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  अंतरराष्ट्रीय  अपने ही दो पाटों में पिस गए प्रचंड
अंतरराष्ट्रीय

अपने ही दो पाटों में पिस गए प्रचंड

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —May 8, 2009 10:43 PM IST
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एक दौर था, जब नेपाल अपने पड़ोसी देशों, खासकर भारत से अपने बुरे व्यवहार के लिए यह दुहाई देता था कि वह दो पाटों के बीच फंसा हुआ है…, और उसके लिए ये दोनों पाट हैं-भारत और चीन।
लेकिन इस बार कहानी कुछ अलग है। अब दो पाटों में फंसे हैं, पुष्प दहल कमल उर्फ प्रचंड, जो कि 4 मई तक देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान थे। एक तरफ तो वह राज्य में लोकतंत्र के मुखिया यानी प्रधानमंत्री की भूमिका का दबाव झेलते रहे, तो दूसरी तरफ उनकी ही पार्टी के अतिवादी उन पर अपना दबाव डालते रहे।
पिछले हफ्ते नेपाल के सेना प्रमुख जनरल रुकमंगद कातुवाल का हटाया जाना यह साबित करता है कि किस तरह नेपाल की राजनीति जटिल समस्याओं के बीच फंस चुकी है। अब ऐसे लोकतंत्र के क्या मायने हैं?
बुधवार को प्रचंड ने काठमांडू में एक प्रेस कांफ्रेस की और काठमांडू के एक निजी चैनल पर दिखाये गये वीडियो टेप पर सफाई दी, हालांकि उन्होंने टेप के कंटेंट से इनकार नहीं किया। इस टेप में यह दिखाया गया कि किस तरह उसने माओ गुरिल्ला विंग की संख्या को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया गया और संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति प्रयासों को गुमराह किया।
दरअसल इसके पीछे सेना में ज्यादा से ज्यादा विद्रोह कराने की मंशा थी। इस वीडियो में प्रचंड द्वारा पिछले साल 2 जनवरी को चितवन के शतिखोर कैटोनमेंट में पीएलए कमांडर और लड़ाकुओं को संबोधित करते हुए दिखाया गया है।
आपको याद होगा कि इसी के चार महीने बाद प्रचंड नेपाल के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आसीन हुए थे। यह टेप इस बात की व्याख्या करता है कि माओवादी लोकतंत्र को लेकर प्रतिबद्ध नहीं थे, बल्कि वे माओवादी तानाशाही के मातहत लोकतंत्र में यकीन करते थे। इस बात को साबित करने के लिये पर्याप्त सबूत भी मौजूद हैं।
लिहाजा, माओवादियों ने काठमांडू में विभिन्न मीडिया संस्थानों पर हमले किये, अप्रैल 2008 में सत्ता में आते ही न्यायपालिका को बदलने की कोशिश की और देश के नौकरशाहों का तबादला मनमाने तरीके से किया गया। अब माओ सरकार की नजर पुराने नेपाल की अगर किसी संस्था पर थी, तो वह थी नेपाली सेना ।
और आखिरकार सेना को भी माओ तानाशाह का खामियाजा भुगतना पड़ा। सेनाध्यक्ष रुकमंगद कातुवाल को हटाने का उद्देश्य सेना पर नागरिक नियंत्रण करना नहीं था, बल्कि सरकारी संस्थानों पर अपनी प्रभुत्ता साबित करने की मंशा थी। जब माओवादी पहली बार सत्ता में आये तो भारत की रुचि मात्र लोकतंत्र में थी।
भारत चाहता था कि कम से कम इसी बहाने माओवादी हथियार त्याग दें। जब प्रचंड अपने पहले आधिकारिक दौरे पर भारत आये, तो वह विद्रोही नहीं, बल्कि राजनयिक की तरह नजर आए। विद्रोही जैसे शब्दों का इस्तेमाल चीन ने प्रचंड के लिए किया था, जब वे भूमिगत थे। लेकिन पासा पलट चुका था।
भारत और चीन के पास कोई विकल्प नहीं था, सिवाए प्रचंड को स्वीकार करने के। क्योंकि नेपाली कांग्रेस और नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी- यूनाइटेड मार्क्सवादी लेनिनवादी को जितनी कुल सीटें आईं, उससे अधिक सीटें प्रचंड की झोली में थी।

prachand entangled in their own two sides
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