बड़े सुधारों को अंजाम देने के मामले में गठबंधन सरकारों से बेहतर स्थिति में हो। मिसाल के तौर पर कामगारों को रखने और निकालने, आक्रामक निजीकरण, जमीन का सहजता से अधिग्रहण आदि।
भाजपा को 2014 और 2019 के आम चुनावों में अपने दम पर बहुमत मिला था। उसके बावजूद वह उन बड़े सुधारों को नहीं अंजाम दे पाई जिनकी मांग बाजार विश्लेषक दो दशकों से कर रहे हैं।
निजीकरण के मोर्चे पर राजग सरकार का प्रदर्शन सच जाहिर करता है। फरवरी 2021 में सरकार ने चार रणनीतिक क्षेत्रों की चुनिंदा कंपनियों को छोड़कर सभी सरकारी उपक्रमों को बेचने की नीति पेश की लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
निजीकरण के लक्ष्यों में भी काफी कमी की गई। 2020-21 के बजट में सरकार ने 2.1 लाख करोड़ रुपये का लक्ष्य तय किया था लेकिन केवल 33,000 करोड़ रुपये ही निजीकरण से हासिल हुए। उसके बाद लक्ष्य को कम किया गया लेकिन वह भी हासिल नहीं हो सका। मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को चिंतित करने वाली बात यह है कि निजीकरण से सरकारी उपक्रमों के रोजगार कम हो जाते हैं। 2024 के चुनाव नतीजों के बाद कोई सरकार इस बात की अनदेखी नहीं कर सकती।
अन्य ‘बड़े सुधारों’ के बारे में भी यही कहा जा सकता है। श्रम कानूनों में कुछ बदलाव किए गए लेकिन उतने नहीं जितना कि सुधार की मांग करने वालों की अपेक्षा थी।
राजग सरकार ने जिस एक ‘बड़े’ सुधार का प्रयास किया वह कृषि कानूनों से संबंधित था लेकिन उसे वापस लेना पड़ा। हाल के बजटों में राजकोषीय समेकन हुआ है लेकिन हम अभी भी राजकोषीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन के तीन फीसदी के लक्ष्य से पीछे हैं।
आर्थिक नीतियों में 180 डिग्री का घुमाव तब आया जब 1991 में नरसिंह राव के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार बनी। उसके बाद एक के बाद एक सरकारों ने बड़े सुधारों के बजाय छोटे-छोटे सुधारों को अपनाया। नई बनी राजग सरकार से भी यही उम्मीद की जा सकती है।
देश में प्रतिस्पर्धी राजनीतिक व्यवस्था है और यहां के मतदाता मत की ताकत पहचानते हैं। चुनावी सफलता के लिए राजनीतिक दलों को मतदाताओं की उम्मीदों पर खरा उतरना पड़ता है। किसानों और गरीबों को सब्सिडी प्रदान की जानी चाहिए। सरकारी कर्मचारियों को भी नहीं छोड़ा जा सकता है और मध्य वर्ग का भी ध्यान रखना होता है।
आर्थिक नीतियों को केवल कारोबारियों का मुनाफा बढ़ाने या सेंसेक्स (Sensex) के लिए अंजाम नहीं बनाया जा सकता है। इसमें समता, वित्तीय स्थिरता और रणनीतिक स्वायत्तता सब नजर आना चाहिए। अब हम 6.5 फीसदी से 7 फीसदी की वृद्धि दर को लेकर संतुष्ट हैं। यह इन सभी कारकों को ध्यान में रखकर तय की गई दर है। कोई राजनीतिक समूह इन चिंताओं से परे नहीं है। देश की दीर्घकालिक आर्थिक नीति केंद्र की किसी सरकार के स्वरूप पर कम निर्भर है जबकि बाजार विश्लेषक इसका उलट सोचते हैं।
बाजार विशेषज्ञों को लोकतंत्र की सीमाओं के साथ-साथ उसकी मजबूती पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। कई टीकाकारों का मानना है कि भारतीय लोकतंत्र ने समय-समय पर आत्मतुष्ट सरकारों को विनम्र भी बनाया है। एक अन्य मजबूती है जिसकी सराहना जरूरी है। हमारी चुनाव प्रक्रिया बहुत प्रतिस्पर्धी है, जिससे अत्यंत क्षमतावान नेता सामने आते हैं। भारत का प्रधानमंत्री 1.4 अरब लोगों में से उभरता है। मुख्यमंत्री भी उन राज्यों की आबादी द्वारा चुने जाते हें जिनका आकार कई यूरोपीय देशों से भी बड़ा होता है।
अपनी पुस्तक द ग्रेट एस्केप में अर्थशास्त्री एंगस डेटॉन कहते हैं कि दुनिया के दो सबसे बड़े देश चीन और भारत बीती चौथाई सदी में सबसे सफल रहे हैं। वह अनुमान लगाते हैं कि कूटनयिक बल, सक्षम अफसरशाही, प्रशिक्षित नेताओं और विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों की फैकल्टी की जरूरत मुठ्ठीभर लोगों में से पूरी नहीं की जा सकती है। उन्होंने कहा कि बड़ी आबादी वाले देशों में प्रतिभाएं भी अधिक होती हैं।
देश के प्रतिस्पर्धी राजनीतिक क्षेत्र में शीर्ष पर पहुंचने वाले लोगों से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे शासन प्रशासन के क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन करें। जब नेहरू प्रधानमंत्री थे तो अक्सर यह सवाल सुनने को मिलता था कि नेहरू के बाद कौन? इसमें एक सुझाव यह निहित था कि नेहरू के निधन के बाद भारत में नेतृत्व का संकट उत्पन्न होगा। बाद में हमने देखा कि भारत सफलतापूर्वक विभिन्न प्रधानमंत्रियों के नेतृत्व में आगे बढ़ता गया।
फंड प्रबंधकों और बाजार विश्लेषकों को अब राजनीतिक स्थिरता, बड़े सुधारों की कमी और अर्थव्यवस्था की संभावनाओं की चिंता बंद कर देनी चाहिए। वे देश की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को लेकर शायद कुछ अधिक सम्मान विकसित कर सकते हैं।