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देश की अर्थव्यवस्था में बाहरी झटकों से उबरने की क्षमता

तमाम बाहरी चुनौतियों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था 6.5 फीसदी से 7.5 फीसदी की दर से बढ़ने की उम्मीद है और यह वृद्धि 7 फीसदी के आसपास रहेगी। बता रही हैं पूनम गुप्ता

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पूनम गुप्ता   
Last Updated- January 01, 2024 | 9:29 PM IST

चालू वित्त वर्ष की पहली छमाही के दौरान 7.7 प्रतिशत की मजबूत वृद्धि को देखते हुए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए पूरे साल के वृद्धि दर अनुमान को बढ़ाकर 7 प्रतिशत कर दिया है। बहुपक्षीय एजेंसियों और निजी क्षेत्र के पहले के अनुमान के मुताबिक वृद्धि दर अब तक 6.3 और 6.5 प्रतिशत के बीच थी और इसमें जल्द ही संशोधन किए जाने की संभावना है जो आरबीआई के अनुमानों के निकट होंगी।

बाहरी और आंतरिक चुनौतियों के बावजूद वृद्धि को बनाए रखने की भारतीय अर्थव्यवस्था की क्षमता क्या संदेश देती है? वस्तुओं और सेवाओं की वैश्विक मांग के अलावा, भारतीय अर्थव्यवस्था बड़े पैमाने पर पांच प्रमुख चुनौतियों से प्रभावित होती है, मसलन कम या अनियमित वर्षा, तेल की कीमतों में तेज वृद्धि, राजनीतिक या नीतिगत अनिश्चितता, वृहद अर्थव्यवस्था की अस्थिरता, जिसमें वित्तीय क्षेत्र में पैदा होने वाली कोई चुनौती शामिल है। इसके अलावा इनमें वैश्विक जोखिम से बचने के परिणामस्वरूप पूंजी प्रवाह की अचानक निकासी और विदेशी मुद्रा की लागत में वृद्धि भी शामिल है।

हालांकि भारतीय अर्थव्यवस्था इन सभी चुनौतियों का सामना करने के लिए अपेक्षाकृत अधिक सक्षम है। सबसे पहले, कृषि क्षेत्र वर्षा में नियमित रूप से दिखने वाली कमी या अनियमितता से कम प्रभावित होता है। इसकी वजह यह है कि फसलों में विविधता होती है और सिंचाई नेटवर्क में विस्तार के साथ ही मौसम की सटीक जानकारी देने वाला बेहतर तंत्र है जो किसी तरह की आपात स्थिति के लिए समय पर नीतिगत कदम उठाने की अनुमति देता है।

कहने का यह अर्थ नहीं है कि हमने जलवायु परिवर्तन या मौसम संबंधित घटनाओं की सभी चुनौतियों पर काबू पा लिया है, लेकिन बात बस इतनी है कि पहले की तरह झटके का सामना करने की हमारी क्षमता अधिक है और इसी वजह से हमारी कृषि वृद्धि, उत्पादकता से जुड़ी सक्षमता भी अधिक है।

दूसरी बात यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर तेल की कीमतों में तेजी का उतना असर नहीं होता है। सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद की प्रति इकाई तेल की खपत) में तेल का प्रभाव लगातार घट रहा है। यह रुझान बने रहने की संभावना है क्योंकि देश अक्षय ऊर्जा की दिशा में आगे बढ़ रहा है और आर्थिक संपन्नता बढ़ने के साथ ही अर्थव्यवस्था, सेवा क्षेत्र को ज्यादा तरजीह दे रही है ताकि डीजल और पेट्रोल पर आधारित गतिविधियां कम हो सके।

इसका प्रभाव न पड़ने का आंशिक कारण यह भी है कि पिछले पांच वर्षों में चालू खाते के घाटे को जीडीपी के 2 प्रतिशत से नीचे बनाए रखना संभव हुआ है और यही कारण है कि यह वैश्विक तेल की कीमतों के प्रभाव से अलग हो गया है। दिलचस्प यह है कि दुनिया भर में ऊर्जा के स्रोत के रूप में तेल की अहमियत घटने के साथ ही आने वाले वर्षों में इसकी कीमतों में तेजी आना कम हो सकता है।

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तीसरी बात यह है कि भारत का लोकतंत्र अब परिपक्व हो रहा है क्योंकि हाल के वर्षों में यहां चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से आयोजित कराए गए हैं और अब मतदाता भी निर्णायक जनादेश दे रहे हैं। हाल ही में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव संपन्न हुए और इसमें भी इसी रुझान की पुष्टि हुई कि अब त्रिशंकु संसद, त्रिशंकु विधानसभाओं या जटिल गठबंधनों के दिन लद गए हैं। इससे देश में राजनीतिक और नीतिगत स्थिरता की धारणा मजबूत हो रही है और इससे दीर्घकालिक निवेशकों के लिए अधिक अनुकूल माहौल बनेगा।

