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जाति जनगणना एक खराब विचार है

जब सरकार के पास देने के लिए नौकरियां ही नहीं हैं तो आप बढ़े हुए आरक्षण का क्या करेंगे?

Last Updated- May 04, 2025 | 10:23 PM IST
Caste Census

जाति जनगणना को बुरा करार देने की एक वजह यह भी है कि अब तक राहुल गांधी के सिवा कोई भी यह नहीं बता सका है कि जाति के आंकड़ों का क्या होगा।

नरेंद्र मोदी सरकार की जाति जनगणना कराने की घोषणा के बारे में एक अच्छी बात हम यह कह सकते हैं कि आखिरकार, पांच साल की देरी के बाद 2021 में होने वाली जनगणना अब होगी। वर्ष 1881 में शुरुआत के बाद से दशकीय जनगणना कभी भी इतनी देरी से नहीं हुई और न ही उसे निरस्त किया गया। यहां तक कि 1941  में दूसरे विश्वयुद्ध के समय भी इसे रोका नहीं गया। इसके अलावा यह एक दिक्कतदेह कवायद है। यह चुनावों को ध्यान में रखकर की गई घोषणा है। बिहार चुनाव करीब हैं और जनगणना को उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों से ऐन पहले कराया जा सकता है।

जाति के आंकड़े यकीनी तौर पर 2029  के राष्ट्रीय चुनाव में अहम भूमिका निभाने वाले हैं। समस्या इसी बात में निहित है। यही इस तथ्य को भी रेखांकित करता है कि आखिर क्यों जाति जनगणना हमारे सामान्य ‘कोई भी बुरे विचार को रोक नहीं सकता’ वाले क्षणों में से एक है।

हम इसे बुरा विचार क्यों कह रहे हैं? अधिकांश संपादकीयों में इसका स्वागत किया गया। मेरे संस्थान द प्रिंट ने भी इसका स्वागत किया बशर्ते कि यह केवल जनगणना और आंकड़े पेश करे। सत्ताधारी दल इसे विभाजनकारी, विनाशकारी और खतरनाक बताता रहा है। मोदी इसे अर्बन नक्सल्स का विचार करार दे चुके हैं लेकिन अब उनके समर्थकों को इसे मोदी सरकार का मास्टर स्ट्रोक करार देना पड़ेगा। विपक्ष,  खासकर कांग्रेस ने भी यह कहते हुए इसका स्वागत किया है कि मोदी ने उसका विचार चुरा लिया है। तो आखिर दिक्कत क्या है?

असली समस्या आंकड़ों में या इस बात में निहित है कि इनका क्या किया जाएगा? संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार ने देश की आबादी की जाति के आंकड़े एकत्रित किए लेकिन उनका कुछ किया नहीं। उसने इन्हें सार्वजनिक भी नहीं किया। भाजपा के पास ये आंकड़े 11 साल से हैं और उसने भी चुप्पी साधे रखी। उसने जस्टिस रोहिणी आयोग का गठन किया ताकि पता लगा सके कि इन आंकड़ों का क्या किया जा सकता है और ओबीसी को कैसे लाभ पहुंचाया जा सकता है। इसे एक गहरे राष्ट्रीय रहस्य की तरह दफना दिया गया। अब नई जनगणना सामने है और तथ्य यह है कि 2011  की जनगणना से 14  साल तक जाति के आंकड़ों को रेडियोधर्मी और परमाणु सामग्री के रूप में देखा जाता रहा है। नई जनगणना से भी कोई सुखद बात सामने नहीं आने वाली।

