केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि संविधान दिवस के दिन उन विचाराधीन कैदियों को रिहा किया जाएगा जिन्होंने अपराध की अधिकतम तय सजा का एक तिहाई हिस्सा जेल में काट लिया है। यह देश की भीड़ भरी जेलों में जगह बनाने का एक नेक प्रयास है। परंतु काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि जेल अधिकारी एक सप्ताह से भी कम समय में सूची संकलित करने और उसे तैयार करने पर निर्भर करेगा। यह बहुत भारी काम है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक देश की जेलों में बंद कुल कैदियों में 75 फीसदी विचाराधीन हैं। 2017 से अब तक इनमें 41 फीसदी का इजाफा हुआ है। विगत 19 वर्षों से जेलों में भीड़ कम करने के प्रयासों के बावजूद ऐसे हालात बने हुए हैं।
उदाहरण के लिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार द्वारा 2005 में पेश दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436 ए में कहा गया कि ऐसे विचाराधीन कैदी (उन कैदियों के अलावा जिन्होंने मृत्युदंड पाने लायक अपराध किए हों) जो अपराध के लिए तय अधिकतम सजा का आधा समय जेल में बिता चुके हों, उन्हें अदालतें जमानत के साथ या उसके बिना पर्सनल बॉन्ड पर रिहा कर सकती हैं।
2009 तक इस दिशा में अधिक प्रगति नहीं हुई। देश के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के जी बालकृष्णन ने भी मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेटों को यह निर्देश दिया कि वे मामूली अपराधों के लिए बंद विचाराधीन कैदियों की तादाद का पता लगाएं और उनमें से जो उनके अपराधों के लिए तय सजा की आधी से अधिक अवधि जेल में बिता चुके हैं उन्हें पर्सनल बॉन्ड पर रिहा कर दिया जाए। इस मामले में भी बहुत धीमी प्रगति हुई। मुख्यतौर पर ऐसा इसलिए हुआ कि अधिकांश विचाराधीन कैदी बॉन्ड या जमानत की व्यवस्था नहीं कर सके।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने गत वर्ष एक योजना पेश की जिसके तहत उन कैदियों को वित्तीय सहायता दी जानी थी जो जमानत नहीं करवा सकते थे। योजना के तहत विचाराधीन कैदियों को 40,000 रुपये और दोषसिद्ध लोगों को 25,000 रुपये तक की वित्तीय सहायता दी जा सकती थी। इसके लिए जिलाधिकारियों की अध्यक्षता वाली अधिकार प्राप्त समिति की मंजूरी आवश्यक थी। परंतु नवंबर में इंडियास्पेंड में प्रकाशित एक अध्ययन जिसमें छह राज्यों से सूचना के अधिकार के तहत हासिल प्रतिक्रियाएं शामिल थीं, में पाया गया कि केवल महाराष्ट्र में 10 विचाराधीन और एक सजायाफ्ता कैदी को इस योजना के तहत रिहा किया गया।
कुल मिलाकर कानूनों और अदालतों का रुख प्रगतिशील रहा है। दंड प्रक्रिया संहिता का स्थान लेने वाली भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) की धारा 479 में पिछले कानून के प्रावधानों को दोहराया गया और पहली बार अपराध करने वालों को अपनी सजा का एक तिहाई समय जेल में गुजार चुके होने के बाद जमानत पर रिहा करने की इजाजत दी गई। यह धारा जेल अधीक्षकों को भी यह अधिकार देती है कि अगर किसी विचाराधीन कैदी की सजा की आधी या एक तिहाई अवधि बीत चुकी है तो वह न्यायालय को आवेदन कर सकते हैं।
इस वर्ष अगस्त में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि बीएनएसएस की धारा 479 को उन मामलों में अतीत की तिथि से लागू किया गया है जहां मामले पहली बार अपराध करने वालों से जुड़े हैं। यह कानून 1 जुलाई, 2024 को प्रभावी हुआ। न्यायालय ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को भी आदेश दिया है कि वे दो महीनों के भीतर हलफनामे देकर उन विचाराधीन कैदियों का ब्योरा दें जो धारा 479 के तहत पात्रता रखते हैं। अक्टूबर तक 36 में से केवल 19 राज्यों ने अपनी रिपोर्ट पेश की है।
समस्या का एक हिस्सा निर्णय लेने की प्रक्रिया की विवेकाधीन प्रकृति है जो पीठासीन न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट पर निर्भर करती है जो कुख्यात रूप से भीड़भाड़ भरी न्याय प्रणाली में एक निरंतर चुनौती के समान है। जेल में प्रशिक्षित कर्मचारियों की कमी के कारण जेलों में क्रूरता और अफरातफरी के हालात बनते हैं और पहचान की प्रक्रिया प्रभावित होती है। यदि इस प्रक्रिया को तत्काल व्यवस्थित किया जा सका तो शाह का यह कदम देश के विचाराधीन कैदियों के लिए वास्तविक राहत हो सकती है।