चौथा, विकास के लिए वृहद अर्थव्यवस्था में स्थिरता और एक सुरक्षित तथा कुशल वित्तीय क्षेत्र मायने रखता है। भारत ने दोनों मोर्चे पर अच्छा प्रदर्शन किया है। बैंकिंग क्षेत्र एक दशक से संकटग्रस्त बैलेंसशीट की छाया से पूरी तरह से उबर गया है। बैंकिंग नियामक, आरबीआई और सरकार की निगरानी के बीच इस क्षेत्र ने दो अंकों की ऋण वृद्धि हासिल कर आर्थिक वृद्धि को समर्थन दिया है। वित्तीय क्षेत्र के गैर-बैंकिंग क्षेत्र भी वर्ष 2019-20 के दौरान अनुभव किए गए संकट के छोटे दौर के बाद स्थिर हो गए हैं।

अब वृद्धि और जोखिम के प्रतिस्पर्धी उद्देश्यों में संतुलन लाने की आवश्यकता है और एक के लिए दूसरे के साथ समझौता नहीं किया जाना चाहिए। अर्थव्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण खंड उपभोक्ता वित्त है जो लगातार अधिक समृद्ध और समावेशी हो रहा है। जोखिम प्रबंधन के ठोस समाधान के तरीके तैयार करना जरूरी है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उपभोक्ता खर्च और निजी खपत की रफ्तार कम न हो और सुरक्षा को प्राथमिकता देते हुए वृद्धि में बाधा न पहुंचे।

आखिर में, अच्छे नीतिगत ढांचे के बावजूद, उभरती अर्थव्यवस्थाएं अब भी वैश्विक कारकों से प्रभावित होती हैं और जिन्हें वे नियंत्रित नहीं कर सकती हैं, इनमें बाहरी पूंजी प्रवाह से जुड़े जोखिम भी शामिल हैं। भारत को वर्ष 2021-22 के दौरान लगभग 40 अरब डॉलर के पोर्टफोलियो निवेश का नुकसान हुआ। पिछले अनुभवों का लाभ उठाते हुए और अपेक्षाकृत अनुकूल समय के दौरान किए गए उपायों के साथ ही आरबीआई और सरकार अब इन चुनौतियों का जवाब तुरंत देने के लिए तैयार है। इसने वास्तविक अर्थव्यवस्था को वैश्विक स्तर पर होने वाले ऐसे बदलावों के बाधाकारी प्रभावों से बचा लिया है।

अर्थव्यवस्था को हर तरह की चुनौतियों और चरम स्तर की घटनाओं से अछूता मानना सही नहीं है, चाहे वे अकेले आएं या एक साथ। इसका मतलब है कि बाहरी कारक अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकते हैं लेकिन अब अर्थव्यवस्था छोटे स्तर के झटके के लिए पहले की तुलना में अधिक मजबूती से टिकी रह सकती है।

जिन कारकों से अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ सकता है उनका सामना करने की क्षमता आने वाले वर्षों में और मजबूत होने की संभावना होगी क्योंकि अर्थव्यवस्था अधिक समृद्ध होगी। हालांकि फिर भी, नई चुनौतियां तो सामने आएंगी ही, उदाहरण के तौर पर अनिवार्य रूप से बढ़ती उम्र वाली आबादी, जलवायु से संबंधित घटनाएं, श्रम-उद्योगों में श्रम की जगह प्रौद्योगिकी और कौशल का बोलबाला बढ़ना आदि।

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इसके अलावा एक चुनौती यह भी है कि दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं बहुत अधिक कर्ज में डूबी हुई हैं और उन्हें अपने कर्ज में कमी करने की आवश्यकता है। भारत के लिए यह बेहतर होगा कि वह टिकाऊ विकास को गति देने पर ध्यान दे और साथ ही साथ बाहरी और आंतरिक स्तर के मौजूदा और उभरती चुनौतियों का सामना मजबूती से करता रहे।

अब सवाल यह है कि इस साल और अगले साल की विकास दर कैसी रह सकती है? पिछले आंकड़ों में दिखे रुझानों को देखते हुए लगता है कि इस साल जीडीपी वृद्धि 7 प्रतिशत से भी अधिक हो सकती है। ये रुझान कुछ इस तरह हैं, पहला, कोविड से पहले के दशक में वित्त वर्ष की दूसरी छमाही में वृद्धि दर पहली छमाही से औसतन केवल 0.5 प्रतिशत अंक ही कम रही।

दूसरा, लगभग 48 प्रतिशत आर्थिक गतिविधियां वर्ष की पहली छमाही के दौरान देखने को मिलीं जबकि शेष 52 प्रतिशत गतिविधियां दूसरी छमाही में देखने को मिलीं। इन दोनों बातों को इस तथ्य के साथ मिलाकर देखा जाए तो इस वर्ष के बाकी समय के दौरान कोई नई चुनौती या प्रतिकूल बाधाओं की संभावना नहीं दिखती है।
अर्थव्यवस्था बाहरी झटकों का सामना करने के लिए पहले से ज्यादा मजबूत है और अगर कुछ बड़ी समस्याएं एक साथ नहीं दिखेंगी तब अगले साल भारतीय अर्थव्यवस्था 6.5 प्रतिशत से 7.5 प्रतिशत की दर से बढ़ सकती है और 7 प्रतिशत की वृद्धि इस आधारभूत पृष्ठभूमि के अनुकूल है।

(लेखिका नैशनल काउंसिल ऑफ ऐप्लाइड इकनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) की महानिदेशक हैं और भारत के प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की सदस्य हैं। आयशा अहमद का भी इस लेख में योगदान है)

First Published : January 1, 2024 | 9:29 PM IST