कुछ लोगों के लिए यह याद करना मुश्किल हो सकता है लेकिन महज दो दशक पहले अमेरिका और यूरोप का बड़ा हिस्सा प्रति व्यक्ति आय के मामले में तुलनात्मक रूप से एक समान था। यह समानता उनके उत्पादों की प्रतिस्पर्धा तथा उनकी कंपनियों की वैश्विक कद में नजर आती थी।
वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान पश्चिमी दुनिया के इन दोनों हिस्सों में अंतर बढ़ने लगा और उसके बाद यूरो क्षेत्र के ऋण संकट ने हालात और मुश्किल बना दिए। महामारी ने इसमें और इजाफा किया और यूक्रेन युद्ध के बाद के दो वर्षों में हालात विकट हो गए।
वर्ष 2008 में यूरो क्षेत्र और अमेरिका के उत्पादन में करीब 50 हजार करोड़ डॉलर का अंतर आ गया। दोनों का आकार 14 लाख करोड़ डॉलर और 15 लाख करोड़ डॉलर के बीच था।
2023 तक यूरो क्षेत्र करीब 15 लाख करोड़ डॉलर पर ही अटका है जबकि अमेरिका ने अपने वार्षिक उत्पादन में करीब 12 लाख करोड़ डॉलर और जोड़ दिए हैं। दुनिया की बड़ी कंपनियों में यूरोप की कंपनियां बहुत कम रह गई हैं। इनमें एलवीएमएच जैसे लक्जरी ब्रांड और नोवार्टिस जैसी औषधि कंपनियां शामिल हैं।
यह अंतर क्यों आया? कई लोग अमेरिकी डॉलर की शक्ति को दोष देते हैं जो अमेरिका को यह अवसर देता है कि वह शेष विश्व से ऋण लेकर अपने उपभोक्ताओं और कंपनियों की घरेलू मदद कर सके।
निश्चित तौर पर यूरोपीय संघ के सख्त राजकोषीय नियमों के कारण संकट के बाद की कटौती ने उसे और प्रभावित किया। जर्मनी जो दो दशक में यूरोप का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन करने वाला देश रहा है, वह भी मंदी के हालात से जूझ रहा है। उसके कर्ज पर रोक लग गई है और वह उसकी अनदेखी करने के मामले में राजनीतिक समर्थन नहीं जुटा पा रहा।
परंतु इसकी और वजहें भी हैं। पहली, तकनीकी नवाचार को लेकर नियमन हैं, दुनिया की सबसे ताकतवर कंपनियां सबसे बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियां हैं। ये सभी अमेरिकी कंपनियां हैं और अमेरिकी शेयर बाजार में हालिया तेजी के पीछे भी यही हैं। इनमें से कुछ इसलिए सीमित हैं कि उनकी पहुंच चीन के विशाल उपभोक्ता बाजार तक नहीं है।
ऐपल अभी भी चीन में कारोबार कर रही है लेकिन गूगल और फेसबुक नहीं। ऐपल के राजस्व का 20 फीसदी चीन से आता है। परंतु अधिकांश बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियां इस बाधा से उबर चुकी हैं और उनका शानदार प्रदर्शन जारी है। प्रौद्योगिकी नियमन को लेकर यूरोप का रुख बहुत रूढ़िवादी है और ऐसा लगता है कि उसने सिलिकन वैली जैसा कुछ बनाने की कोशिश त्याग दी है।
परंतु शायद इस अंतर में सबसे अधिक योगदान ऊर्जा की लागत में अंतर का है। वित्तीय संकट के बाद के 15 वर्षों में अमेरिका एक बार फिर संसाधनों की महाशक्ति बन गया है। यह भूलना आसान है कि एक सदी पहले तेल समेत सस्ते संसाधनों से उसके उत्थान में अहम भूमिका निभाई थी।
यह संभव है कि जॉन डी रॉकफेलर की स्टैंडर्ड ऑयल (सन 1911 में अमेरिकी सरकार के आदेश पर तोड़े जाने के पहले) आधुनिक युग की सबसे बड़ी तेल कंपनी थी और उसका जो दबदबा था, उसकी कभी कोई बराबरी नहीं कर सका।
उस समय संसाधनों का बाजार इतना एकीकृत नहीं था। आर्थिक इतिहासकारों की बात करें तो गेविन राइट ने लिखा है, ‘1879 से 1940 की अवधि में अमेरिकी विनिर्माण निर्यात का सबसे अहम गुण था तेल एवं लौह अयस्क समेत ऐसे प्राकृतिक संसाधनों की तीव्रता जिन्हें बार-बार उत्पन्न नहीं किया जा सकता था।’ यह वर्चस्व तब टूटा जब आसानी से निकलने वाले संसाधनों का इस्तेमाल शुरु हुआ और विश्व स्तर पर बाजार एकीकृत हुए।
