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मौजूदा दौर में सौ साल पहले आई महामारी की खबरों पर एक नजर

Last Updated- December 11, 2022 | 10:12 PM IST

हम एक के बाद एक कोविड-19 की लहरों का सामना कर रहे हैं, ऐसे में हमें ऐसे ही एक संक्रमण के बारे में अवश्य जानना चाहिए जिसने100 वर्ष पहले दुनिया को हिलाकर रख दिया था। नई दिल्ली के सबसे चर्चित पुस्तकालयों में से एक ने सन 1918 की गर्मियों के अखबारों पर नजर डालने का प्रयास किया है जब भारत में फ्लू का प्रसार हुआ था। नेहरू स्मृति संग्रहालय एवं पुस्तकालय की पहली मंजिल पर अंधेरे कमरे में माइक्रोफिल्म को पढऩे की मशीन पंक्तिबद्ध रखी हैं। वहां से इस बारे में पुष्ट समझ तैयार हुई कि फ्लू की शुरुआत कैसे हुई, इसके लक्षण क्या थे, उस समय क्या सलाह दी गई थी और समाचार पत्रों तथा अन्य स्थानों पर इसे किस प्रकार प्रकाशित किया गया था।
पहले तो अखबारों के पन्ने और तारीखें यूं ही गुजरते उनमें महामारी का कोई जिक्र नहीं था। इसके बाद अमृत बाजार पत्रिका (यह उन अखबारों में शामिल था जिन्हें पुस्तकालय ने स्पैनिश फ्लू की प्रासंगिक तारीखों के लिए रीस्टोर किया था) के 11 जुलाई, 1918 के अंक में अंदर के पृष्ठों पर एक छोटी सी खबर प्रकाशित हुई। खबर की सुर्खी में बगैर तवज्जो दिए लिखा गया था, ‘कलकत्ता में रहस्यमयी बीमारी की शुरुआत’। इस बीमारी के लक्षणों में सरदर्द, बुखार, थकान और भूख न लगना शामिल थे। रिपोर्ट में लिखा गया, ‘यह सरदर्द रोजमर्रा का सामान्य सरदर्द नहीं है बल्कि यह ऐसा है मानो कोई जहर धीरे-धीरे प्रवेश कर रहा हो।’ रिपोर्ट में कहा गया कि यह संक्रमण सरकारी कार्यालयों और बैंकों में फैल रहा है और यह एक पखवाड़ा पहले पहली बार सामने आया। जहां तक बंबई की बात थी इस ‘महामारी’ ने शहर के कामकाज को बुरी तरह अस्तव्यस्त कर दिया। समाचार पत्र ने कहा, ‘डाक घर, तार विभाग, कार्यालय, बैंक, कारखाने आदि सभी कर्मचारियों की कमी से बुरी तरह प्रभावित हैं।’ यह काफी कुछ वैसा ही है जैसा कि हम पिछले दो वर्षों से देख रहे हैं। शुरुआती दिनों में प्रशासनिक अमला बीमारी की गंभीरता का आकलन करने में नाकाम रहा। जुलाई 1918 में स्वास्थ्य बुलेटिनों पर आधारित एक रिपोर्ट में कहा गया, ‘बीमारी खतरनाक नहीं है, यदि तथ्यों पर ध्यान दिया जाए तो बंबई में पिछले महीने सामने आए हजारों मामलों में से केवल सात मामलों में इस बीमारी की वजह से मौत होने की बात कही जा रही है।’ परंतु 24 अक्टूबर,1918 को समाचार पत्र ने ‘इन्फ्लुएंजा इन बॉम्बे’ शीर्षक से प्रकाशित खबर में महामारी के बारे में भयभीत अंदाज में लिखा: ‘इन्फ्लूएंजा गांवों में डराने वाली प्रचंड गति से फैल रहा है…बड़े शहरों और कस्बों में रहने वाले लोग मौत के बढ़ते मामलों से चकित हैं और लोगों को बीमार पडऩे से बचाने के हरसंभव प्रयास किए जा रहे हैं… ग्रामीण इलाकों में तो हालात भयावह हो चुके हैं-गांवों में औसत मृत्यु दर कस्बों की तुलना में 10 से 20 गुना है।’ वह शायद इन्फ्लूएंजा की दूसरी लहर थी जिसे वार फीवर या स्पैनिश फ्लू के नाम से भी जाना जाता है।
