वित्त वर्ष 2025-26 का बजट कुछ ही हफ्तों में पेश कर दिया जाएगा। विभिन्न क्षेत्रों की केंद्रीय बजट से अलग-अलग उम्मीदें हैं मगर इस स्तंभ में मुख्य रूप से बजट के इतर राजकोषीय प्रबंधन पर ध्यान दिया जा रहा है। खबरों के अनुसार केंद्र सरकार 2025-26 के बजट में राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 4.4 प्रतिशत तक रोकने का लक्ष्य रखेगी।
इसका मतलब है कि वह कोविड महामारी के बाद मध्यम अवधि के लिए तय लक्ष्य हासिल कर लेगी, जो बहुत बड़ी उपलब्धि होगी और जिसकी सराहना की जानी चाहिए। मगर बहस इस बात पर है कि आगे क्या होगा। पिछले साल जुलाई में पेश बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि 2026-27 से सरकार हर साल राजकोषीय घाटे का लक्ष्य इस तरह निर्धारित करेगी कि जीडीपी के प्रतिशत के रूप में सरकार का घाटा कम होता रहे।
इस बारे में स्थिति और स्पष्ट किए जाने की जरूरत है। इस समय ऋण का बोझ बहुत है और उसमें जितनी जल्दी हो सके कमी लानी चाहिए। इसे देखते हुए अच्छा होगा यदि सरकार मध्यम अवधि की रणनीति और अंतिम लक्ष्य की जानकारी दे। कर्ज के बोझ को घटाते रहने से ही बात नहीं बनेगी। वित्तीय बाजारों और दूसरे हितधारकों को ऋण में कमी के लिए स्पष्ट योजना की और उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए राजकोषीय घाटे के वांछित स्तर की जानकारी चाहिए।
वित्त वर्ष 2024-25 में केंद्र सरकार पर कर्ज का बोझ वित्त वर्ष जीडीपी के 56.8 प्रतिशत के बराबर रहने का अनुमान है, जो 2023-24 में 58.1 प्रतिशत था। लेकिन यह भी राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) समीक्षा समिति द्वारा 2017 में सुझाए गए स्तर से 17 प्रतिशत अधिक रहेगा। इस लेखक ने जुलाई 2024 में पेश बजट से पहले तर्क दिया था कि कोविड महामारी के बाद राजकोषीय स्थिति का सावधानी से अध्ययन होना चाहिए और यह काम विशेषज्ञ समिति करे तो बेहतर होगा। उसके बाद उपयुक्त राजकोषीय नीति तैयार की जानी चाहिए। कुल मिलाकर कोविड महामारी के बाद देसी और वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं में बुनियादी बदलाव आने से राजकोषीय प्रबंधन में महत्त्वपूर्ण सुधारों की जरूरत पेश आ सकती है। इसके अलावा कुछ दूसरे पहलुओं पर भी विचार होना चाहिए।
पहला महत्त्वपूर्ण बिंदु यह है कि केंद्र सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए पूंजीगत व्यय बढ़ा रही है। पूंजीगत व्यय चालू वित्त वर्ष में बढ़कर जीडीपी का 3.4 प्रतिशत हो गया, जो वर्ष 2019-20 में जीडीपी का 1.67 प्रतिशत था। इससे देश की अर्थव्यवस्था को कोविड महामारी की मार से उबरने में मदद मिली है मगर सरकार को कहीं न कहीं अपनी उधारी जरूरतों को अर्थव्यवस्था की कर्ज लेने की क्षमता के हिसाब से ढालना होगा।
वर्ष 2022-23 में शुद्ध घरेलू वित्तीय बचत कम होकर जीडीपी की 5.3 प्रतिशत रह गई। हालांकि वित्तीय बचत वापस दीर्घावधि औसत तक पहुंच सकती है मगर सार्वजनिक क्षेत्र की उधारी की जरूरत में वह आराम से खप जाएगी। इस समय अर्थव्यवस्था को कर्ज की दिक्कत नहीं हो रही है क्योंकि निजी क्षेत्र पर्याप्त निवेश नहीं कर रहा है। यह अच्छी स्थिति नहीं है। अतः सरकार को बाहर से कर्ज में भारी इजाफा किए बगैर निजी क्षेत्र के लिए निवेश की गुंजाइश तैयार करनी चाहिए।
