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उच्च लागत और पेचीदा नियमों से जूझता देश, वैश्विक विनिर्माण का केंद्र कैसे बने भारत?

भारत में कर्ज पर औसतन 9-10 फीसदी की दर से ब्याज चुकाना पड़ता है मगर चीन में ब्याज दर 4-5 फीसदी ही है। लागत में यह अंतर उत्पाद को महंगा बनाता है।

Last Updated- October 03, 2024 | 9:01 PM IST
Editorial: Challenges of India's manufacturing sector, over-regulation and the trap of small plants भारत के विनिर्माण क्षेत्र की चुनौतियां, अति नियमन और छोटे संयंत्रों का जाल

विनिर्माण और व्यापार एक दूसरे को सहारा देते हैं। गुणवत्ता भरे विनिर्माण से निर्यात बढ़ता है और वैश्विक बाजार तक पहुंच से विनिर्माताओं को आगे बढ़ने में मदद मिलती है। देश का व्यापार विनिर्मित वस्तुओं पर बहुत अधिक निर्भर है और कुल वस्तु निर्यात में 75 फीसदी हिस्सेदारी इन्हीं की है।

2014 से 2024 तक के दशक में विनिर्माण तथा निर्यात के मामले में देश का प्रदर्शन दिलचस्प तरीके से बताता है कि आर्थिक वृद्धि के दोनों अहम घटकों ने कैसा प्रदर्शन किया। ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के 10 वर्ष पूरे होने पर सरकार ने कई उपलब्धियों का उल्लेख किया है। उदाहरण के लिए देश में इस्तेमाल हो रहे 99 फीसदी मोबाइल फोन यहीं बनाए जाते हैं। भारत अब विनिर्मित स्टील का विशुद्ध निर्यातक है और नवीकरणीय ऊर्जा का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक भी है।

नवीकरणीय ऊर्जा की उत्पादन क्षमता 400 फीसदी बढ़ी है। उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन की योजना (पीएलआई) ने 1.46 लाख करोड़ रुपये का निवेश जुटाया है। इसके जरिये 12 लाख करोड़ रुपये के उत्पाद तैयार हुए हैं और 9 लाख रोजगार भी आए हैं। पिछले दशक में विनिर्माण में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) 69 फीसदी बढ़कर 165.1 अरब डॉलर हो गया।

किंतु इन सुर्खियों के परे अर्थव्यवस्था पर व्यापक नजर डालने पर मिले-जुले नतीजे दिखते हैं। वित्त वर्ष 2014 में देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 2,010 अरब डॉलर था और वस्तु निर्यात 314 अरब डॉलर। जीडीपी में विनिर्माण की हिस्सेदारी 15 फीसदी थी। वित्त वर्ष 2024 तक जीडीपी 3,900 अरब डॉलर हो गया और निर्यात 437 अरब डॉलर पर पहुंच गया, लेकिन जीडीपी में विनिर्माण की हिस्सेदारी कम होकर 13 फीसदी रह गई।

दोनों वर्षों में देश के व्यापार में विनिर्मित वस्तुओं की हिस्सेदारी 75 फीसदी रही मगर विनिर्माण जीडीपी की तुलना में विनिर्माण निर्यात की हिस्सेदारी वित्त वर्ष 2024 में 64.6 फीसदी रह गई, जो वित्त वर्ष 2014 में 78.1 फीसदी थी। इससे दोहरी चुनौती का पता चलता है: विनिर्माण की घटती भूमिका और निर्यात में उसका कम होता योगदान। ये गहरी चुनौतियां हैं, जिन पर तत्काल हरकत में आने की जरूरत है। किंतु इसके अलावा भी कुछ बड़ी चुनौतियां इस प्रकार हैं।

कच्चे माल की अधिक लागत: चीन की तुलना में भारतीय विनिर्माताओं को कच्चे माल, ऊर्जा और कर्ज की अधिक लागत चुकानी पड़ती है। कंपनियों को अक्सर कच्चे माल का आयात करना पड़ता है, जिस पर भारी शुल्क देना होता है। मगर चीन को सस्ते स्थानीय उत्पादन और एकीकृत मूल्य श्रृंखला का लाभ मिलता है। भारत में औद्योगिक बिजली 0.08 से 0.10 डॉलर प्रति किलोवॉट घंटा या प्रति यूनिट पड़ती है जबकि चीन में उसकी कीमत यह 0.06 से 0.08 डॉलर प्रति यूनिट ही है।

भारत में कर्ज पर औसतन 9-10 फीसदी की दर से ब्याज चुकाना पड़ता है मगर चीन में ब्याज दर 4-5 फीसदी ही है। लागत में यह अंतर उत्पाद को महंगा बनाता है। उदाहरण के लिए भारत में सोलर सेल बनाने के मुकाबले चीन से उनका आयात करना 40 फीसदी तक सस्ता पड़ता है। ऊंची लागत निर्यात पर असर डालती है और लोगों को विनिर्माण में उतरने से रोकती है।

जटिल श्रम कानून: इनके कारण विनिर्माताओं को कारोबार बढ़ाने में कठिनाई होती है। दुनिया भर में व्यापार बड़ी कंपनियों के पक्ष में होता है मगर भारत में श्रम कानून 300 से अधिक कर्मचारियों वाली कंपनियों को छंटनी नहीं करने देते। सैमसंग के श्रीपेरंबदूर कारखाने में हड़ताल जौसी घटनाएं बताती हैं कि नियमों का पालन करने पर भी कारोबारों को किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसके विपरीत चीन, वियतनाम और बांग्लादेश में अधिक लचीलापन नजर आता है, जिससे वहां की कंपनियां भारतीय कंपनियों के मुकाबले आसानी से अपना कारोबार बढ़ा लेती हैं।

