भारत की दिल्ली घोषणा में समावेशी विकास, टिकाऊ विकास लक्ष्यों, टिकाऊ भविष्य के लिए हरित विकास जैसे विषयों पर चर्चा हुई है। घोषणा के बयान में अक्षय ऊर्जा और ऊर्जा कुशलता लक्ष्यों व ऊर्जा में बदलाव के लक्ष्यों का जोरदार तरीके से उल्लेख किया गया है, लेकिन जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने को लेकर बाली के परिणामों से आगे नहीं बढ़ा जा सका है।
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों जी20 की के बाद की ब्रीफिंग में जलवायु परिणामों की जानकारी दी। उन्होंने जी20 में फ्रेंच मीडिया को संबोधित करते हुए कहा कि हम सभी को कोयले को बहुत जल्द चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की जरूरत है और अभी जो रफ्तार है, उससे भी तेजी से यह किया जाना चाहिए।
घोषणा में वैश्विक स्तर पर अक्षय ऊर्जा क्षमता तीन गुना करने और ऊर्जा कुशलता की दर दोगुना करने का उल्लेख किया गया है। घोषणा में नवीकरणीय ऊर्जा के इस्तेमाल को सदस्य देशों की परिस्थितियों के अनुरूप करने व अन्य शून्य व कम उत्सर्जन वाली तकनीकों के संबंध में समान महत्त्वाकांक्षा से जोड़ा गया है। दुर्लभ खनिज, हरित ईंधन का उल्लेख बहुत सम्मानजनक तरीके से किया गया है। भारत इस समय अपना दुर्लभ खनिज खरीद और हरित ईंधन निर्यात आपूर्ति श्रृंखला बनाने पर जोर दे रहा है।
कई विशेषज्ञों का कहना है कि जीवाश्म ईंधन को छोड़ देना बड़ी खामी है, जिसे ऊर्जा में बदलाव पर कार्यसमूह (ईटीडब्ल्यूजी) के परिणाम वक्तव्य में कहा गया था।
दस्तावेज में कहा गया है कि कम उत्सर्जन वाली ऊर्जा प्रणालियों की ओर जाने के लिए प्रौद्योगिकी विकास के साथ इसकी तैनाती और प्रसार में तेजी लाने के महत्त्व को पहचानना है, जिसमें नवीकरणीय ऊर्जा के साथ ऊर्जा दक्षता सहित स्वच्छ बिजली उत्पादन को तेजी से बढ़ाना है। इसके उपाय के रूप में संबंधित देश की परिस्थिति के अनुरूप बेरोकटोक कोयला बिजली को चरणबद्ध तरीके से बंद करने के प्रयासों में तेजी लाना और उचित बदलावों के लिए समर्थन की जरूरत को पहचानना शामिल है।
इस पैराग्राफ में कोयले को उसी तरह की स्थिति में छोड़ दिया गया है, जो स्थिति बाली में थी। क्लाइमेट ऐक्शन नेटवर्क इंटरनैशनल में वैश्विक राजनीतिक रणनीति के प्रमुख हरजीत सिंह ने कहा, ‘नवीकरणीय ऊर्जा के लक्ष्यों के प्रति जी20 की प्रतिबद्धता सराहनीय है। लेकिन इसमें जीवाश्म ईंधन पर वैश्विक निर्भरता को दरकिनार कर दिया गया है।
जलवायु संकट मानवता पर काले बादल की तरह मंडरा रहा है, और इसके साथ ही दुनिया जीवाश्म ईंधन से दूर रहने के लिए उचित बदलाव की मांग कर रही है। विकसित अर्थव्यवस्थाओं के इस समूह के अमीर देश न सिर्फ अपने स्वयं के उत्सर्जन पर काबू करने में विफल रहे हैं, बल्कि अपनी हरित पहल के साथ विकासशील देशों को वित्तीय सहायता देने में भी पीछे रह गए हैं।’