मोदी सरकार ने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (CAA) के नियमों को लागू करने की जो अधिसूचना जारी की वह अपना तात्कालिक उद्देश्य पूरा नहीं कर सकी। यानी वह बेनामी चुनावी बॉन्ड से जुड़े सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को दबा नहीं पाई। बॉन्ड के मामले में उभरने की पूरी क्षमता थी।
सीएए तब तक मृत प्राय था जब तक दो घटनाएं नहीं घट गईं। पहला, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस कानून पर हमला करते हुए कहा कि यह पाकिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले लाखों गरीब अवैध प्रवासियों और घुसपैठियों के लिए निमंत्रण की तरह है। इस बयान के बाद उनके घर के बाहर बड़ी तादाद में पाकिस्तानी हिंदुओं ने विरोध प्रदर्शन आरंभ कर दिया। ये वे हिंदू हैं जो दिल्ली की अवैध बस्तियों में अमानवीय परिस्थितियों में रहते हैं।
इससे भी अहम भूमिका अमेरिकी विदेश विभाग ने इसे दोबारा सुर्खियों में लाकर की। उसके प्रवक्ता मैथ्यू मिलर ने अपनी सामान्य ब्रीफिंग में कहा कि अमेरिका इस कानून से चिंतित है। वह सभी आस्थाओं को मानने वालों की समता के पक्ष में खड़ा है और वह इसका नजदीकी से अध्ययन कर रहा है। ऐसे में मैं उनसे और विदेश मंत्रालय में बैठे उनके वरिष्ठों से एक आग्रह करना चाहूंगा कि इसके गहरे अध्ययन के बाद अगर वे कुछ गलत पाएं तो हमें भी समझाएं। या फिर जैसा कि किशोर कुमार ने सन 1965 में आई देव आनंद की फिल्म तीन देवियां में मजरूह सुल्तानपुरी के शब्दों में गाया था, ‘…अगर इसे समझ सको, मुझे भी समझाना।’
तथ्य यह है कि बहुत बारीकी से अध्ययन करने के बाद भी मुझे यह निर्णय करने में मुश्किल हुई कि सीएए अच्छा है, बुरा है, थोड़ा-थोड़ा दोनों है या फिर यह बेमानी है। कोशिश करते हैं कि इसे इसके संभावित लाभार्थियों, पीड़ितों या सैद्धांतिक दलीलें पेश करने वालों के नजरिये से परखा जाए।
- इसके संभावित लाभार्थियों में से अधिकांश हिंदू और कुछ सिख, ईसाई और शायद थोड़े बहुत बौद्ध हैं जो पाकिस्तान और बांग्लादेश से हैं। इसके तय आंकड़े पता लगा पाना मुश्किल है। हालांकि भारत के उलट पाकिस्तान ने 2023 में जनगणना कराई थी। समझ को आसान बनाने के लिए हम कह सकते हैं कि यह आंकड़ा करीब दो करोड़ का है जिसमें 95 फीसदी से अधिक हिंदू हैं। मान लेते हैं कि उनमें से अधिकांश या कोई भी बुरी तरह प्रताड़ित महसूस कर रहा हो और भारत आना चाहता हो तो क्या वह सीएए से खुश नहीं होगा? दुर्भाग्यवश इसका उत्तर न है। उन्हें 10 वर्ष से अधिक की देरी हो चुकी है। यह कानून उन्हें तभी फायदा पहुंचाता जब वे 2014 के अंत के पहले भारत आ चुके होते क्योंकि इसके आवेदन के लिए 31 दिसंबर, 2014 को आखिरी तारीख घोषित किया गया है।
- क्या 2014 की उपरोक्त तारीख से पहले भारत आने वालों को फायदा मिलेगा ही मिलेगा? उन्हें यकीनन लाभ मिल सकता है लेकिन वे एक सवाल पूछ सकते हैं: अगर भारत, खासकर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार को वास्तव में उनकी इतनी अधिक चिंता थी तो उसने बीते 10 वर्षों में उन्हें नागरिकता क्यों नहीं दी? भारत सरकार के पास किसी को भी नागरिकता प्रदान करने के संप्रभु अधिकार हैं। किसी खास समुदाय के लिए विशेष कानून की आवश्यकता नहीं। गायक अदनान सामी को भारत की नागरिकता देने के लिए किसी नए कानून की जरूरत नहीं थी। तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने बहुत धूमधाम से उन्हें भारत की नागरिकता प्रदान की थी। तो बांग्लादेश और पाकिस्तान के गरीब और बदहाल हिंदुओं को इतने सालों तक अमानवीय परिस्थितियों में क्यों जीवन जीने दिया गया? उसके बाद भाजपा की राजनीति में उन्हें 10 वर्ष तक और इंतजार कराया गया ताकि एक अनुकूल अवसर पर इस कानून को लाया जा सके?
