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उच्च शिक्षा में संघर्ष या नई उम्मीदों का दौर?

Higher Education : उच्च शिक्षा प्रणाली की संभावनाओं को सार्थक बनाने के लिए जरूरी है नीतिगत हस्तक्षेप के जरिये अधिक हासिल करने की कवायद कम हो और इसकी विविधता पर जोर दिया जाए।

Last Updated- January 22, 2024 | 9:28 PM IST
Blue curriculum

भारत में उच्च शिक्षा का एक व्यापक तंत्र मौजूद है। करीब 4.2 करोड़ से अधिक नामांकन के साथ हमारे देश में उच्च शिक्षा हासिल करने वाले छात्रों की संख्या, दुनिया के तीन-चौथाई देशों की आबादी से भी अधिक है।

देश में हाल के वर्षों में भी हजारों इंजीनियरिंग कॉलेज और प्रबंधन संस्थान स्थापित हुए हैं जो कला और वाणिज्य के पुराने कॉलेजों के साथ मिलकर शिक्षा देते हैं।

भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली न केवल बड़ी है बल्कि विश्व में इसमें सबसे अधिक विविधता भी है। सार्वजनिक क्षेत्र में, पूरे देश में फैले केंद्रीय विश्वविद्यालय भी राज्य विश्वविद्यालयों के साथ मौजूद हैं।

आईआईएससी, आईआईटी, आईआईएसईआर और आईआईएम जैसे स्वायत्त संस्थान अलग-अलग संसदीय अधिनियमों के तहत संचालित होते हैं। वहीं मेडिकल कॉलेज, एनआईडी और एनआईएफटी शिक्षा मंत्रालय के दायरे से बाहर हैं। इसके अलावा, शिक्षा क्षेत्र में एक विशाल निजी व्यवस्था का तंत्र भी मौजूद है।

हजारों निजी (मुख्य रूप से व्यावसायिक) कॉलेज, सरकारी विश्वविद्यालयों से संबद्ध हैं। कुछ निजी संस्थान डीम्ड विश्वविद्यालयों में बदल गए हैं। हाल ही में, परोपकारिता के मकसद से की जाने वाली फंडिंग के तहत नए निजी विश्वविद्यालय केंद्र या राज्य विश्वविद्यालय अधिनियमों के तहत स्थापित किए गए हैं। इनमें से प्रत्येक का लक्ष्य एक बड़ा राष्ट्रीय विश्वविद्यालय बनना है।

नीति बनाते समय बड़ी और विविध उच्च शिक्षा प्रणाली की जरूरतों का ध्यान रखना चाहिए। इसमें गुणवत्ता एक प्रमुख चुनौती है जो पिछले 40 वर्षों में निजी व्यावसायिक शिक्षा में बड़ी वृद्धि का प्रत्यक्ष परिणाम है। कई दशकों से हमने इस तंत्र में गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए नियमन के प्रयास किए हैं जो सफल नहीं रहे हैं।

ऐसे में अच्छा होगा कि हम संस्थानों को खुद तय करने दें कि वे कौन का विषय पढ़ाएंगे, कितने छात्रों को दाखिला देंगे, क्या शुल्क लेंगे और कैसा पाठ्यक्रम अपनाएंगे?

राज्य को अपनी भूमिका, संस्थानों की गुणवत्ता के आकलन तक सीमित रखनी चाहिए और सरकारी तथा निजी दोनों क्षेत्रों में शोध की फंडिंग में वृद्धि करनी चाहिए। इसके साथ ही मानविकी तथा सामाजिक विज्ञान में निवेश बढ़ाना चाहिए। इतनी बड़ी और विविध प्रणाली के लिए यह जरूरी है कि राज्य की भूमिका कुछ विशिष्ट क्षेत्रों तक सीमित हो।

