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राष्ट्र की बात: गाजा में युद्ध से परे शांति की संभावना

हमास के हिंसक हमले के बाद उत्पन्न भूराजनीतिक संकट को एक सप्ताह का समय बीत चुका है और हम इसे तीन पहलुओं में बांट कर देख सकते हैं।

Last Updated- October 15, 2023 | 11:32 PM IST
Israel-Hamas attack

जहां बहुत मामूली क्षमता से काम हो सकता था वहां इस कदर शक्ति प्रदर्शन करने का बेंजामिन नेतन्याहू का रवैया विवेकसम्मत नहीं है। मृत शिशुओं की तस्वीरों से पटी इस जंग में यह सवाल बेमानी हो जाएगा कि वास्तविक पी​ड़ित कौन है।

हमास के हिंसक हमले के बाद उत्पन्न भूराजनीतिक संकट को एक सप्ताह का समय बीत चुका है और हम इसे तीन पहलुओं में बांट कर देख सकते हैं। पहला, जैसी कि आप उम्मीद करेंगे, यह बहस कि इसे सही ढंग से कैसे व्याख्यायित की जाए, खासकर यह देखते हुए कि बीबीसी और उसके कनाडाई संस्करण सीबीसी में चलने वाली बहसों को लेकर हुए विवाद के बीच जहां कहा जा रहा है कि हमास को आतंकवादी न कहा जाए।

हमने दुनिया भर में दो तरह की प्रतिक्रिया देखी है। पहली प्रतिक्रिया में इन हमलों को आतंकवाद बताकर इनकी आलोचना की गई और कहा गया कि इजरायल को अपना बचाव करने का हक है। पश्चिम में इजरायल के दोस्तों और पश्चिमी गठबंधन का यही नजरिया रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ट्वीट को देखें तो भारत का भी यही रुख रहा है।

दूसरा विचार एक ‘लेकिन’ के इर्दगिर्द बुना गया। ये हमले गलत हैं ‘लेकिन’ इजरायल भी लंबे समय से फिलिस्तीनी नागरिकों के साथ गलत व्यवहार कर रहा है।

हमारे देश में भी इस विषय पर काफी बहस देखने को मिली है। भारतीयों की पूरी एक या बल्कि दो पीढ़ियां ऐसी हैं जो इजरायल और फिलिस्तीन की हालत को शीतयुद्ध की विचारधारा से जोड़कर देखती हैं, इसमें नैतिकता का पहलू रखते हैं और ‘लेकिन’ के साथ निंदा में यकीन रखते हैं।

यह रुख न केवल पीड़ित को दोषी बताता है बल्कि नैतिकता के पैमाने पर भी यह विफल है। इस बारे में विचार कीजिए: भारत 2008 में 26/11 के हमलों से जूझ रहा है और कई देश जिनमें हमारे मित्र देश शामिल हैं, वे कुछ इस तरह की बात करें ‘यह बहुत भयानक है। लेकिन आपको पता है, अगर आपने कश्मीर मुद्दे को अनसुलझा नहीं छोड़ा होता, अगर आपने मुस्लिमों के साथ बेहतर व्यवहार किया होता और अयोध्या की मस्जिद का क्या?’ कल्पना कीजिए भारत और उसकी सरकार को तब कितना बुरा लगता।

अमेरिका ने 9/11 के हमले के बाद अपना रुख बदल दिया। 2008 के बाद 15 वर्षों तक किसी ने भारत को आतंकवाद की बुनियादी दिक्कत के बारे में भाषण देने का साहस नहीं किया। हमने 2002 में ऑपरेशन पराक्रम के दौरान भारत आने वाले पश्चिमी नेताओं को ऐसा करते देखा था।

किसी ने भी कश्मीर या किसी अन्य मसले का जिक्र नहीं किया था। मुझे साफ तौर पर याद है कि ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने उस वक्त कहा था, ‘हम पूरी तरह भारत के साथ हैं।’ हमें भी इजरायल में हमास के अत्याचारों पर सबसे पहले और स्पष्ट प्रतिक्रिया देनी चाहिए। इस मामले में केवल एक पीड़ित है और वह है कि इजरायल। केवल एक आततायी है और वह है हमास। यह एक आतंकवादी संगठन है। जिन लोगों को अभी भी नैतिक स्तर पर शकोशुबहा हो, उनके लिए बता दें कि संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने भी इसे आतंकी कार्रवाई बताया है।

