आम चुनाव के नतीजों से संकेत मिल रहा है कि शायद गठबंधन युग की वापसी हो गई है और नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपने बलबूते सरकार नहीं बना पाएगी। ऐसे में देश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था से संबंधित बहस में एक बार फिर इस बात पर जोर होगा कि आखिर केंद्र की नई सरकार को किस शासन मॉडल पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
पिछले दो कार्यकालों के दौरान बहुमत वाली मोदी सरकार ने अक्सर नागरिक सेवाओं में बदलाव की बात की थी जिससे कि प्रशासन को अधिक किफायती बनाया जा सके और राज्यों तथा स्थानीय सरकारों के शासन ढांचे का पुनर्गठन करके उन्हें अधिक प्रभावी बनाया जा सके तथा कारक बाजार सुधारों की मदद से कारोबारी सुगमता को बढ़ावा दिया जा सके।
इस क्रम में भूमि, श्रम और कृषि क्षेत्र के लिए अनुकूल और सहज कानून बनाने की बात भी कही गई। बहरहाल, एक दल के पास बहुमत होने के बावजूद इन सभी मोर्चों पर उत्साहजनक परिणाम नहीं हासिल हुए। क्या 2024 में बनने वाली गठबंधन सरकार (भले ही उसका नेतृत्व भाजपा के पास हो) इस क्षेत्र में बेहतर परिणाम दे सकेगी?
ऐसा भी नहीं है कि बीते एक दशक में मोदी सरकार के पास देश के संचालन ढांचे में ऐसे दूरगामी बदलावों को अंजाम देने के लिए जरूरी राजनीतिक पूंजी नहीं थी। 1985 में राजीव गांधी की सरकार के बाद से किसी अवसर पर एक दल के पास लोक सभा में ऐसा बहुमत नहीं था। ऐसा प्रतीत होने लगा था कि भाजपा नेतृत्व ऐसे आर्थिक सुधारों के लिए अपनी राजनीतिक पूंजी को दांव पर लगाने से घबरा रहा था।
जाहिर है उसने जम्मू कश्मीर में संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने या नागरिकता संशोधन कानून जैसे राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने या नोटबंदी जैसे उथलपुथल मचाने वाले कदम उठाने पर ध्यान दिया। जब बात कड़े आार्थिक सुधारों मसलन वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की विभिन्न दरों को युक्तिसंगत बनाने या गैर रणनीतिक सरकारी उपक्रमों के निजीकरण की आई (जिसके लिए नीति भी मंजूर कर ली गई थी) तो शायद ही कोई प्रगति हुई। केंद्र में मोदी सरकार के 10 वर्ष के कार्यकाल में एयर इंडिया का निजीकरण अपनी तरह का इकलौता मामला दिखता है।
साफ कहा जाए तो मोदी सरकार कई सुधारों में कामयाब भी रही। उदाहरण के लिए भारतीय रिजर्व बैंक की मदद से मुद्रास्फीति को लक्षित करने वाली मौद्रिक नीति व्यवस्था, पूरे देश के लिए एक जीएसटी लागू करना, अचल संपत्ति क्षेत्र के लिए एक नियामकीय व्यवस्था कायम करना और नागरिकों को विभिन्न सेवाएं प्रदान करने के लिए डिजिटल अधोसंरचना कायम करना इनमें शामिल हैं। उसने भूमि कानूनों, श्रम कानूनों और कृषि कानूनों में सुधार के भी प्रयास किए।
बहरहाल भूमि और कृषि क्षेत्र सुधारों को लेकर सरकार की पहलों का कड़ा राजनीतिक प्रतिरोध हुआ और मोदी की बहुमत वाली सरकार को भी अपने कदम वापस खींचने पड़े। श्रम कानून सुधारों में चार सरल श्रम संहिताएं संसद ने पारित कीं लेकिन केंद्र सरकार सभी राज्यों को इन पर एकमत करने में विफल रहा।
अगर मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बनते हैं और एक गठबंधन सरकार का नेतृत्व करते हैं तो लंबे समय से लंबित इन आर्थिक सुधारों के क्रियान्वयन की क्या उम्मीद है? खेद की बात है कि 2024 के आम चुनाव के पहले जारी भाजपा के चुनाव घोषणापत्र को देखकर कोई खास उम्मीद नहीं जगती। घोषणापत्र में भूमि और श्रम कानून सुधारों का कोई जिक्र नहीं। इन्हें मोदी सरकार के क्रमश: पहले और दूसरे कार्यकाल में वापस लिया गया था।
