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श्रमिकों के लौटने के बाद रोजगार और उत्पादन का धुंधला भविष्य

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 15, 2022 | 8:23 PM IST

हमारी दुनिया में घटनाएं बड़ी तेजी से घट रही हैं। महज दो हफ्ते पहले मैंने लिखा था कि कोविड महामारी की वजह से आर्थिक गतिविधियां थम जाने से वे लोग भी किस तरह नजर आने लगे हैं जो अदृश्य थे? मैंने काम की तलाश में शहरों की ओर जाने वाले लेकिन मौजूदा संकट के समय रोजगार छिन जाने से गांव लौटने को मजबूर प्रवासी कामगारों की विचलित करने वाली तस्वीरों पर चर्चा की थी। इनमें से कई मजदूर भूख और बदहाली के चलते रास्ते में ही दम तोड़ रहे हैं। उसके बाद से प्रवासी संकट ने हमारे घरों के भीतर और हमारे अंतर्मन में भी दस्तक दे दी है। हमने उनकी पीड़ा को देखा है और बहुत गहराई से महसूस किया है। जब हमने थककर रेल पटरी पर ही सो गए मजदूरों के ट्रेन की चपेट में आकर मरने की खबर सुनी तो हमारा दिल भी बुरी तरह रोया।
लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि उन मजदूरों का दर्द अब अनसुना नहीं है। प्रवासी मजदूरों को उनके गांव-घर तक पहुंचाने के लिए ट्रेनों का परिचालन शुरू हो गया है। लेकिन इन लोगों को मुफ्त में खाना देने जैसे तमाम प्रयास भी बहुत थोड़े, कमजोर और हिचकिचाहट से भरे नजर आते हैं। उन्हें सम्मान के साथ अपने घर पहुंचाने और आने वाले महीनों में जिंदा बचे रहने के लिए काफी कुछ किए जाने की जरूरत है।
हालांकि अब हमें केवल घर लौट रहे प्रवासी मजदूरों की ही नहीं बल्कि काम के भविष्य एवं उत्पादन के भविष्य पर भी चर्चा करने की जरूरत है। ऐसा केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को ध्यान में रखते हुए करना होगा। सवाल है कि अब हमारे कार्य एवं रोजगार के साथ क्या होने वाला है? मजदूर अपने घर लौट चुके हैं और हालात सुधरने पर हो सकता है कि वे लौट आएं या फिर न भी आएं। पहले ही ऐसी खबरें आने लगी हैं कि पर्याप्त श्रमिक नहीं होने से नगर निकायों की बुनियादी सेवाएं किस कदर प्रभावित हो रही हैं? हम बिल्डरों को पेश आ रही दिक्कतों से रूबरू हो रहे हैं। लॉकडाउन हटने पर भी उद्योग जगत को पर्याप्त कामगार नहीं मिल पा रहे हैं। 
लिहाजा मजदूरों के काम का मूल्य अब महसूस किया जा रहा है जबकि अभी तक उसे सस्ता एवं परिहार्य माना जाता रहा है। इन श्रमिकों को बेहद खराब परिस्थितियों में रखा जाता था, उन्हें पसीने से सराबोर कारखानों के आसपास बनी झुग्गी-झोपडिय़ों में ही रहना और खाना पड़ता रहा है। औद्योगिक इलाकों के लिए किसी भी तरह की सरकारी आवास या परिवहन सेवा या कोई अन्य सुविधा नहीं दी गई है। कारखानों को उत्पादन का साधन माना जाता रहा है और श्रमिकों से जिंदा रहने के लिए कुछ भी करने की अपेक्षा रही है। लोग कारखानों के आसपास ही रहना सुविधाजनक मानते हैं और इसी वजह से वे जहरीली गैसों के रिसाव या प्रदूषण की चपेट में आते रहते हैं। लेकिन क्या हमने कभी यह सवाल उठाया है कि ये गैरकानूनी बस्तियां क्यों बस जाती हैं? इसका जवाब यह है कि कारखानों में काम करने वाले लोगों को कोई आवास सुविधा नहीं दी जाती है। श्रमिकों को रोजगार चाहिए, उसी तरह उद्योगों को भी श्रमिकों की जरूरत होती है। लेकिन अब तो वह श्रम चला गया है और बहुतों का मानना है कि वह शायद कभी नहीं लौटेगा।
ऐसी स्थिति में काम को नई नजर से देखना होगा। जिन इलाकों में लौग लौटेंगे, वहां पर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने और उसे अधिक लचीला बनाने का यह बेहतरीन मौका होगा। लेकिन ऐसा करना आसान नहीं होगा।
सत्तर के दशक की उस घटना को याद करें जब महाराष्ट्र में भयंकर अकाल के चलते लोग गांव छोड़कर शहरों की तरफ भागने लगे थे और अशांति का खतरा मंडराने लगा था। उस समय गांधीवादी विचारक वी एस पागे लोगों को उनके घर पर ही रोजगार दिलाने की योजना लेकर आए थे। इससे रोजगार गारंटी योजना का जन्म हुआ था जो आगे चलकर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना मनरेगा का आधार बनी। लेकिन हम यह बात भूल जाते हैं कि शुरू में यह योजना ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों के बीच एक तरह का अनुबंध थी। शहरों में रहने वाले पेशेवरों से वसूला गया कर गांवों में घर पर रोजगार देने वाली योजना के मद में जाता था। दोनों पक्षों के ही लिए यह जीत जैसी थी।
हम यह भी भूल जाते हैं कि इस तरह हमें अपने प्राकृतिक संसाधनों- पानी, वन और हरियाली को बचाकर रखने का एक मौका भी मिलता है। ऐसा नहीं है कि सरकारी दस्तावेज में ये शब्द नदारद हैं। उसमें में भी इनका जिक्र है लेकिन मंशा एवं अवसर को लेकर समझ नहीं दिखती है। यह एक थकी हुई योजना है जो संकट के समय तुच्छ एवं श्रमसाध्य कामों के लिए ही बनी है।
हमें नई दिशा एवं नेतृत्व की जरूरत है। हमें इसे तपती झूप में पत्थर तोडऩे जैसे काम वाली योजना के रूप में देखना बंद कर देना चाहिए। हमें इसे ग्रामीण अर्थव्यवस्था के निर्माण के अलावा कृषि, डेयरी एवं वानिकी में मूल्य-संवद्र्धन के साधन के तौर पर देखना होगा। इसके लिए एक नए ब्लूप्रिंट की जरूरत है जो ग्रामीण एवं शहरी भारत के बीच नया करार लिखे।
लेकिन यहां पर उत्पादन का सवाल भी आ खड़ा होता है कि भारत समेत दुनिया के बाकी देश अपने कारखानों को फिर से चालू करने और अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण के लिए प्रयासरत हैं। यह सच है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था का निर्माण सस्ते श्रम और पर्यावरणीय हितों को तिलांजलि देकर हुआ है। कामगारों को आवास और जिंदा रहने के लिए समुचित सुविधाएं एवं वेतन देने की एक लागत होगी। पानी एवं हवा को साफ रखना और कचरे के सही निपटान पर भी एक लागत आती है। संपन्न लोग इस लागत का भुगतान नहीं करना चाहते, उन्हें बस खपत के लिए सस्ते सामान चाहिए। यही वजह है कि चीन और भारत समेत अन्य देशों की तरफ उत्पादन गतिविधियां चली गई थीं। आने वाले कल की तस्वीर को लेकर चर्चा हमें जारी रखनी होगी।

First Published : June 1, 2020 | 11:36 PM IST