Makar Sankranti: आज मकर संक्रांति है और इस दिन देश के कई हिस्सों में सूर्य की पूजा कर खिचड़ी खाने और दान देने का रिवाज है। मगर उत्तर और मध्य भारत में आज के दिन सफेद तिल और गुड़ से बनी गजक या रेवड़ी खाने की भी परंपरा रही है।
अब गजक का नाम आए तो मुरैना-ग्वालियर की याद आना लाजिमी है। किसी समय सिंधिया राजघराने और हिंदी फिल्मों के डकैतों से पहचाने गए चंबल के इलाके की पहचान अब गरमी देने वाली गजक से ज्यादा होती है।
देश भर में गजक कई जगह बनती है, लेकिन सबसे मशहूर मुरैना-ग्वालियर की ही गजक है, जिसकी सर्दियों में सबसे ज्यादा मांग रहती है। मध्य प्रदेश या बुंदेलखंड छोड़िए, आपको दिल्ली-एनसीआर में भी मुरैना की गजक के नाम से दुकानें खुली मिल जाएंगी। यह बात अलग है कि सबमें मुरैना से आई गजक होना जरूरी नहीं है।
कागज की पुड़िया में गजक
मुरैना में गोपी गजक ब्रांड से गजक बनाने वाले आकाश शिवहरे ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया, ‘हमारे दादा गोपालदास शिवहरे ने 100 साल पहले गजक बनाना शुरू किया था। गजक के लिए गुड़ और तिल की जरूरत होती है। वे पास में जौरा से गुड़ लाते थे और इसमें तिल मिलाकर पपड़ी वाली गजक बनाते थे, जिसे सिर पर टोकरी में रखकर बेचते थे।
बाद में उन्होंने इसे ठेले पर बेचना शुरू कर दिया। पहले गजक कागज की पुड़िया में बिकती थी। वक्त बदलने पर कई दुकानें खुल गईं और अब यह डिब्बों में पैक होकर बिकती है।’
मुरैना के साथ ही ग्वालियर में भी गजक बड़े पैमाने पर बनती है। रतीराम ब्रांड नाम से गजक कारोबार कर रहे महेश राठौर कहते हैं कि नाम भले ही मुरैना का हो, लेकिन ज्यादातर गजक ग्वालियर में ही बनती है। राठौर बताते हैं कि करीब 100 साल पहले उनकी परदादी केशरबाई राठौर ने घर में गजक बनाना शुरू किया था। उनके बाद की पीढ़ियां यही काम करती रहीं और अब नई पीढ़ी इस काम को आगे बढ़ा रही है।
मांग बढ़ने के साथ गजक की बिक्री का तरीका भी बदला है। कारोबारियों के मुताबिक गजक में नमी आने पर इसका स्वाद खराब हो जाता है। शाही गजक नाम से गजक बनाने वाले राजकुमार शिवहरे बताते हैं कि पहले सुबह गजक बनती थी और शाम तक बिक जाती थी।
मगर पास के जिलों में भी इसकी मांग बढ़ने पर गजक को ज्यादा समय तक अच्छा और खस्ता बनाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई। इसके लिए 1970 के बाद से गजक पॉलीथीन में पैक होकर बिकने लगी और 1973-74 से डिब्बों में पैकिंग शुरू हो गई। इससे गजक महीने भर खस्ता बनी रहती है।
चंबल के पानी से खस्तापन
मुरैना-ग्वालियर की गजक अपने खस्तापन के लिए मशहूर है और या खस्तापन यहां के पानी से आता है। आकाश कहते हैं कि चंबल नदी का पानी मीठा है और उसी तासीर के कारण गजक में खस्तापन रहता है। महेश के मुताबिक ग्वालियर में तिघरा बांध (ग्वालियर शहर में इस जलाशय से पानी की आपूर्ति होती है) के पानी से गजक में खस्तापन आता है। कारोबारी यह भी कहते हैं कि खस्ता गजक बनाने के लिए बढ़िया क्वालिटी का तिल जरूरी होता है। गजक कारीगर गुटाली जोशी ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि गजक में जितना ज्यादा तिल होगा उतना ज्यादा खस्तापन आएगा।
महंगा हुआ गजक का जायका
गजक कारोबारियों के अनुसार मुरैना और ग्वालियर में 350 से 400 छोटे-बड़े गजक कारोबारी हैं, जिनका सालाना कारोबार 150 से 200 करोड़ रुपये होने का अनुमान है। ये कारोबारी 5 से 6 हजार लोगों को रोजगार मुहैया करा रहे हैं। गोपी गजक के आकाश शिवहरे हैं कि पिछले साल दिसंबर में सर्दी कम पड़ने से गजक की बिक्री भी कमजोर रही। मगर नए साल में सर्दी बढ़ने के साथ ही कारोबार गरम हो गया है।
अलबत्ता लागत बढ़ने के कारण गजक महंगी हो गई है। आकाश बताते हैं कि 2022 में 175 से 180 रुपये प्रति किलोग्राम मिलने वाला तिल इस बार सर्दी में 240 रुपये किलो चल रहा है। गजक अच्छी बनाने के लिए उसमें तिल ज्यादा रखना पड़ता है, इसलिए महंगे तिल से बनी गजक के दाम भी 20- 25 रुपये किलो बढ़े हैं। इस साल अच्छी गुणवत्ता वाली खस्ता गजक कीमत 320 से 360 रुपये किलो बिक रही है।
बाहर भी है जलवा
दशकों पहले मुरैना-ग्वालियर में बनने वाली गजक इन्हीं शहरों में बिकती थी मगर अब दूसरे जिलों और राज्यों से इनकी खूब मांग आती है। महेश का दावा है कि उनकी गजक के 70 फीसदी खरीदार दूसरे राज्यों के हैं। इसलिए उन्हें गुणवत्ता अच्छी रखनी पड़ती है वरना बाजार में तो 220 रुपये किलो गजक भी मिल जाती है। आकाश शिवहरे के ज्यादातर खरीदार मुरैना से बाहर के हैं।
आकाश ने हाल ही में एक ग्राहक को कूरियर से 15 किलो गजक अमेरिका भी भेजी है। मगर वह बताते हैं कि गजक का सीधे निर्यात नहीं किया जाता। ग्राहकों की मांग पर ही भेजी जाती है।