फिलिस्तीन का प्रश्न बरकरार है और उसे हल करना होगा, ठीक कश्मीर की तरह। बहरहाल, यह दलील देना अशोभनीय होगा कि जब तक ये मसले हल नहीं होते तब तक किसी को भी आतंकवाद का बतौर नीति इस्तेमाल करने देना सही होगा।

हमें समझना होगा कि फिलिस्तीन को लेकर एक नजरिया नहीं है। अनिवार्य अंतर यह है कि फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन ने 1988 में इजरायल को मान्यता दे दी थी जबकि हमास इस्लामी मान्यताओं के अनुसार सभी यहूदियों के खात्मे पर यकीन करता है।

उधर, नेतन्याहू के पास अपने अलग पवित्र ग्रंथ हैं और उन्होंने दो मुल्कों वाले विचार को खारिज कर दिया है​ जबकि इसी ने ​इजरायल को फिलिस्तीन से मान्यता दिलवाई। यह भी एक तरह की बेशर्मी है। इसने इजरायल को नैतिक और राजनीतिक तौर पर कमजोर किया है। इसने इजरायल के दोस्तों के लिए भी हालात मुश्किल किए हैं।

जल्दी ही उनके मित्र उन्हें याद दिलाएंगे कि उनका देश फिलिस्तीन की संप्रभुता को लेकर क्या वादे कर चुका है। भारत शायद ऐसा करने वाला पहला देश है जिसने विदेश मंत्रालय के संवाददाता सम्मेलन के माध्यम से ऐसा किया है। अमेरिका शायद आखिर में ऐसा करे।

इस बात का दूसरा पहलू नेतन्याहू के उस बयान में देखा जा सकता है कि उनके लिए हमास का हर व्यक्ति मर चुका है। इस बयानबाजी की अनदेखी की जा सकती है लेकिन इसमें दो राय नहीं कि बड़ी तादाद में हमास के लोग मारे जाएंगे। इससे भी अहम बात यह है कि एक संगठन के रूप में हमास समाप्त हो जाएगा। इस पीढ़ी का इतिहास बताता है कि बुरे विचार और विचारधाराएं कभी खत्म नहीं होतीं। वे रूप बदलकर फैलती रहती हैं।

अल-कायदा और आईएस के बारे में सोचिए जो हमारे दौर के सबसे खूंखार संगठन रहे हैं। भौगोलिक और भू-राजनीतिक संगठन के रूप में उनका अस्तित्व समाप्त हो गया है।

बहरहाल, विचार बरकरार रहते हैं। बुरी तरह से नाराज कोई भी खराब आदमी इंटरनेट पर तरीके सीख सकता है ‘इस्लामिक स्टेट’ की टी-शर्ट पहनकर वीडियो संदेश जारी कर सकता है और खुद को भीड़ भरे बाजार में बम से उड़ा सकता है। 2019 में ईस्टर के अवसर पर श्रीलंका में हुए धमाकों को याद की​जिए।

इजरायल की प्रतिक्रिया नाराजगी भरी है। हालिया इतिहास बताता है कि बड़ी शक्तियों की नाराजगी काफी नुकसान पहुंचा सकती है, मौतों की वजह बन सकती है। वे अपनी आबादी के भावनात्मक तारों को छेड़ सकती है लेकिन उनकी जीत कभी नहीं होती। वरना अमेरिका को अफगानिस्तान में पूरी तरह और इराक में आंशिक हार का सामना नहीं करना पड़ता। अल-कायदा आखिर में आईएस में बदल गया। मृत बच्चों की तस्वीरों, मेरा बनाम तुम्हारा की लड़ाई में यह सवाल बेमानी रहेगा कि पीड़ित कौन है।

