facebookmetapixel
पांच साल में 479% का रिटर्न देने वाली नवरत्न कंपनी ने 10.50% डिविडेंड देने का किया ऐलान, रिकॉर्ड डेट फिक्सStock Split: 1 शेयर बंट जाएगा 10 टुकड़ों में! इस स्मॉलकैप कंपनी ने किया स्टॉक स्प्लिट का ऐलान, रिकॉर्ड डेट जल्दसीतारमण ने सभी राज्यों के वित्त मंत्रियों को लिखा पत्र, कहा: GST 2.0 से ग्राहकों और व्यापारियों को मिलेगा बड़ा फायदाAdani Group की यह कंपनी करने जा रही है स्टॉक स्प्लिट, अब पांच हिस्सों में बंट जाएगा शेयर; चेक करें डिटेलCorporate Actions Next Week: मार्केट में निवेशकों के लिए बोनस, डिविडेंड और स्प्लिट से मुनाफे का सुनहरा मौकाEV और बैटरी सेक्टर में बड़ा दांव, Hinduja ग्रुप लगाएगा ₹7,500 करोड़; मिलेगी 1,000 नौकरियांGST 2.0 लागू होने से पहले Mahindra, Renault व TATA ने गाड़ियों के दाम घटाए, जानें SUV और कारें कितनी सस्ती हुईसिर्फ CIBIL स्कोर नहीं, इन वजहों से भी रिजेक्ट हो सकता है आपका लोनBonus Share: अगले हफ्ते मार्केट में बोनस शेयरों की बारिश, कई बड़ी कंपनियां निवेशकों को बांटेंगी शेयरटैक्सपेयर्स ध्यान दें! ITR फाइल करने की आखिरी तारीख नजदीक, इन बातों का रखें ध्यान

जोशीमठः आपदा को पहले मिल चुका था आमंत्रण

Last Updated- February 07, 2023 | 11:29 PM IST
Joshimath

हिमालय क्षेत्र में 1,874 मीटर की ऊंचाई पर बसा जोशीमठ तबाही का मंजर देख रहा है। आशंका है कि जोशीमठ के आसपास के क्षेत्रों में भी प्राकृतिक आपदा दस्तक देने वाली है। यहां से लोगों को निकाला जा रहा है और केंद्र एवं राज्य सरकार इन लोगों को अस्थायी रूप से बसाने के लिए सुरक्षित स्थान तलाश रही हैं। यह एक मानवीय त्रासदी है और इसके लिए पूर्ण रूप से मानव गतिविधियां जिम्मेदार हैं।

हिमालय दुनिया में ऐसी पर्वत श्रृंखला है जिसे अस्तित्व में आए बहुत अधिक समय नहीं हुआ है। इसका आशय यह है कि पूरी पर्वत श्रृंखला अस्थिर है और ढीली मिट्टी से बनी है। इस वजह से भूस्खलन और अपक्षरण की आशंका अधिक है।

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हिमालय भूकंपीय क्षेत्र में है और इसे भूकंप की सर्वाधिक आशंका वाले क्षेत्र में रखा गया है। जलवायु परिवर्तन का जोखिम तो है ही। जलवायु परिवर्तन के कारण बेमौसम बारिश और अतिवृष्टि के हालात बनते हैं जिनसे अस्थिरता और बढ़ जाती है।

हिमालय पर्वत क्षेत्र एक प्रकार से अलग है जहां हालात लगातार प्रतिकूल होते जा रहे हैं। यह भारत के मैदानी क्षेत्र की तरह नहीं है जहां जलोढ़ मिट्टी की चादर बिछी है।

यह भारत के प्रायद्वीपीय भाग की तरह भी नहीं हैं जहां पठार और चट्टान हैं। न ही यह क्षेत्र आल्प्स पर्वत श्रृंखला की तरह हैं जहां पहाड़ और ढलान काफी पुराने हो चुके हैं और एक तरह से स्थिर हो गए हैं।

अब आप यह कह सकते हैं कि ये बातें तो बच्चे भी जानते हैं, इसलिए इसमें नई बात क्या है? दरअसल मैं इन बातों पर इसलिए जोर दे रही हूं कि हम किसी क्षेत्र के पारिस्थितिकी-तंत्र के अनुरूप निर्माण कार्य एवं अन्य योजनाएं तैयार करने की क्षमता खो चुके हैं।

विकास के नाम पर हम लगातार पर्यावरण की अनदेखी कर रहे हैं। इसका यह मतलब कतई नहीं है कि जोशीमठ जैसे क्षेत्रों में विकास के कार्य जैसे आधारभूत संरचना, जल संसाधन, नाली या मकानों का निर्माण नहीं होना चाहिए। मगर इन कार्यों से पहले उपयुक्त योजना तैयार की जानी चाहिए। हमें यह सोचना चाहिए कि इन ढांचों का निर्माण कैसे, कहां और कितनी संख्या में होना चाहिए। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उपयुक्त निर्माण योजना पर पूरी तरह अमल किया जाए। 

जोशमठ में आई आपदा के संदर्भ में जल-विद्युत संयंत्रों के उदाहरण पर विचार किया जा सकता है। चिंता जताई जा रही है कि 520 मेगावॉट तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना से मिट्टी अपक्षरण हो रहा है। बांध तैयार करने वाले इंजीनियर लगातार इस बात को नजरअंदाज कर रहे हैं। 2021 में और अब तक इस क्षेत्र में अचानक बाढ़ एवं भू-स्खलन की कई घटनाएं घट चुकी हैं। इन प्राकृतिक आपदाओं के कारण ऋषिगंगा