श्रम कानून सुधारों की बात करें तो ऐसे कोई संकेत नहीं हैं कि क्या नवनिर्वाचित सरकार उन श्रम संगठनों को साथ लेने का प्रयास करेगी जो अभी भी बदलाव के विरुद्ध हैं। क्या वह सभी राज्यों को नई संहिताओं को अपनाने के लिए मना पाएगी? बुरी खबर यह है कि नई सरकार जो अपने अस्तित्व के लिए गठबंधन साझेदारों पर निर्भर होगी शायद ही ऐसे सुधारों पर आगे बढ़ सके। सुधारों के साथ देश के प्रयोग दिखाते हैं गठबंधन सरकारें सुधार ला सकती हैं लेकिन केवल तभी जब अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में हो। फिलहाल ऐसा कोई संकट या दबाव नहीं दिख रहा है।
भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में भारत को दर्जनों उद्योगों जैसे खाद्य प्रसंस्करण, रक्षा, रेलवे, विमानन, जहाज निर्माण, दवा, इलेक्ट्रॉनिक्स, सेमीकंडक्टर, वाहन, इलेक्ट्रिक वाहन, रणनीतिक खनिज, परिधान एवं हीरा आदि का वैश्विक केंद्र बनाने का जिक्र किया गया है।
निवेश से जुड़ी इन योजनाओं को लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए मोदी सरकार को अपने तीसरे कार्यकाल में भूमि एवं श्रम सुधारों को आगे बढ़ाने वाले लोगों की जरूरत होगी। इसके अलावा उन्हें श्रम संहिता जल्द से जल्द लागू करने और कराधान नियमों में नवीनतम सुधारों का लाभ लेना चाहिए। संयोग से घोषणापत्र में इन सुधारों का भी जिक्र किया गया है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ऐसे सुधार देश की अर्थव्यवस्था के लिए अहम होंगे। पिछले तीन वर्षों में आर्थिक विकास की गति तेज रही है जिसमें सरकार द्वारा आधारभूत ढांचे पर भारी भरकम निवेश की खास भूमिका रही है। आने वाले वर्षों में आर्थिक वृद्धि तभी ऊंचे स्तरों पर बनी रहेगी जब निजी क्षेत्र से निवेश बढ़ेगा।
कारोबार सुगम बनाने के लिए किए जाने वाले आर्थिक सुधार निश्चित रूप से निजी क्षेत्र से निवेश बढ़ाने में मददगार होंगे। निजी क्षेत्र के आगे कदम बढ़ाने का एक फायदा यह होगा कि सरकार जो रकम आधारभूत ढांचे पर खर्च कर रही है वह कम हो जाएगी। इससे सरकार को बाजार से अधिक उधार नहीं लेना पड़ेगा और राजकोषीय घाटा भी नियंत्रित रहेगा। निजी क्षेत्र के लिए रकम जुटाना भी सस्ता हो जाएगा। इन बातों के बीच सवाल यह है कि क्या एक गठबंधन सरकार इन सुधारों को आगे बढ़ाने में पर्याप्त रुचि लेगी?
दो ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें केंद्र में आने वाली नई सरकार का संचालन ढांचा बेहतर होना चाहिए। भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) की पकड़ सरकारी तंत्र पर काफी मजबूत हो चुकी है जिससे बाहर निकलना होगा। पिछले कुछ वर्षों में गैर-आईएएस अधिकारियों की संख्या नागरिक सेवाओं में बढ़ी है मगर इस प्रक्रिया को संस्थागत रूप दिया जाना जरूरी है।
दूसरा अहम बिंदु सरकार के दूसरे और तीसरा स्तर को मजबूत बनाने के तरीकों से जुड़ा है। भाजपा के घोषणापत्र में स्थानीय सरकारों को अधिक वित्तीय स्वायत्तता देने का वादा किया गया है। यह वादा पूरा करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को साथ आना होगा तभी वे पंचायतों एवं शहरी स्थानीय इकाइयों को सशक्त बना पाएंगे। कई जटिल विधायी मुद्दों को हल करने के बाद ही राज्य, स्थानीय सरकारों को वित्तीय एवं गैर-वित्तीय अधिकार दे पाएंगे।
इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए नई सरकार को सबसे पहले सभी राज्यों को बतौर सदस्य शामिल कर एक समिति गठित करनी चाहिए और आगे की रणनीति तैयार करने का उत्तरदायित्व देना चाहिए। राज्यों को साथ लेकर नया ढांचा तैयार करने एवं इसे आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी, साथ ही निवेश की गति भी जारी रखने में भी आसानी होगी।
अगले पांच वर्षों में सुधार कार्यक्रमों का क्रियान्वयन करना सरकार के लिए सरल नहीं रहने वाला है। मगर राजनीतिक नफा-नुकसान से जुड़ी चिंता दूर कर ली जाएं तो गठबंधन के घटक दलों के साथ सुधारों को लेकर आम सहमति कायम की जा सकती है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गठबंधन सरकार दूसरों के विचारों पर भी अधिक ध्यान दे पाएगी जिसके भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बड़े फायदे होंगे।