बीते एक दशक में अमेरिका में शेल गैस क्रांति ने रुझान उलट दिया और अमेरिका एक बार फिर पहले विश्व युद्ध से पहले की स्थिति में आ गया। इससे ऊर्जा के क्षेत्र में स्वतंत्रता हासिल हुई और अब अमेरिका ऊर्जा का निर्यात कर रहा है तथा ईंधन कीमतों के प्रबंधन की मदद से अपने प्रतिद्वंद्वियों की प्रतिस्पर्धी क्षमता को प्रभावित कर रहा है।
यूरोप रूस की प्राकृतिक गैस की मदद से कुछ हद तक प्रतिस्पर्धी बना रहा। परंतु यूक्रेन के बाद वह विकल्प भी कारगर नहीं रहा। 2023 के अंत तक यह अपने यहां आने वाली तरल प्राकृतिक गैस पर निर्भर हो गया।
तरल प्राकृतिक गैस को समुद्र के रास्ते ढोया जाता है जिससे कीमत पर असर पड़ना तय है। अब जबकि यूरोप रूसी पाइपलाइन के बजाय तरल प्राकृतिक गैस पर अधिक निर्भर है तो यूरोप की लागत अमेरिका की तुलना में 3.5 गुना तक हो सकती है।
कुछ निंदक कह सकते हैं कि रूस पर प्रतिबंधों का डिजाइन अमेरिका की तुलना में यूरोप को अधिक नुकसान पहुंचाने वाला है। उदाहरण के लिए प्रतिबंध तेल एवं गैस पर केंद्रित हैं लेकिन रूसी यूरेनियम अब तक इससे बाहर है। यह यूरेनियम अमेरिका के उन 90 से अधिक नाभिकीय रिएक्टरों को ईंधन देता है जो उसकी 20 फीसदी ऊर्जा के लिए जवाबदेह है।
वे इस बात पर भी ध्यान दे सकते हैं कि अमेरिका अपने यूरोपीय प्रतिस्पर्धियों पर लगातार दबाव बना रहा है। गत सप्ताह अमेरिकी प्रशासन ने कहा कि वह तरल प्राकृतिक गैस के नए टर्मिनल की फंडिंग रोक देगा ताकि दुनिया भर में निर्यात के लिए अमेरिकी गैस का उत्पादन बढ़ाया जा सके। इसे पर्यावरणविदों को रियायत के रूप में प्रस्तुत किया गया और कहा गया कि प्राकृतिक गैस ढांचे से मीथेन का रिसाव होता है।
अमेरिकी प्रशासन और पर्यावरण समर्थकों दोनों ने कहा कि इससे अमेरिका में प्राकृतिक गैस की घरेलू कीमत कम बनी रहेगी। यूरोप, जो कि अपनी ऊर्जा कीमतों में कमी के लिए अमेरिका पर निर्भर था, उसे सस्ती ऊर्जा पर निर्भर अमेरिकी उत्पादकों के साथ प्रतिस्पर्धी घाटा सहना जारी रखना होगा।
यह समझना आसान है कि अमेरिका की आर्थिक नीतियों के बाह्य प्रभाव के कारण उसके ज्यादातर सहयोगियों को संदेह होने लगा है कि वह अपने प्रतिबंधात्मक शासन और पर्यावरण नीति के पीछे पुराने समय के आर्थिक राष्ट्रवाद का मुखौटा पहनता है।
कोरिया और जापान जैसे उसके पूर्वी एशियाई सहयोगियों की शिकायत है कि अमेरिकी कानून उन पर दबाव बनाता है कि वे चीनी आपूर्ति को अपनी मूल्य शृंखला से अलग करें जबकि अमेरिका के प्रतिद्वंद्वियों को उसी कानून के तहत रियायत दी जाए।
इन्फ्लेशन रिडक्शन ऐक्ट अमेरिकी कंपनियों को भारी भरकम सब्सिडी देता है जो स्वच्छ हाइड्रोजन तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं। इलेक्ट्रिक वाहन खरीदने वालों को अमेरिका में भारी सब्सिडी तभी मिलती है जबकि कार अमेरिका में बनी हों।
एक व्यापक दावा यह किया जा सकता है कि मानव प्रयासों से जुड़े तमाम क्षेत्रों में अमेरिका उस स्थिति से पीछे हट रहा है जिस पर उसने 19वीं सदी और 20वीं सदी के आरंभ में अपने उभार के दौरान दबदबा बनाया था। वह भूराजनीति में अलगाववादी रुख बरकरार रखते हुए आर्थिक प्रभुत्व बनाए रखने के लिए अपने प्राकृतिक संसाधनों तथा बंटे हुए वैश्विक बाजारों का लाभ ले रहा है।
ऐसे में वे सभी देश जो बीती एक सदी में एक बाजार, पूंजी के स्रोत और सुरक्षा प्रदान करने वाले देश के रूप में अमेरिका पर यकीन करते आए हैं उन्हें नई योजनाएं तैयार करनी पड़ सकती हैं।