- संभावित लाभार्थियों की बात करने के बाद हम बात करते हैं उनकी जिन्हें इससे डर है। अब शाहीन बाग जैसा प्रदर्शन क्यों नहीं हो रहा है? ऐसा इसलिए कि 2019 के प्रावधान अब मौजूद नहीं हैं। उस वक्त सीएए देशव्यापी स्तर पर एक व्यापक राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी (एनआरसी) की प्रक्रिया से जुड़ा हुआ था। एनआरसी का डर अब समाप्त हो चुका है। यहां तक कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी 22 दिसंबर, 2019 को रामलीला मैदान में अपने भाषण में इसका मखौल उड़ा दिया था। अहसास हो गया था कि पार्टी ने इसे लंबा खींच दिया है। इसे लेकर नकार तब स्पष्ट हो गया जब प्रधानमंत्री प्रमुख इस्लामिक देशों से सर्वोच्च सम्मान ले रहे थे और पाकिस्तान से इतर अरब देशों से अपने नए रिश्तों का महत्त्व समझा रहे थे। तब से भाजपा के किसी नेता ने इसे नहीं उठाया है। अगर एनआरसी नहीं है तो भारत के किसी मुस्लिम को डरने की जरूरत नहीं।
- यह कानून केवल असम में असर डाल सकता है। भारतीय नागरिकता कानून में एक के बाद एक संशोधनों से असम को अलग रखा गया। ऐसा राज्य में अवैध प्रवासियों (जिसे बाद में विदेशी विरोधी कहा गया) के खिलाफ व्यापक आंदोलन के कारण किया गया जो 1979 से आरंभ हुआ था। ब्रह्मपुत्र घाटी के मूल असमी भाषियों द्वारा और जनजातीय इलाकों में माना जाता है कि लाखों बांग्लादेशी उनके राज्य में बस गए हैं और जनांकीय संतुलन को खराब कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राज्य में चार दशक से अधिक समय तक काम किया और असमी हिंदुओं को यह यकीन दिलाने का प्रयास किया कि उन्हें बंगाली मुस्लिमों और हिंदुओं में भेद करना चाहिए। इसमें कामयाबी मिली लेकिन पूरी नहीं। असम में अंतर यह है कि एनआरसी की प्रक्रिया को वहां पहले ही अंजाम दिया जा चुका है। असम दोहरे जाल में फंस गया। पहले तो एनआरसी में बड़ी तादाद में हिंदू भी मुश्किल में आ गए। भाजपा और आरएसएस के उभार के बावजूद बहुत बड़ी संख्या में असम के लोगों खासकर छात्रों के लिए अभी भी बंगाली हिंदू एक मसला हैं। वे उन्हें स्वीकारना नहीं चाहते। यही वजह है कि मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा नए असंतोष को समाप्त करने के लिए कह रहे हैं कि लाखों बंगाली हिंदुओं को शामिल करने की बात मूर्खतापूर्ण है। वह कहते हैं कि केवल बराक घाटी के 50 से 80 हजार हिंदुओं को ही शामिल किया जा सकता है। ऐसे में लग सकता है कि अगर इस राजनीतिक रूप से विभाजनकारी कानून से केवल इतने लोगों को लाभ होना था तो भला इसकी क्या जरूरत थी?
यह नतीजा निकालना सही होगा कि भाजपा के लिए यह एक रणनीतिक कदम था जो कारगर साबित नहीं हुआ क्योंकि जिन्हें इससे लाभ मिलना था उन्हें मौजूदा कानूनों के तहत ही आसानी से शामिल किया जा सकता था और नए आने वालाों को बाहर रखा जा सकता था। देशव्यापी ध्रुवीकरण और सड़कों पर असंतोष की उम्मीद तब समाप्त हो गई जब प्रधानमंत्री ने खुद एनआरसी को इससे बाहर कर दिया। मुस्लिम समुदाय ने भी परिपक्वता दिखाई और ताजा घटनाक्रम को लेकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। यह संवैधानिक तर्क बाकी है कि क्या धर्म के आधार पर नागरिकता तय हो सकती है और इस पर सर्वोच्च न्यायालय में लड़ाई जारी रहेगी। फैसला चाहे जो भी हो यह अकादमिक होगा और इससे कोई खास अंतर नहीं होगा।
नागरिकता प्रमाणपत्र देते समय समारोह आदि होंगे। उसके अलावा सीएए की कहानी में अब दम नहीं बचा है। यह दो स्थितियों में नए सिरे से उभर सकती है: देशव्यापी एनआरसी की नए सिरे से चर्चा और अथवा इसकी तय तारीख को 31 दिसंबर, 2014 से बदलना। क्या ऐसा हो सकता है? मेरा मानना है कि 2029 के चुनाव के पहले इस पर नजर रखी जाए।
First Published - March 17, 2024 | 9:45 PM IST
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