खबरों के अलावा विज्ञापनों में भी वह समय दर्ज हुआ। द पायनियर में इन्फ्लूएंजा फैलने की खबरा शिमला डेटलाइन से प्रकाशित हुई थी। यह उस समय की बात है जब अक्टूबर 1918 में स्वास्थ्यरक्षा आयुक्त नॉर्मन व्हाइट दौरे पर थे। ठीक उसी समय अखबार में गरारे और टॉनिक के विज्ञापन भी खूब प्रकाशित हो रहे थे। आइग्लोडाइन भी ऐसा ही एक गरारा था जिसके विज्ञापन में कहा गया था, ‘इस गरारे की मदद से इन्फ्लूएंजा से बचा जा सकता है…इसे रोज इस्तेमाल करें, इसे अक्सर इस्तेमाल करें और इसे उदारतापूर्वक इस्तेमाल करें’। इसका प्रकाशन 1919 तक चलता रहा जिसमें कहा जाता कि आइग्लोडाइन अनमोल है, कोई घर ऐसा नहीं होना चाहिए जहां यह नहीं हो।
देश में इस घातक फ्लू की पहचान सबसे पहले जून 2018 में हुई थी लेकिन स्वास्थ्यरक्षा  आयुक्त ने अक्टूबर में औपचारिक अधिसूचना जारी करके इसे महामारी घोषित किया और कहा कि यह वैसा ही इन्फ्लूएंजा है जैसा कि सन 1690 में देखा गया था। नोट में कहा गया, ‘यह समझाने के लिए कोई सूचना उपलब्ध नहीं है कि यह बीमारी जो आमतौर पर अनुपस्थित रहती है, वह समय-समय पर ऐसे हिंसात्मक स्वरूप में क्यों फैलती है जैसा कि इस समय भारत में दिखाई दे रहा है।’ नोट में संकेत किया गया है कि यूरोपीय शोधकर्ता इस विषय पर अपेक्षित ध्यान दे रहे थे और भारत में भी जांचकर्ता इसे लेकर काम कर रहे थे।
उस समय कुल आंकड़ों की अद्यतन जानकारी की कोई व्यवस्था नहीं थी और न ही मरने वालों के आंकड़ों का वैज्ञानिक ढंग से हिसाब-किताब रखा जाता था लेकिन मशविरे उस काल में भी एकदम वर्तमान जैसे ही होते थे। उस समय भी इन्हीं नियमों का पालन होता था: अनावश्यक बाहर न निकलें और थकें नहीं, ज्यादा भीड़भाड़ वाली ट्राम-कार आदि में सफर न करें, भीड़-भाड़ वाले सार्वजनिक स्थानों पर न जाएं, बीमारी के लक्षणों की अनदेखी न करें, परिवार में बीमार पडऩे वाले को अलग-थलग कर दें, उसके थूक-लार आदि को विसंक्रमित करें और रूमाल को उबालें, दरवाजे और खिड़कियां खोल कर सोएं।
उस समय के समाचार पत्रों में महामारी की खबर पहले पन्ने की सुर्खियों में नहीं दिखी, हालांकि अंदर के पृष्ठों पर लॉकडाउन तथा अनुमानित नुकसान के ब्योरे दिए गए। अक्टूबर 1918 में कानपुर डेटलाइन से प्रकाशित एक खबर में कहा गया कि शहर में हर रोज 400 मौतें हो रही हैं। खबर में कहा गया, ‘स्कूल और कॉलेज बंद कर दिए गए हैं। सभी प्रमुख चिकित्सक संक्रमित हैं। कैंट के अधिकारियों ने एक मोटरकार को चलती फिरती डिस्पेंसरी में बदला है जो बीमारों के घर जाकर उनका उपचार करती है।’
समाचार पत्र के मुताबिक दुनिया के अधिकांश हिस्सों में इन्फ्लूएंजा चर्चा का अहम हिस्सा था। द पायनियर की एक अंतरराष्ट्रीय खबर में छपा कि सिडनी के लोग अनिवार्य तौर पर मास्क लगाने के नियम से नाखुश हैं और वे सिनेमाघरों और रेस्तरां के बंद होने से भी नाराज हैं। यह आपको कुछ सुनी-सुनी सी बात नहीं लगती?

First Published - January 11, 2022 | 11:40 PM IST

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