हालांकि यह वह वजह नहीं कि हम इसे ऐसा बुरा विचार बता रहे हैं जिसका वक्त आ चुका है। हम अपनी बात को बुरे विचार से संबंधित तीन नियमों के आधार पर आगे बढ़ा रहे हैं। पहला नियम यह है कि एक बुरे विचार को अपनाने के बाद फिर ऐसे विचारों की झड़ी लग जाती है। दूसरा,  हर व्यक्ति उसे और बुरा बनाता जाता है और तीसरा, जिस व्यक्ति ने सबसे पहले उक्त बुरा विचार दिया था, उसमें उस विचार को पलटने का न तो साहस होता है और न ही राजनीतिक ताकत। मैं आपको दर्जनों उदाहरण दे सकता हूं लेकिन यहां बात करते हैं केवल एक का यानी 1969 में इंदिरा गांधी द्वारा बैंकों के राष्ट्रीयकरण का।

हम इसे बुरा विचार इसलिए कह रहे हैं क्योंकि राहुल गांधी के सिवा किसी को नहीं पता है कि आंकड़ों का क्या करना है। और उन्होंने सीधे तौर पर राम मनोहर लोहिया से यह विचार उठा लिया है। आप निश्चिंत होकर कह सकते हैं कि अब राहुल गांधी मोदी के हाथ से कमान छीनकर संविधान संशोधन की मांग करेंगे ताकि आरक्षण की 50 फीसदी की सीमा को बढ़ाया जा सके। यह होकर रहेगा।

अगला? जब सरकार के पास देने के लिए नौकरियां ही नहीं हैं तो आप बढ़े हुए आरक्षण का क्या करेंगे? आज की ताजा खबर यह है कि रेलवे की 36,000 नौकरियों के लिए1.5 करोड़ लोगों ने आवेदन किया है और ऐसी खबरें रोज आ रही हैं। युवा भारतीयों के सामने समस्या कम आरक्षण की नहीं बल्कि सरकारी नौकरियों की कमी की है।

तीसरे सबसे बुरे विचार के लिए मेरी प्रतीक्षा मत कीजिए। पुराने लोहियावादी समाजवाद को मानने वाले ढेर सारे लोग उसका उल्लेख कर चुके हैं और संप्रग भी। राहुल गांधी और कांग्रेस ने भी इसका जिक्र किया है। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का प्रस्ताव पढ़िए। वह निजी क्षेत्र में आरक्षण की बात करती है। यह आपके अनुमान से जल्दी घटित होगा।

यह वह सामाजिक-आर्थिक राजनीति नहीं है जिसके लिए मोदी को चुना गया था। यही वजह है कि अक्सर जाति जनगणना के खुले, मुखर और नाराज आलोचक भाजपा के सबसे प्रतिबद्ध समर्थकों में से आते हैं। वे पांच दशक पुरानी फिल्मों की बलिदानी पत्नियों की तरह नजर आएंगे। आप ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ या ‘मेरा पति सिर्फ मेरा है’ जैसी फिल्मों के उदाहरण ले सकते हैं।

वे अपने वैचारिक मंगलसूत्र को चूमते हुए मोदी को वोट देना जारी रखेंगे। कम से कम वह मुस्लिमों को तो उनकी औकात में रख रहे हैं। वे कहेंगे कि भला किसी पप्पू या लल्लू को कौन वोट देगा? मोदी जानते हैं कि सामान्य वर्ग उनका साथ नहीं छोड़ने वाला। मजेदार बात यह है कि मोदी का अगला कदम क्या होगा यह जानने के लिए आपको ‘पप्पू’ को सुनना होगा। राहुल गांधी ने जितने चुनावों में अपनी पार्टी का नेतृत्व किया, उनमें से अधिकांश में उनको पराजय का सामना करना पड़ा। वह अपनी पार्टी को नए सिरे से खड़ा कर पाने में नाकाम रहे हैं और इसके बावजूद विजेता मोदी का सामाजिक-आर्थिक एजेंडा वही तय करते हैं।

मोदी का मामला दिलचस्प है। वह पराजित नेता से सीखते रहे हैं। मैं एक सूची पेश कर रहा हूं जो राहुल गांधी द्वारा प्रस्तावित और मोदी द्वारा अपनाई गई है। ईमानदारी से कहूं तो इनमें से अधिकांश अच्छे विचार नहीं हैं।