लॉजिस्टिक्स का ऊंचा खर्च: भारतीय कारोबारों के 90-95 फीसदी माल की आवाजाही विदेशी शिपिंग कंपनियों के भरोसे है। इससे माल भाड़े पर उनका खर्च बढ़ जाता है और वे यह भी तय नहीं कर पाते कि माल कब रवाना होगा। हमारा 25 फीसदी कार्गो कोलंबो और सिंगापुर जैसी जगहों से होकर जाता है क्योंकि ज्यादातर भारतीय बंदरगाहों पर पानी इतना गहरा नहीं है कि बड़े जहाज खड़े हो सकें। इससे समय और लागत दोनों बढ़ जाते हैं। चीन में बने कंटेनरों पर निर्भरता से आपूर्ति बिगड़ने का डर रहता है और देश के भीतर माल ढुलाई सड़क परिवहन और कस्टम मंजूरी में देर के कारण महंगी पड़ती है।

इन चुनौतियों के कारण देश में विनिर्माण और खास तौर पर इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र पूरी तरह उत्पादन करने के बजाय असेंबलिंग पर जोर देता है। उदाहरण के लिए भारत में बनने वाले महंगे स्मार्टफोन में लगने वाले 90 फीसदी तक पुर्जे विदेश से आते हैं। ऊंची लागत और कारोबारी सुगमता की कमी भी परिधान, समुद्री उत्पादों और रत्नाभूषण जैसे उन उत्पादों के निर्यात को नुकसान पहुंचाती है, जिनमें श्रम का ज्यादा इस्तेमाल होता है। इन सभी वस्तुओं का निर्यात पिछले एक दशक में कम हुआ है।

भारत को आगे चलकर अपनी छवि ऊंची लागत और पेचीदा नियमों वाले देश से बदलकर ऊंचे मूल्य वाले सामान और सेवाओं के किफायती उत्पादक की बनानी होगी। इसके लिए व्यवस्था में बदलाव करने होंगे। कच्चे माल और ऊर्जा की लागत कम करनी होगी, श्रम कानूनों को आधुनिक बनाना होगा और विनिर्माण क्षमता बढ़ानी होगी। आइए कुछ ऐसे सुधारों की बात करते हैं जिन्हें तत्काल लागू करना होगा।

कच्चे माल की लागत कम करने और आपूर्ति बढ़ाने के लिए भारत को ‘की स्टार्टिंग मटीरियल्स’ यानी केएसएम पर लगने वाले आयात शुल्क और एंटी डंपिंग शुल्क पर दोबारा विचार करना होगा। कपड़ा, रसायन और स्टील आदि क्षेत्रों में सबसे अधिक केएसएम तैयार कर रही कई बड़ी कंपनियों को ऊंचे आयात शुल्क की आड़ मिल जाती है। मगर इससे उन्हें इस्तेमाल करने वाले उद्योगों की लागत बढ़ जाती है, उनके उत्पाद महंगे हो जाते हैं और निर्यात की होड़ में टिक नहीं पाते। महंगा देसी माल खरीदने पर मजबूर उपयोगकर्ता उद्योगों के सामने तैयार माल पर कम आयात शुल्क की चुनौती भी होती है, जिससे देसी-विदेशी बाजार में उन्हें नुकसान होता है।

अहम क्षेत्रों में बड़ी वैश्विक कंपनियों को आकर्षित करने का हर संभव प्रयास करना चाहिए क्योंकि वे कारोबार को तेजी से बढ़ा सकती हैं। हमने देखा है कि मारुति और सुजूकी के साझे उपक्रम ने कैसे देश के वाहन क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ाई है या कैसे ऐपल ने तीन साल में ही 10 अरब डॉलर से ज्यादा का निर्यात कर दिया है। बिना कागजी झंझट के एक ही जगह सभी मंजूरी देने वाला ‘नैशनल ट्रेड नेटवर्क’ स्थापित हो जाए तो छोटे कारोबारी नियामक द्वारा मांगे जाने वाले सभी दस्तावेज ऑनलाइन ही दाखिल कर देंगे।

यह पोर्टल हजारों सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रमों को निर्यातक बनने में मदद करेगा। अच्छे उत्पाद बनाना ही काफी नहीं है। हमें ऐसी नीतियां चाहिए, जो किफायती और उत्पाद पर केंद्रित आपूर्ति श्रृंखला बनाएं, जिनसे कच्चा माल हासिल करना, उत्पादन करना, माल की आवाजाही करना और सीमा शुल्क मंजूरी मिलना सुगम हो जाए। फिलहाल सरकार के पास यह क्षमता हासिल करने की विशेषज्ञता ही नहीं है।

आखिर में हमें आत्ममंथन और सुधार करना होगा। हमें उन वैश्विक सलाहकारों से बचना चाहिए जो भारत को 50 लाख करोड़ या 100 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना दिखा रहे हैं, जबकि हमारी प्रति व्यक्ति आय अब भी 3,000 डॉलर से कम है। ऐसे वादों के पीछे अक्सर कोई स्वार्थ छिपा होता है। चीन खामोशी के साथ निर्यात, तकनीक और विनिर्माण के क्षेत्र में अगुआ बन जाता है। तंग श्याओफिंग ने कहा था, ‘अपनी ताकत छिपाकर रखो और अपना वक्त आने की प्रतीक्षा करो।’ भारत को भी यही करना होगा।

(लेखक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनीशिएटिव के संस्थापक हैं)

First Published - October 3, 2024 | 9:01 PM IST

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