बतौर वित्त मंत्री यह निर्मला सीतारमण का चौथा वर्ष है। इस अवधि में बजट निर्माण के उनके तौर तरीके में भी बदलाव आया है और 2019 में हुई एक रोमांचक शुरुआत के बाद से अब वह बजट निर्माण में हकीकत का अधिक ध्यान रखने लगी हैं। शुरुआत अच्छी नहीं रही थी और आंकड़ों में बहुत अधिक गड़बड़ी देखने को मिल रही थी। कर राजस्व में 18.4 फीसदी की कमी देखने को मिली।
ऐसा आंशिक रूप से इसलिए भी हुआ कि कोविड महामारी के आगमन के पहले ही आर्थिक मंदी की शुरुआत हो गई थी। कुछ हद तक ऐसा इसलिए भी हुआ कि वर्ष के बीच में उन्होंने कॉर्पोरेट कर दरों में असाधारण कटौती की घोषणा कर दी थी। जाहिर है ऐसा इसलिए किया गया था कि कुछ ही दिन बाद प्रधानमंत्री को अमेरिका जाना था जहां उनकी मुलाकात कारोबारी जगत के शीर्ष लोगों से भी होनी थी। इसका नतीजा वर्ष के अंत में 4.6 फीसदी के राजकोषीय घाटे के रूप में सामने आया जो बजट में अनुमानित 3.4 फीसदी घाटे से काफी अधिक था।
अगला वर्ष भी बहुत बेहतर नहीं था। उस वर्ष कोविड के असर के कारण जीडीपी में कमी आई। कॉर्पोरेशन कर राजस्व में 17.8 फीसदी की कमी आई जबकि वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी कर संग्रह में 8.3 फीसदी की गिरावट आई। दिलचस्प बात है कि वित्त मंत्री को इस हालात में भी अवसर नजर आया। उन्होंने सोचा कि अगर और बुरी खबरें आएं तो भी शायद कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा।
यही वजह है कि उन्होंने अपने बही खाते दुरुस्त किए और लगातार बढ़ते राजकोषीय घाटे के आंकड़ों के साथ चली आ रही छेड़छाड़ की प्रक्रिया पर भी विराम लगा दिया। बैलेंस शीट से बाहर की उधारी को सरकारी बही खातों में शामिल करते ही घाटा 9.2 फीसदी के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया लेकिन सरकार की अंकेक्षण प्रक्रिया में अवश्य सुधार हुआ।
अपने तीसरे बजट में सीतारमण ने संकेत दिया कि उन्हें बजट के अतिमहत्त्वाकांक्षी होने की अज्ञानता का अहसास हो चुका है। पिछले वर्षों की तुलना में उन्होंने 2021-22 के लिए राजस्व के अपेक्षाकृत कमजोर आंकड़े पेश किए। इसका परिणाम यह हुआ कि वास्तविक संग्रह मूल अनुमानों से 13.4 फीसदी अधिक रहा।
इससे गैर कर राजस्व में कमी के प्रभाव को कम करने में मदद मिली और सरकार को यह सुविधा मिली कि वह कोविड से संबंधित मदद मसलन गरीबों को मुफ्त खाद्यान्न वितरण आदि जारी रखे। वर्ष के अंत में घाटे के आंकड़े कमोबेश वैसे ही थे जैसा कि पहले अनुमान जताया गया था।
इस वर्ष भी वैसा ही प्रदर्शन देखने को मिल सकता है। पेट्रोलियम करों में कमी के बावजूद कर राजस्व अनुमान से बेहतर है। परंतु व्यय के मोर्चे पर सब्सिडी आवंटन एक बार फिर काफी बढ़ गया है। ऐसा आंशिक रूप से यूक्रेन युद्ध के चलते उर्वरक कीमतों में भारी इजाफे के कारण हुआ है क्योंकि कीमतों में बढ़ोतरी का बोझ किसानों पर नहीं डाला गया है। इसके अलावा सरकार ने मुफ्त खाद्यान्न वितरण जारी रखने का फैसला किया, उसके कारण भी सब्सिडी का बोझ बढ़ा है।
अगर इस सप्ताह मंत्री द्वारा संसद में दिए गए वक्तव्य को देखें तो घाटे का स्तर जीडीपी के 6.4 फीसदी के बराबर रहेगा। बीते दोनों वर्षों के दौरान उनके अपेक्षाकृत सहज राजस्व अनुमान ने अस्थिर समय में अनियोजित व्यय के बीच हमें बचाया है। समाचार पत्रों में आ रही खबरों पर यकीन करें तो अगले वर्ष के बजट में भी सीमित कर राजस्व वृद्धि का अनुमान पेश किया जाएगा। कर नीति की बात करें तो कॉर्पोरेशन कर दरें अब अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप हैं जबकि उच्चतम आय कर दरों को बढ़ाकर आय से ऊपर किया गया है।
दोनों दरें वहीं हैं जहां उन्हें होना चाहिए। परंतु पूंजीगत लाभ कर और जीएसटी की दरों में अभी भी भिन्नता बरकरार है। टैरिफ के स्तर में भी इजाफा हो रहा है। लगता नहीं कि अगले बजट और जीएसटी परिषद की आगामी बैठक में ये मसले सुलझ पाएंगे। यानी काम अधूरा रहेगा और दरों में बदलाव की प्रक्रिया जारी रहेगी। इस बीच राजकोषीय घाटा लगातार ऊंचा बना हुआ है और वह कोविड के पहले के 6.5 फीसदी के उच्चतम स्तर के करीब है जो 2009-10 के वित्तीय संकट के समय दर्ज किया गया था।
रक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के लिए अच्छा खासा बजट सुनिश्चित करते हुए इसे कैसे कम किया जा सकता है यह एक बड़ी चुनौती है। तथ्य यह है कि सरकारों के समक्ष जो मांग हैं उनकी तुलना में बजट बहुत कम है। ऐसे में सब्सिडी और मुफ्त अनाज जैसी योजनाओं में कटौती करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। कोविड वाले वर्षों में इनमें जबरदस्त इजाफा हुआ है।
ऐसा करने से घाटा जीडीपी के 6 फीसदी से नीचे आ सकता है, हालांकि फिर भी वह काफी अधिक होगा क्योंकि सार्वजनिक ऋण काफी अधिक है। ऐसे में अतिरिक्त आवंटन के लिए और अधिक राजस्व की आवश्यकता होगी जो औसत जीएसटी दरों में इजाफा करके किया जा सकता है।