अनिल विश्वास (Anil Biswas) की 20वीं पुण्यतिथि
(7 जुलाई 1914 – 31 मई 2003)
हिंदी सिने संगीत के शुरुआती दौर के सबसे सुरीले, प्रयोगधर्मी और लोकप्रिय संगीतकारों (composers) की बात चले तो अनिल विश्वास (Anil Biswas) का नाम बहुत जल्द ज़ुबान पर आ जाता है। तिमिर बरन, पंकज मलिक, रायचंद बोराल, उस्ताद झंडे ख़ान, रफीक़ गजनवी, सरस्वती देवी, मास्टर ग़ुलाम हैदर, खेमचंद प्रकाश, नौशाद अली जैसे उसी दौर के अन्य महान संगीतकारों के साथ मिलकर इन्होंने फ़िल्मों में पार्श्व गायन (playback singing) की न सिर्फ़ बुनियाद रखी बल्कि उसे काफ़ी हद तक संवारा भी। फ़िल्म संगीत में आर्केस्ट्रा का प्रभावी इस्तेमाल शुरू करने का श्रेय अनिल दा को ही जाता है।
इसके अलावा हार्मनी, वेस्टर्न सिंफनी और बंगाल की विविधता भरी लोक गायिकी ख़ासकर बाउल, भटियाली, कीर्तन के साथ रवींद्र संगीत का इन्होंने फ़िल्म संगीत में बख़ूबी इस्तेमाल किया। बंगाल के अलावा देश के अन्य इलाकों के लोक संगीत की भी इनको बेहतरीन समझ थी, जिसकी सोंधी महक इनकी संगीत रचनाओं में मिलती है। दूसरे देशों के लोक संगीत से भी प्रेरणा लेने में उन्होंने कभी गुरेज़ नहीं किया। तबला, ढोलक… जैसे ताल वाद्यों को बजाने में ये पारंगत थे, इसलिए इनकी फ़िल्मी रचनाओं में विभिन्न तालों का विलक्षण प्रयोग देखने को मिलता है।
अनिल विश्वास (Anil Biswas) अपनी युवावस्था में स्वतंत्रता आंदोलन की क्रांतिकारी गतिविधियों से भी सक्रिय रूप से जुड़े थे, जिसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा। इस वजह से वह राजनीतिक और वैचारिक रूप से भी काफ़ी सजग थे। यही सजगता उनकी फ़िल्मी रचनाओं में भी दिखती है, ख़ासकर जब वह कोरस रचते हैं। हिंदी फ़िल्मों में प्रभावकारी कोरस रचने की शुरुआत इन्होंने ही की। काउंटर मेलडी को भी असरदार और वैविध्यपूर्ण बनाने का श्रेय अनिल दा को ही है।
यह कहने में संकोच नहीं होगा कि 40 के दशक और 50 के दशक की शुरुआती वर्षों में अनिल विश्वास के संगीत में सबसे ज्यादा विविधता थी। संगीत रचना के लिहाज से भी अनिल दा का यह सबसे सुनहरा दौर था।
शास्त्रीय संगीत के साथ-साथ उपशास्त्रीय संगीत मसलन ग़ज़ल, ठुमरी, दादरा, टप्पा, कजरी, चैती, होरी ….. वगैरह की भी इनको काफ़ी समझ थी। हिंदी फ़िल्मों में ग़ज़ल को स्थापित करने का शुरुआती श्रेय भी इन्हीं को जाता है, जिसको मदन मोहन ने बाद में उरूज़ पर पहुंचा दिया।
मलिका-ए-ग़ज़ल बेग़म अख़्तर (Begum Akhtar) की लासानी आवाज़ का भी अनिल दा ने फ़िल्मों में इस्तेमाल किया। निर्देशक महबूब ख़ान (Mehboob Khan) की फ़िल्म रोटी 1942 में बेग़म अख़्तर ने न सिर्फ़ अख्तरी फैजाबाई के नाम से गाया था बल्कि इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभा रहे चंद्रमोहन, सितारा देवी के साथ वह सह-भूमिका में भी थी। इस फ़िल्म के लिए बेग़म अख़्तर की आवाज़ में 6 ग़ज़ल रिकॉर्ड की गई थीं मगर विवादों की वजह से तीन ग़ज़ल फ़िल्म से हटा दी गईं। हालांकि ग्रामोफ़ोन कंपनी के रिकॉर्ड पर सारी ग़ज़लें उपलब्ध हैं। उन्हीं हटाई गई ग़ज़लों में से