जल-विद्युत परियोजना पूरी तरह तबाह हो गई और 200 लोगों की मौत भी हो गई। प्रत्येक आपदा एक ही संदेश देती है। संदेश यह है कि सुरंग, सड़कों और मकानों के निर्माण से पहले प्रकृति एवं पहाड़ों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। इस क्षेत्र में द्रुत गति से बहने वाली नदियों से स्वच्छ ऊर्जा प्राप्त करने की असीम संभावनाएं हैं।

प्रश्न यह है कि कितनी जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण होना चाहिए और इन तैयार परियोजनाओं से प्रकृति को कम से कम नुकसान पहुंचाया जाए। मगर इंजीनियर इन क्षेत्रों का संरचना एवं संभावित उथल-पुथल की आशंका की अनदेखी कर बैठते हैं। इन इंजीनियरों की सोच यह हो सकती है कि इस पूरे क्षेत्र पर नियंत्रण करना और इसे दोबारा विकसित करना जरूरी है।

मैं ऐसी सोच की साक्षी रह चुकी हूं। वर्ष 2013 में मैं एक उच्च स्तरीय सरकारी समिति की सदस्य थी। यह समिति उसी क्षेत्र में इन परियोजनाओं पर चर्चा कर रही थी जहां हाल में आपदा आई है। इंजीनियरों ने 70 जल-विद्युत परियोजनाओं से 9,000 मेगावॉट बिजली उत्पन्न करने की भारी भरकम योजना तैयार की थी।

इंजीनियरों ने पूरे आत्मविश्वास से कहा कि वे इन कच्ची ढाल वाले इलाकों में गंगा नदी एवं इसकी सहायक नदियों के लगभग 80 प्रतिशत हिस्से का बदलाव करेंगे। उन्होंने कहा कि इसके लिए पानी के लिए नया मार्ग तैयार करेंगे और उसके बाद कंक्रीट संरचना एवं चक्की (टर्बाइन) की मदद से बिजली पैदा करेंगे।

उन्होंने समिति को बताया कि परियोजना इस तरह तैयार की गई है कि गर्मी के दौरान गंगा नदी में जलधारा 10 प्रतिशत रह जाएगी। इंजीनियरों के अनुसार परियोजना की इस रूप-रेखा से इस क्षेत्र में गंगा नदी की सूरत बदल दी जाएगी। यह उनके विकास की योजना थी।

मैंने सुझाव दिया था कि जो परियोजनाएं पहले ही तैयार हो चुकी हैं उनका ढांचा गंगा नदी की धारा के अनुरूप दोबारा तैयार किया जाना चाहिए। इससे फायदा यह होता कि नदी में पानी अधिक जमा होने से अधिक से अधिक बिजली पैदा होगी और पानी कम होने पर बिजली कम पैदा होगी।

इस तरह, गंगा नदी हमेशा बहती रहेगी। हमारा सुझाव ठुकरा दिया गया। हमनें उन्हें अधिकारियों द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़े भी दिखाए कि इससे परियोजनाओं को राजस्व का किसी तरह का नुकसान नहीं होगा। इसका यह मतलब जरूर होगा कि भविष्य में कोई परियोजना तभी तैयार होगी जब नदी में अधिक पानी होगा।

इसका एक और मतलब यह होगा कि तपोवन-विष्णुगाड़ सहित कई निर्माणाधीन या प्रस्तावित परियोजनाएं रद्द हो जाएंगी। बांध के पक्ष में विचार रखने वाले लोगों को यह स्वीकार नहीं था। मैंने लिखा कि आईआईटी रुड़की के इंजीनियरों ने समिति को यह विश्वास दिलाने के लिए आंकड़ों में मनमाना बदलाव किया कि सब ठीक है और किसी तरह की बाधा नहीं है। पिछले एक दशक से ऐसी कई परियोजनाएं बनाई जा रही हैं।

हम पारिस्थितिकी-तंत्र के लिहाज से अनुकूल और सामाजिक रूप से समावेशी विकास के लिए उपलब्ध जानकारियों और ज्ञान का इस्तेमाल करने में विफल रहे हैं।

इस विषय पर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए। एक वाजिब प्रश्न उठता है कि परियोजनाओं का खाका तैयार करने के लिए स्थापित सभी संस्थान (इनमें कई संस्थान इस क्षेत्र में हैं) यह तकनीकी सलाह देने में विफल क्यों रहे हैं? क्या इसकी वजह यह है कि उनका ‘विज्ञान’ इतना लापरवाह हो गया है कि वे अपने कारोबार की स्वाभाविक प्रकृति को भी नहीं समझ पा रहे हैं? या फिर नीति निर्धारक इतने दुराग्रहपूर्ण हो गए हैं कि वे उन विचारों को सुनने के लिए तैयार नहीं हैं जो पहले से तय विचारों या निर्णयों का समर्थन नहीं करते हैं? नीति निर्धारक दूसरों के सुझाव मानें या नहीं मानें मगर जोशीमठ जैसे क्षेत्रों में कई और आपदाएं आएंगी। कम से कम इस आशंका को उन्हें स्वीकार करना ही चाहिए।

First Published - February 7, 2023 | 11:29 PM IST

संबंधित पोस्ट