विश्वविद्यालयों से संबद्ध निजी एवं सरकारी व्यावसायिक कॉलेज

करीब 6,000 इंजीनियरिंग कॉलेज और 3,000 प्रबंधन संस्थान मुख्य रूप से राज्य सरकार के विश्वविद्यालयों के अंतर्गत संचालित होते हैं। उनकी गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए मूल्यांकन और प्रमाणन कार्यक्रम, अनिवार्य तौर पर लागू करने की आवश्यकता है जो सार्वजनिक हो।

इसके बाद, ये संस्थान बाजार पर निर्भर हो सकते हैं और छात्र तथा अभिभावक अपनी पसंद के आधार पर इन संस्थानों को चुन सकते हैं, जिससे यह तय होगा कि कौन से संस्थान बने रहेंगे या नहीं रहेंगे।

यहां महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने का एक ही विकल्प है कि वास्तव में कोई निर्णय न लिया जाए और विस्तार को सीमित कर गुणवत्ता सुधारने के प्रयास न किए जाएं। कॉलेजों को अपनी पसंद के क्षेत्रों, विषयों और छात्रों के साथ विस्तार का मौका दिया जाए ताकि वे एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करें।

राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान

आईआईटी, आईआईएससी, आईआईएम और एनआईडी को राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थानों के रूप में वर्गीकृत किया गया है और यह गर्व की बात है। लेकिन हमें उन्हें उसी रूप में देखना चाहिए जिस तरह हमने उन्हें राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थानों के रूप में वर्गीकृत किया है।

इसका मतलब यह है कि उन्हें अपना भविष्य बनाने के लिए जरूरी स्वायत्तता दी जाए। (यदि वे स्वायत्तता नहीं चाहते हैं तब भी इसे उन पर लागू कर दिया जाना चाहिए ताकि वे छात्रों, शिक्षकों और फंडिंग के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें)

इस सरकार ने 2017 में एक स्वागत योग्य कदम उठाया जब इसने आईआईएम को बोर्ड, अध्यक्ष और निदेशक के लिए अपनी नियुक्तियां खुद करने की स्वतंत्रता दी और इस तरह उन्हें स्वतंत्र रूप से अपने मामले का प्रबंधन करने की अनुमति मिली।

लेकिन पिछले महीने उस सुधार को पूरी तरह बदल दिया गया और नियुक्ति संबंधी सभी शक्तियां शिक्षा मंत्रालय के अधिकारियों के हाथों में वापस आ गईं। इस पर पुनर्विचार किए जाने की जरूरत है। संभावित अनियमितताओं के कुछ अलग उदाहरणों को अपवाद के रूप में देखा जाना चाहिए और पूरे तंत्र को प्रतिक्रियास्वरूप नियमन की जटिलता में नहीं फंसाना चाहिए।

सरकार सार्वजनिक संस्थानों में वित्तीय अनुपालन की जांच के लिए एक लोकपाल की नियुक्ति कर सकती है। धीरे-धीरे इन व्यावसायिक संस्थानों के परिचालन व्यय के लिए सरकारी वित्तीय राशि कम की जाए और केवल पूंजीगत व्यय में ही समर्थन दिया जाए। इससे भी बेहतर स्वायत्तता आएगी।

पूर्ण विश्वविद्यालय और मानविकी एवं सामाजिक विज्ञान व्यावसायिक क्षेत्रों पर अधिक ध्यान देने के कारण मानविकी और सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों की उपेक्षा हुई है। आज के दौर की कई जटिल समस्याओं के समाधान के लिए, जैसे नेट जीरो और सभी 1.4 अरब नागरिकों के वास्ते उचित स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के लिए तकनीकी और गैर-तकनीकी विषयों, दोनों का ज्ञान आवश्यक है।

ऐसे में उत्कृष्टता हासिल करने के लिए पूर्ण विश्वविद्यालयों को बढ़ावा देना महत्त्वपूर्ण है। इन विश्वविद्यालयों को स्थापित करने के लिए हमारे पास दो रास्ते हैं।

विश्व-स्तरीय संस्थान की सबसे बड़ी विशेषता होती है उनकी विभिन्न पैमाने पर उत्कृष्टता। लेकिन इस उत्कृष्टता को परिभाषित करना मुश्किल है। उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों के अध्यक्ष कहते हैं कि यह इन संस्थानों के वातावरण में ही मौजूद होता है।