तीसरा आयाम इजरायल की अत्यधिक शक्तिशाली सैन्य और खुफिया व्यवस्था की सबसे बड़ी और दोनों में शायद सबसे बड़ी नाकामी में निहित है। सन 1973 के योम किप्पर युद्ध में इजरायल आसानी से उबरने में कामयाब रहा और उसने अपना हिसाब भी बरकरार कर लिया। बाद की जांचों में पता चला कि इस बारे में तमाम खुफिया जानकारी मौजूद थी कि बड़े पैमाने पर हमले की योजना बनाई गई थी लेकिन इजरायली कमांडरों ने उसे गंभीरता से नहीं लिया।

पिछले सप्ताह जो कुछ हुआ वह इजरायल की मुख्य भूमि पर हुआ। आजाद इजरायल के इतिहास में अन्य सभी लड़ाइयां या तो मिस्र, सीरिया, जॉर्डन, लेबनान जैसे पड़ोसी देशों की जमीन पर हुई या फिर फिलिस्तीन के पश्चिमी किनारे और गाजा में। गत शनिवार से पहले कभी इजरायल में एक दिन में इतनी मौतें नहीं हुई थीं।

सन 1973 में अगर मिस्र ने स्वेज नहर के पार ‘बार लेव लाइन” का उल्लंघन करके इजरायली सैन्य बलों के अजेय होने के मिथक को तोड़ा था तो हमास के ताजा हमलों ने उसके सर्वाधिक सुरक्षित जमीनी इलाके की कमजोरी को उजागर कर दिया है। हथियारों से लैस आतंकवादी दुनिया की सबसे अधिक तकनीक सक्षम बाड़ को फांद कर घुस गए जो सेंसर, कैमरों, अलार्म और निगरानी उपकरणों से लैस है। दुनिया की सबसे तैयार सेना को जवाब देने में 24 घंटे लगे।

सन 1973 की तरह इजरायल कामयाब रहेगा। प्रतिक्रिया भी भीषण होगी। 1973 के बाद के गंभीर सबक को याद कीजिए। उसके बाद 1978 में कैंप डेविड समझौता हुआ और 1994 में जॉर्डन में शांति समझौता हुआ।

याद रहे कि कैंप डेविड समझौते पर इजरायल के कट्‌टर दक्षिणपंथी और लोकप्रिय नेताओं (आज के नेतन्याहू की तरह) ने हस्ताक्षर किए थे। मेनाकेम बेगिन जैसे कट्‌टरपंथी नेता भी इस नतीजे पर पहुंचे थे कि इजरायल का भविष्य पड़ोसियों के साथ शांति स्थापना है, न कि स्थायी जंग में। इससे इजरायल और पश्चिम एशिया में 25 वर्षों तक शांति कायम रही।

इसी तरह एक बार हमास का हमला और गाजा में खूनखराबा थमने के बाद भविष्य के इजरायली नेतृत्व को भी शायद फिलिस्तीन की स्वायत्तता और दो राष्ट्र वाले की हकीकत का अहसास होगा। भारत और अमेरिका समेत उसके तमाम दोस्त इसकी बात करते रहे हैं। अब सऊदी अरब शांति स्थापना की ऐसी मांग करेगा जिसमें सौदेबाजी की गुंजाइश न होगी।

इस पर निर्भर सभी आर्थिक, रणनीतिक और अस्तित्ववादी फायदे इजरायल के नेताओं पर यह दबाव बनाएंगे कि वे राजनीतिक और निर्वाचित फिलिस्तीनी राज्य की हकीकत स्वीकार करें।

नेतन्याहू वह नेता होंगे या नहीं हम नहीं जानते। इजरायल की चुनावी किस्मत बहुत भंगुर प्रकृति की है लेकिन नेतन्याहू जैसे नेता को भी अपनी एक राष्ट्र की कल्पना को त्यागना होगा। फिलिस्तीन के अस्तित्व के बाद ही दोनों देशों के लोग अपेक्षाकृत शांति से रह सकेंगे। यह हल हमास या नेतन्याहू के पवित्र ग्रंथों की भविष्यवाणियों में नहीं मिलेगा। यह युद्ध के बाद की जमीनी सियासी हकीकत में ही मिल सकेगा।

First Published - October 15, 2023 | 11:32 PM IST

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