लेख

असंगठित उपक्रमों का जाल: औपचारिक नौकरियों की बढ़ोतरी में क्या है रुकावट?

यह प्रश्न बनता है कि संगठित क्षेत्र में रोजगार वृद्धि को कौन सी बात रोक रही है। आपूर्ति या फिर मांग? सवाल उठा रही हैं आर कविता राव

Published by
आर कविता राव   
Last Updated- November 04, 2025 | 10:37 PM IST

देश में सेवा क्षेत्र के रोजगार संबंधी रुझानों पर नीति आयोग की एक हालिया रिपोर्ट ने देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में सबसे अधिक हिस्सेदारी रखने वाले इस क्षेत्र में रोजगार के हालात को एक बार फिर प्रकाश में ला दिया है। रिपोर्ट देश में रोजगार तैयार करने में सेवा क्षेत्र की भूमिका को रेखांकित करते हुए बताती है कि देश के कुल रोजगार में इसकी हिस्सेदारी 2011-12 के 26.9 फीसदी से बढ़कर 2023-24 में 29.7 फीसदी हो गई।

यह सात पहलुओं पर रोजगार के परिदृश्य का परीक्षण करता है: स्थानिक वितरण, लैंगिक यानी स्त्री-पुरुष भागीदारी, रोजगार का प्रकार, आयु, शिक्षा, अनौपचारिकता और आय। ये सभी प्रोफाइल ढांचागत चुनौतियों की पहचान के लिए प्रयोग की जाती हैं। अर्थव्यवस्था में उत्पादक और लाभकारी रोजगार को बढ़ाने की चुनौती से निपटने के लिए रिपोर्ट में नीतिगत विकल्पों की एक सूची भी प्रस्तुत की गई है। इस आलेख में हम इन प्रोफाइल में से एक यानी औपचारिक बनाम अनौपचारिक रोजगार के प्रभावों की पड़ताल करेंगे।

सबसे पहले ध्यान देते हैं रिपोर्ट में विभिन्न क्षेत्रों के लिए रोजगार के कोविड के पहले और बाद मौजूद रोजगार की प्रत्यास्थता (इलैस्टिसिटी) की तुलना पर। कोविड के बाद कृषि, विनिर्माण और सेवा क्षेत्र तीनों में रोजगार की प्रत्यास्थता बढ़ी। सेवा क्षेत्र की बात करें तो उसकी प्रत्यास्थता 0.35 से बढ़कर 0.63 हो गई। यह सुखद है लेकिन चूंकि प्रत्यास्थता 1 से कम है इसलिए संकेत मिलता है कि उत्पादन वृद्धि और मूल्यवर्धन रोजगार में उल्लेखनीय वृद्धि के रूप में सामने नहीं आया।

दूसरी ओर कृषि और विनिर्माण की प्रत्यास्थता 1 से अधिक है। इसमें इजाफे की वजह कोविड-19 महामारी के बाद आर्थिक गतिविधियों में लगा झटका भी हो सकता है और एक बार अर्थव्यवस्था में स्थिरता आने के बाद इसमें कमी आई होगी। परंतु कृषि में उच्च प्रत्यास्थता चिंतित करने वाली हो सकती है क्योंकि यह समग्र रोजगार अवसरों के लिहाज से कमजोर है। ऐसे में उत्पादक रोजगार बढ़ाने की आवश्यकता है।

सेवा क्षेत्र में रोजगार की औपचारिक-अनौपचारिक प्रोफाइल की बात करें तो, रिपोर्ट के अनुसार 51 फीसदी नौकरियां नियमित वेतन वाली हैं जबकि 45 फीसदी लोग स्वरोजगार में लगे हुए हैं। व्यापार और परिवहन क्षेत्रों में स्वरोजगार का अनुपात और भी अधिक है। यदि हम अनौपचारिक नौकरियों को उन नियमित वेतन वाली नौकरियों के रूप में परिभाषित करें जिनमें सामाजिक सुरक्षा लाभ नहीं मिलते, तो सेवा क्षेत्र में अनौपचारिक नौकरियों की संख्या बढ़कर 69 फीसदी हो जाती है। असंगठित क्षेत्र की वार्षिक सर्वेक्षण रिपोर्ट दर्शाती है कि सेवा क्षेत्र में मालिकों द्वारा संचालित और परिवारों द्वारा संचालित इकाइयों का प्रभुत्व है। ये कुल उद्यमों का 82.5 फीसदी हिस्सा हैं।

इस संदर्भ में रिपोर्ट में जो प्राथमिकताएं तय की गई हैं उनमें से एक है ‘औपचारिकीकरण का समाधान और रोजगार की सुरक्षा।’ यह सराहनीय लक्ष्य है। इस लक्ष्य की दिशा में नीतिगत सुझाव अधिक बेहतर नियमन और सामाजिक सुरक्षा तक पहुंच पर ध्यान देते हैं। दो सवालों के जवाब हासिल करने जरूरी है: औपचारिकीकरण की राह में क्या बाधाएं हैं और औपचारिक क्षेत्र के रोजगार पर आर्टिफिशल इंटेलिजेंस का क्या असर हो सकता है?