एक आरज़ू लखनवी (Arzoo Lakhnavi) की लिखी – वो हंस रहे हैं आह किए जा रहा हूं मैं …. और बहज़ाद लखनवी (Behzad Lakhnavi) की लिखी- रहने लगा है दिल में अंधेरा तेरे बग़ैर ….. को सुनिए और और फिर देखिए ग़ज़लों की जो धुन अनिल दा ने रची हैं, वे कितनी पुरकशिश और ग़ज़ल के माफ़िक हैं। साथ ही बेग़म अख़्तर की बेमिसाल अदायगी और उनकी आवाज़ में हरकत के असर को भी आंख मूंदकर महसूस करते जाइए। इन ग़ज़लों को सुनने के बाद आपको भरोसा नहीं होगा कि बंगाली पृष्ठभूमि से आया संगीतकार ग़ज़ल के लिए इतनी उम्दा धुन भी रच सकता है।
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महबूब ख़ान (Mehboob Khan) के निर्देशन में अनिल दा के संगीत से सजी और भी कई यादगार फिल्में आई मसलन जागीरदार, औरत, अलीबाबा, पूजा, बहन, रोटी …. वगैरह। महबूब ख़ान को फ़िल्म औरत 1940 की कहानी इतनी पसंद थी कि उन्होंने 1957 में एक बार फिर इसी विषय पर मदर इंडिया फ़िल्म बना दी। महबूब ख़ान और अनिल विश्वास की आपस में इतनी छनती थी कि दोनों एक दूसरे को ‘बंगाली’ और ‘मवाली’ कहकर बुलाते थे।
लेकिन जिस फ़िल्म ने अनिल विश्वास (Anil Biswas) को सफलता के शिखर तक पहुंचाया वह थी 1943 में आई बॉम्बे टॉकीज़ की क़िस्मत। इस फ़िल्म के ज़्यादातर गीत उस समय काफ़ी लोकप्रिय हुए थे। क़िस्मत भारतीय सिनेमा के इतिहास की पहली ब्लॉकबस्टर फ़िल्म थी। इस फ़िल्म ने उस समय 1 करोड़ रुपये से ऊपर की कमाई की थी। बाद में यह रिकॉर्ड 1949 में आई बरसात ने तोड़ा। क़िस्मत का जो गीत सबसे लोकप्रिय हुआ वह था कवि प्रदीप लिखित – आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है ….। हिंदी सिनेमा का यह पहला संपूर्ण कोरस था। बाकी गीत भी ख़ासे लोकप्रिय हुए मसलन – अमीरबाई कर्नाटकी की आवाज़ में – अब तेरे सिवा कौन मेरा कृष्ण कन्हैया ….., घर घर में दिवाली है…., अमीरबाई कर्नाटकी और अशोक कुमार का डुएट (युगल गीत) – धीरे धीरे आ रे बादल….., अनिल दा की बहन पारुल घोष का गाया – पपीहा रे मेरे पिया से कहियो ……।
बॉम्बे टॉकीज़ की कई और फ़िल्मों में भी उन्होंने संगीत दिया, जिनमें दिलीप कुमार (Dilip Kumar) की पहली फ़िल्म ‘ज्वार भाटा’ भी शामिल है।
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अब 1945 में आई मोतीलाल (Motilal) अभिनीत फ़िल्म ‘पहली नजर’ की बात करते हैं । इस फ़िल्म में अनिल दा ने हिंदी फ़िल्मों के महान गायक मुकेश चंद्र माथुर यानी मुकेश (Mukesh) को पहली बार गाने का मौका दिया। बतौर गायक मुकेश का पहला हिंदी फ़िल्मी गीत था राग दरबारी पर आधारित- दिल जलता है तो जलने दे ….। अनिल दा ने इस गीत के दूसरे अंतरे में जिस तरह दरबारी की चाल बदली है, वह रागों में उनकी प्रयोगधर्मिता की बेहतरीन मिसाल है। इस गीत ने मुकेश को न सिर्फ़ ब्रेक दिया बल्कि इसकी कामयाबी से उन्हें हिंदी फ़िल्मों में बतौर गायक पहचान भी मिली। हालांकि इस गीत में मुकेश पर पूरी तरह कुंदन लाल सहगल की छाप नज़र आती है मगर अनिल दा ने ही उन्हें अपनी मौलिक पहचान बनाने के लिए प्रेरित किया, जिसमें मुकेश पूरी तरह से कामयाब भी हुए।