दूसरी बात, बाजार को यह भी पता होना चाहिए कि राज्य भी इसी व्यवस्था का अनुसरण करेंगे या नहीं। वर्ष 2023-24 में राज्यों पर कुल कर्ज जीडीपी के 28.5 प्रतिशत पर पहुंच गया था। यह आंकड़ा एफआरबीएम समीक्षा समिति द्वारा सुझाए गए स्तर से 8 प्रतिशत अधिक था। भारत में सरकार पर सामान्य कर्ज और बजट घाटा चिंता और जोखिम की बड़ी वजह बना हुआ है। इसलिए आगे की स्पष्ट योजना होने से वित्तीय बाजारों का भरोसा बढ़ाने में काफी मदद मिलेगी।
व्यापक राजकोषीय रणनीति तैयार करने के साथ ही आने वाले महीनों में कुछ विशेष उपाय भी करने पड़ेंगे। सरकार सीमा शुल्क के ढांचे और आयकर अधिनियम की भी समीक्षा कर रही है। यह देखना दिलचस्प होगा कि समीक्षा के बाद फौरन नीतिगत कदम उठाए जाएंगे या नहीं। अगले केंद्रीय बजट के अलावा जिन दूसरे नीतिगत उपायों पर नजर होगी, उनमें वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) में संभावित बदलाव भी शामिल है। हालांकि इन बदलावों पर जीएसटी परिषद की मुहर लगनी जरूरी होगी मगर केंद्र सरकार इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
देश के कई राज्यों में राजनीतिक जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार है इसलिए जीएसटी में सुधार के लिए कोशिश करना केंद्र सरकार के लिए तुलनात्मक रूप से आसान होगा। मंत्रियों के विभिन्न समूह दर को उचित बनाने एवं मुआवजा उपकर जैसे विषयों पर विचार कर रहे हैं। कोविड महामारी के दौरान केंद्र ने राज्यों के राजस्व में आई कमी की भरपाई के लिए कर्ज लिया था और उसे चुकाने के लिए ही मुआवजा उपकर वसूला जा रहा है। मुआवजा उपकर का लक्ष्य इस साल के अंत तक पूरा होने की संभावना है और उसके बाद इसकी वसूली बंद हो जाएगी बशर्ते कोई कानूनी बदलाव न किया जाए।
चूंकि जीएसटी प्रणाली में कर और स्लैब (श्रेणी) को भी वाजिब बनाए जाने की जरूरत है, जिसके लिए मंत्रियों का समूह अध्ययन भी कर रहा है, इसलिए पूरा ध्यान रखा जाए कि इसमें होने वाले बदलाव कम से कम उथल-पुथल लाएं। जीएसटी की औसत दर भी राजस्व निरपेक्ष स्तर तक लाई पहुंचाई जाए। हाल ही में संसद में एक सवाल के जवाब में सरकार ने कहा कि वर्ष 2023-24 में औसत जीएसटी दर 11.6 प्रतिशत थी, जो 2015 में तत्कालीन मुख्य आर्थिक सलाहकर अरविंद सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञ समिति द्वारा सुझाई गई 15-15.5 प्रतिशत राजस्व-निरपेक्ष दर की तुलना में काफी कम थी।
समय से पहले दरें घटाना भी जीएसटी के कमजोर प्रदर्शन के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार रहा है। इस संबंध में केंद्र सरकार को राज्य सरकारों से ज्यादा नुकसान हुआ क्योंकि उसके राजस्व में हुए नुकसान की तो भरपाई भी नहीं हो पाई। डॉ. सुब्रमण्यम और अन्य के अनुसार नुकसान सालाना जीडीपी के 0.6 प्रतिशत और 1.0 के बीच रहा है। वर्ष 2023-24 के दौरान मुआवजा उपकर सहित कुल संग्रह मोटे तौर पर जीडीपी का उतना ही प्रतिशत रहा, जो जीएसटी लागू होने से पहले वसूले जा रहे सभी करों से जुटा था।
जीएसटी में आवश्यक सुधार होने से कुछ हद तक कर्ज और राजकोषीय घाटे जैसी चुनौतियों से निपटने की सरकार की क्षमता में भी इजाफा होगा। इसके अलावा केंद्र सरकार को विनिवेश कार्यक्रम की समीक्षा करनी चाहिए और इसे दोबारा पटरी पर लाना चाहिए। इससे पूंजीगत व्यय के मोर्चे पर समझौता किए बिना राजकोष को दुरुस्त रखने में आसानी होगी।