औपचारिकीकरण की बाधाएं

असंगठित क्षेत्र के रोजगार में दो घटक होते हैं। असंगठित उपक्रम और ऐसे औपचारिक उपक्रम जो बिना सामाजिक सुरक्षा के रोजगार प्रदान करते हैं। औपचारिक रोजगार के क्षेत्र की बाधाएं असंगठित क्षेत्र की दोनों श्रेणियों से अलग हो सकती हैं। असंगठित उपक्रमों के लिए औपचारिकीकरण की एक कीमत चुकानी होती है। विभिन्न नियमन और करों का अनुपालन, वह भी बिना प्रत्यक्ष लाभ के। श्रम की लागत या प्रयास के प्रतिफल पर भी असर पड़ेगा, जिससे उपक्रम की व्यवहार्यता प्रभावित हो सकती है। दूसरी ओर, कम कौशल वाले श्रमिकों के एक अतिरिक्त भंडार की उपलब्धता यह भी दर्शाती है कि कार्यबल की सौदेबाजी की शक्ति सीमित है। इसलिए, श्रम बाजार में मांग और आपूर्ति दोनों पक्षों के लिए यथा स्थिति को बदलने को लेकर कोई विशेष प्रोत्साहन नहीं है।

इस संदर्भ में क्या हम औपचारिकीकरण को अर्थव्यवस्था में मांग के पैमाने से जोड़ कर देख सकते हैं? मांग में तेज विस्तार से ऐसे हालात बन सकते हैं जहां औपचारिकीकरण को वांछित और व्यावहारिक दोनों माना जाए। आय हस्तांतरण जो आय वितरण के सबसे निचले कुछ वर्गों की मांग को बढ़ाते हैं, प्रभावी हो सकते हैं। सरकारें यदि इन आय हस्तांतरणों को महिलाओं के लिए लागू कर रही हैं, तो संभवतः वे इस विशिष्ट आवश्यकता को संबोधित कर रही हैं।

वहीं दूसरी ओर, संगठित क्षेत्र के उपक्रमों के लिए कर्मचारियों को सामाजिक सुरक्षा कवरेज प्रदान करना दीर्घकालिक लागतों को बढ़ा सकता है, जिससे अनिश्चित आर्थिक माहौल में आकस्मिक परिस्थितियों से निपटने में उनका लचीलापन सीमित हो सकता है। पिछले तीन दशकों में सरकारों और संस्थानों ने ऐसी लागतों को कम करने के लिए सफाई, सुरक्षा और परिवहन सेवाओं को आउटसोर्स करने का विकल्प चुना है।

इस चिंता को दूर करने के लिए, क्या हम सामाजिक सुरक्षा को सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवा के रूप में देख सकते हैं? केंद्र सरकार ने इस दिशा में कुछ योजनाएं शुरू की हैं। इन योजनाओं के तहत दी जाने वाली सुरक्षा या बीमा के स्तर को बढ़ाना, ताकि न्यूनतम जीवन गुणवत्ता सुनिश्चित की जा सके और आवश्यकता के समय इस सुरक्षा तक आसान पहुंच का प्रमाण प्रस्तुत करना, ये उपाय श्रमिकों को इसे अपनाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं और नियोक्ताओं पर अतिरिक्त लागत बोझ भी नहीं आता। एक प्रश्न फिर भी बना रहता है। वह यह कि इस प्रकार के बड़े पैमाने पर कार्यक्रमों के लिए वित्तीय संसाधन कैसे जुटाए जाएं? आयकर व्यवस्था को अधिक व्यापक आधार के साथ तर्कसंगत बनाना एक तरीका हो सकता है।

दूसरे सवाल की बात करें तो एआई रोजगार पर बहुत बड़ा असर डाल सकता है। नीति आयोग की रिपोर्ट में इंटरनैशनल जर्नल ऑफ इनोवेटिव रिसर्च इन टेक्नॉलजी में प्रकाशित ए कुमार के अध्ययन का हवाला दिया गया है। इस अध्ययन में संकेत दिया गया है कि 40-50 फीसदी दफ्तरी नौकरियां समाप्त हो सकती हैं। तर्क दिया गया है कि एआई और डेटा विशेषज्ञों की मांग बढ़ेगी लेकिन अपनी प्रकृति के कारण यह तकनीक कम लोगों की आवश्यकता वाली है। इससे कुल मिलाकर रोजगार पर बुरा असर होगा।

यह चिंता का विषय है क्योंकि औपचारिक क्षेत्र में बड़ी संख्या में नौकरियां आईटी और फिनटेक क्षेत्र से संबंधित हैं। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस को अपनाने से कुछ उच्च वेतन वाली नौकरियां तैयार हो सकती हैं लेकिन अब वक्त आ गया है कि जहां संभव हो वहां नए सिरे से कौशल विकास और उन्नत कौशल पर ध्यान दिया जाए ताकि इन अवसरों का लाभ उठाया जा सके।

अल्पकालिक रूप में अधिक लोगों के अनौपचारिक क्षेत्र की ओर मुड़ने का जोखिम है। इस क्षेत्र को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है ताकि औपचारिकीकरण को बढ़ावा दिया जा सके और लचीले व टिकाऊ रोजगार सृजन को बढ़ावा मिल सके।


(लेखिका राष्ट्रीय लोक वित्त और नीति संस्थान, नई दिल्ली की निदेशक हैं)

First Published : November 4, 2025 | 10:25 PM IST