हम जाति जनगणना से शुरुआत करते हैं। उसके बाद न्याय योजना जिसे पीएम-किसान योजना के रूप में शुरू की गई,  मुफ्त खाद्यान्न वितरण और फिर राहुल का ‘पहली नौकरी पक्की’ का वादा जिसे मोदी ने 2024 के बजट में शामिल किया।

मोदी के पहले कार्यकाल में ‘सूट-बूट की सरकार’ के आरोप के बाद भूमि अधिग्रहण विधेयक को त्याग दिया गया। अमीरों पर कर अब यूरोप के स्तर पर लग रहा है। दूसरे कार्यकाल में कृषि कानूनों के साथ ऐसा ही हुआ। कर्नाटक में कांग्रेस ने नि:शुल्क बस यात्रा करानी शुरू की तो अब मोदी-भाजपा इसे हर जगह लागू कर रहे हैं। महिलाओं के लिए की जाने वाली घोषणाएं भी ऐसी ही हैं।

राहुल ने सरकारी कंपनियों को लेकर ताना मारा तो मोदी सरकार ने निजीकरण के एजेंडे को ही त्याग दिया और सरकारी कंपनियों पर गर्व करना आरंभ कर दिया। इस वर्ष के बजट में भी सरकारी कंपनियों में 5 लाख करोड़ रुपये के निवेश का प्रावधान किया गया है।

मैं कहना चाहूंगा कि अगर मोदी सरकार ने 36 राफेल विमानों के सूत्र को नए सिरे से थामने में एक दशक का समय लगाया है तो इसका धन्यवाद या दोष राहुल को दीजिए। यह एक असाधारण बात है जहां पराजित व्यक्ति विजेता का एजेंडा तय कर रहा है।

राहुल के पास खोने को कुछ नहीं है। 2034 में भी वे 64 वर्ष के ही होंगे। इस बीच वह मोदी की सामाजिक-आर्थिक राजनीति को नागपुर से लोहिया की ओर ले जा रहे हैं। इसके पीछे क्या वजह है? क्या राहुल का खुद को आम आदमी के रूप में पेश करना मोदी को परेशान कर रहा है?

राहुल की टीम ने यूट्यूब और इंस्टाग्राम का अच्छा इस्तेमाल किया है। उन्हें अक्सर कार मैकेनिक, जरदोजी बनाने वालों, बुनकरों, मोची, किसानों, ट्रक चालकों, हलवाई, कुली, दर्जी, बढ़ई, कुम्हार, श्रमिकों आदि के साथ दिखाया गया है। इनमें से अधिकांश पिछड़े वर्ग के हैं। इसके अलावा वह मुखर्जी नगर में यूपीएससी की तैयारी करने वालों के साथ भी दिखे।

क्या यह बात मोदी को प्रभावित करती है? उन्हें मंडल पर कमंडल की विजय कराने वाले के रूप में सराहा गया और अब वह मंडल को अपनाने को विवश हैं। उनकी राजनीति तय करके वैचारिक युद्ध कौन जीत रहा है?

तीन दशक पहले जब मैं पहली बार संपादक के रूप में इंडियन एक्सप्रेस के कॉरपोरेट मुख्यालय पहुंचा था, तब मुझे विज्ञापन की दुनिया के जादूगर एलीक पद्मसी के कमरे में ले जाया गया। उन्हें उसी समय ब्रांड सलाहकार बनाया गया था। उन्होंने मुझे खामोशी से बैठने का इशारा किया। अपनी रोइंग मशीन पर आगे पीछे होते हुए उन्होंने अपने युवा सहायक को एक रणनीतिक नोट लिखवाया- ‘मैं कभी अपने ब्रांड को नए ढंग से पेश नहीं करता। हमेशा अपने प्रतिद्वंद्वी को ऐसा करने के लिए विवश करता हूं।’ यह आलेख लिखते हुए मेरे जेहन में यही बात कौंध गई।

 

First Published - May 4, 2025 | 10:23 PM IST

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