जैसा कि मैंने पहले बताया, राष्ट्रीय महत्त्व के उन संस्थानों में ही यह उत्कृष्टता पाई जाती है। ऐसे संस्थान में जहां ऐसा वातावरण मौजूद नहीं है, वहां उत्कृष्टता की संस्कृति विकसित करना वास्तव में किसी उत्कृष्ट संस्थान में नए क्षेत्रों को बढ़ावा देने से कहीं अधिक कठिन कार्य है।

ऐसे में विश्व-स्तरीय विश्वविद्यालय बनाने का एक सीधा रास्ता यह होगा कि आईआईटी और आईआईएससी को इस दिशा में विकसित किया जाए जहां स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा, विज्ञान, इंजीनियरिंग, सामाजिक विज्ञान और मानविकी, सभी को समान महत्त्व मिले।

कुछ बेहतरीन आईआईटी इस दिशा में पहले से ही कार्य कर रहे हैं, लेकिन मानविकी और सामाजिक विज्ञान की प्रासंगिकता को प्रमुखता से बढ़ाया जाना चाहिए। यह अगले 20 वर्षों की एक सामूहिक परियोजना होनी चाहिए।

हाल ही में परोपकारिता से जुड़े निजी प्रयास के तहत भारत के उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव किए जा रहे हैं। अहमदाबाद विश्वविद्यालय, अशोक, क्रेया, शिव नादर, पलाक्ष और एक शैक्षणिक परियोजना जिससे मैं जुड़ा हूं, नयन्ता, ये सभी बेहतर परियोजनाएं हैं जिन्हें आगे बढ़ाया जाना चाहिए। राज्यों को इन विश्वविद्यालयों को प्रवेश, भर्ती और दी जाने वाली डिग्री से जुड़ी सभी पाबंदियों से मुक्त करके उन्हें प्रतिस्पर्धा करने का मौका देना चाहिए।

इन निजी पूंजी से किए जाने वाले परोपकारी प्रयासों को प्रयोग के लिए एक प्रयोगशाला बनने का मौका देना चाहिए जो भले ही बिना किसी नियमन के सफल हों या फिर विफल हो जाएं। वे सामूहिक रूप से हर साल हजारों शिक्षित स्नातकों की खेप तैयार करेंगे जिनकी हर साल हमें अपने बौद्धिक नेतृत्वकर्ता के रूप में आवश्यकता होगी।

शोध विश्वविद्यालय

हाल की एक महत्त्वपूर्ण पहल राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन (एनआरएफ) की स्थापना है। अगर इसे सही तरीके से लागू किया जाए तब एनआरएफ बड़े बदलाव वाला कदम साबित हो सकता है।

इसके लिए 50,000 करोड़ रुपये की राशि की आवश्यकता है। एनआरएफ का संचालन शिक्षाविदों और वैज्ञानिकों द्वारा किया जाना चाहिए, न कि नेताओं और अफसरशाहों के द्वारा।

इस शर्त को भी कमजोर नहीं बनाया जाना चाहिए कि फंडिंग वाले प्रत्येक प्रस्ताव में किसी सार्वजनिक या निजी संस्थान के एक शिक्षाविद को शामिल जरूर किया जाना चाहिए। हमारा लक्ष्य केवल अधिक वैज्ञानिक शोध करना नहीं है। गुणवत्ता के लिहाज से बेहतर स्नातक शिक्षा भी उतनी ही या उससे अधिक महत्त्वपूर्ण है।

(लेखक फोर्ब्स मार्शल के सह अध्यक्ष, सीआईआई के पूर्व अध्यक्ष और सेंटर फॉर टेक्नोलॉजी इनोवेशन ऐंड इकनॉमिक रिसर्च और अनंत ऐस्पन सेंटर के अध्यक्ष हैं)

First Published - January 22, 2024 | 9:28 PM IST

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