1948 में आई फ़िल्म अनोखा प्यार में दिलीप कुमार, नलिनी जयवंत और नरगिस की मुख्य भूमिकाएं थीं। यही वह साल था, जब हिंदी फ़िल्मों की सबसे सुरीली गायिका लता मंगेशकर (Lata Mangeshkar) की प्रतिभा के कायल आम और ख़ास दोनों हुए। लेकिन इस प्रतिभा को निखारकर लोगों तक पहुंचाने का श्रेय इसी साल आई जिन तीन फ़िल्मों और संगीतकारों को जाता है, वे थीं – मास्टर ग़ुलाम हैदर की मजबूर, खेमचंद प्रकाश की ज़िद्दी और अनिल विश्वास की अनोखा प्यार। अनोखा प्यार के सारे गीत उस समय बेहद लोकप्रिय हुए थे। लेकिन लता की गाई दो ग़ज़ल… मेरे लिए वो ग़म ए इंतज़ार छोड़ गए….. और एक (इक) दिल का लगाना बाकी था ….वाकई अनिल दा की ऐसी बेनज़ीर रचनाएं हैं, जिन्होंने लता को अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने का मौका दिया। इसी फ़िल्म में लता का गाया एक और गीत – याद रखना चांद तारों भी काफ़ी मशहूर हुआ था।
अनिल विश्वास के संगीत निर्देशन में 1949 में आई फ़िल्म लाडली भी लता के करियर की यादगार फ़िल्म है, जिसका नग़मा तुम्हारे बुलाने को जी चाहता है….. लता के चुनिंदा बेहतरीन गीतों में है।
इसके ठीक अगले वर्ष यानी 1950 में आई थी फ़िल्म आरज़ू। दिलीप कुमार अभिनीत इस फ़िल्म में अनिल विश्वास ने दो पार्श्वगायकों को मौका दिया था। एक थे शहंशाह-ए-ग़ज़ल तलत महमूद (Talat Mahmood) और दूसरी सुधा मल्होत्रा (Sudha Malhotra)। ग़ालिब की ग़ज़ल- रहिए अब ऐसी जगह चलकर जहां कोई न हो… – का असर लिए मजरूह सुल्तानपुरी के बोल – ए दिल मुझे ऐसी जगह ले चल से पार्श्व गायक के रूप में तलत साहब का सफ़र परवान चढ़ा। सुधा मल्होत्रा ने इस फ़िल्म में अपना पहला गीत गाया – मिला गए नैन …..। उस समय सुधा मल्होत्रा की उम्र 14 साल से भी कम थी। इस फ़िल्म में लता के गाए सभी 5 गीत भी बेहद लोकप्रिय हुए। लेकिन कहां तक हम उठाएं ग़म …. का असर सबसे जुदा है।
इसी वर्ष अनिल दा की एक और फ़िल्म लाजवाब आई। इसमें मुकेश का गाया गीत – ज़माने का दस्तूर है ये पुराना…. और लता की आवाज़ से मुअत्तर – आए थे धड़कन लेकर दिल में…., इस हंसती गाती दुनिया में क्या ….. हिंदी फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने के अनमोल नगीने हैं।
अनिल विश्वास के संगीत से सजी कुछ और फ़िल्मों का ज़िक्र ज़रूरी है। 1951 में आई दिलीप कुमार और मधुबाला अभिनीत तराना में तलत महमूद और लता का डुएट – सीने में सुलगते हैं अरमां ….एक उदात्त संगीत रचना है। इसी फ़िल्म में लता का गाया- वो दिन कहां गए बता…, याद रखना चांद तारों इस सुहानी रात को…, तलत की गाई ग़ज़ल – एक मैं हूं एक मेरी बेकसी की शाम है…. भी लाजवाब हैं।
इसी वर्ष अनिल दा के संगीत निर्देशन में एक और फ़िल्म आई थी – देव आनंद, मधुबाला और प्रेमनाथ अभिनीत आराम। इस फ़िल्म में लता का गाया – बलमा जा जा …., मिल मिल के बिछड़ गए नैन…., तलत का गाया- शुक्रिया ऐ प्यार तेरा शुक्रिया और मुकेश की गाई ग़ज़ल – ए जाने ज़िगर….. आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं।
1952 में आई फ़िल्म दोराहा में साहिर लुधियानवी (Sahir Ludhianvi) की ग़ज़ल – मोहब्बत तर्क की मैंने गरेबां सी लिया मैंने… अनिल दा की जादुई संगीत रचना के साथ तलत की अप्रतिम अदायगी की एक और नायाब मिसाल है।
इसी वर्ष अनिल विश्वास के संगीत निर्देशन में आई थी फ़िल्म आकाश। इस फिल्म के लिए लता के गाए दो उदासी भरे गीत – अब इस मर मर के जीने से … और सो गई चांदनी …. की संगीत रचना का माधुर्य देखते ही बनता है।
हिंदी फ़िल्मों में पहली बार रागमाला (Raagmala) का इस्तेमाल अनिल विश्वास ने ही 1953 में आई फ़िल्म ‘हमदर्द’ में किया। चार अलग-अलग रागों में निबद्व इस रागमाला – ऋतु आए ऋतु जाए ….., को लता मंगेशकर और मन्ना डे ने स्वर दिया था।
इसी साल किशोर कुमार (Kishore Kumar) अभिनीत फ़िल्म फ़रेब आई, जिसमें किशोर का सोलो – हुस्न भी है उदास उदास … अनिल दा की अनूठी संगीत रचना है। लता और किशोर का गाया डुएट- आ मोहब्बत की बस्ती बसाएंगे हम …… प्यार के प्लेटोनिक रूप की प्रशांतता का अहसास करा जाता है।
1954 की फ़िल्म वारिस में सुरैया (Suraiya) और तलत का डुएट – राही मतवाले….. रवींद्र संगीत पर आधारित अनोखी द्रुत संगीत रचना है, जिसकी अन्यत्र मिसाल नहीं।
अनिल दा ने एक ताल में निबद्ध एक ऐसी शानदार ग़ज़ल दी, जिसे उनकी सबसे उम्दा रचना मानने में गुरेज़ नहीं होगा। 1957 में आई फ़िल्म ‘जलती निशानी’ के लिए इसे सुर साम्राज्ञी लता ने गाया था और ग़ज़ल के बोल थे — रूठ के तुम तो चल दिए …। इसे लिखा था महान गीतकार कमर जलालाबादी (Qamar Jalalabadi) ने।
ठीक इसके अगले वर्ष आई फ़िल्म संस्कार में आशा भोसले (Asha Bhosle) के गाए गीत – दिल शाम से डूबा जाता है ….. को भला कौन भूल सकता है।
अनिल दा ने ख़्वाजा अहमद अब्बास (Khwaja Ahmad Abbas) के साथ भी राही, परदेसी और चार दिल चार राहें जैसी उल्लेखनीय फिल्में की।
1965 में आई छोटी छोटी बातें बतौर संगीत निर्देशक अनिल विश्वास की अंतिम फ़िल्म थी। महान अभिनेता मोतीलाल की भी यह बतौर निर्माता, निर्देशक पहली और आख़िरी फ़िल्म थी। यह फ़िल्म रिलीज़ होने से पहले ही मोतीलाल का निधन हो गया। फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर फ़्लॉप साबित हुई लेकिन इस फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। फ़िल्म में महान गीतकार शैलेंद्र के लिखे सभी गीत काफ़ी भावपूर्ण हैं मसलन – मुकेश की आवाज़ में- ज़िंदगी ख़्वाब है, था हमें भी पता….., ज़िंदगी का अजब फ़साना है …..।
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और अंत में इसी फ़िल्म की मीना कपूर (अनिल दा की धर्मपत्नी) की गाई ग़ज़ल – कुछ और ज़माना कहता है कुछ और है ज़िद मेरे दिल की … जिसे हम न सिर्फ़ अनिल विश्वास का बल्कि मोतीलाल और शैलेंद्र का भी स्वान सॉन्ग (swan song) यानी विदाई गीत कह सकते हैं।
कुछ और ज़माना कहता है कुछ और है ज़िद मेरे दिल की
मैं बात ज़माने की मानूं या बात सुनूं अपने दिल की
कुछ और ज़माना कहता है………
दुनिया ने हमें बे-रहमी से ठुकरा जो दिया अच्छा ही किया
नादां हम समझे बैठे थे निभती है यहां दिल से दिल की
कुछ और ज़माना कहता है ………….