विश्व भर में मंदड़िये, तेजड़ियों पर सप्ष्ट तौर पर भारी पड़ते देखे जा रहे हैं और पिछले सप्ताह वैश्विक सूचकांकों में आई भारी गिरावट इस बात की गवाह है (वैश्विक सूचकांकों की तालिका देखें)।
इन सूचकांकों (इस साल की शुरुआत से) में आई लगभग आधी गिरावट अकेले पिछले सप्ताह में आई है। जहां तक भारतीय बाजार का प्रश्न है तो बीएसई सेंसेक्स में पिछले सप्ताह लगभग 16 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है और इस साल की शुरुआत से यह अभी तक लगभग 48 प्रतिशत तक गिर चुका है।
बीएसई सेंसेक्स का बंबई स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबध्द शेयरों के कुल बाजार पूंजीकरण में लगभग 50 प्रतिशत का योगदान है। लेकिन क्या देश के फडामेंटल्स में इतना नाटकीय बदलाव आ गया है कि इस प्रकार की गिरावट दर्ज की जा रही है?
अभी ऐसा कुछ कहना जल्दबाजी होगी। अब, सवाल यह है कि ऐसी परिस्थिति आखिर बनी क्यों और यह कब तक चलेगी? आइए, इन सवालों का जवाब जानने की कोशिश करते हैं।
वैश्विक संकट
अमेरिका में ऋण और डेरिवेटिव उपकरणों के गलत मूल्यों के कारण इस समस्या की शुरुआत हुई और बाद में यह विश्व के अन्य क्षेत्रों में फैलती चला गई। इसकी चपेट में अब ब्रिटेन, जापान, यूरोप और अन्य एशियाई देश भी आ गए हैं।
चिंताजनक बात यह है कि अमेरिकी सबप्राइम संकट के रूप में जो संकट आया था, वह अब वैश्विक आर्थिक संकट के तौर पर उभर कर सामने आया है, जहां तरलता लगभग गायब सी हो गई है। वर्तमान संकट कुछ अलग सा है। कई दशकों बाद विश्व को इस तरह की आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
विकसित देशों के केंद्रीय बैंकों द्वारा अपने आर्थिक तंत्रों में कई अरब डॉलर डाले जाने और उसके बाद आर्थिक प्रणाली को भरोसेमंद बनाने के लिए और अधिक कोष की व्यवस्था किए जाने के वादों से इस बात का पता चलता है कि समस्या कितनी गंभीर है। हालांकि, भरोसा जीतने की दिशा में उठाए गए ये कदम अल्पावधि, कुछेक दिन, के लिए ही राहत दे पाए हैं।
चिंता का स्तर अब बढ़ चुका है और निवेशकों का समुदाय इससे बुरी तरह ही नहीं, सबसे अधिक प्रभावित हुआ है। और भारत भी इसका कोई अपवाद नहीं है। लोटस म्युचुअल फंड के मुख्य निवेश अधिकारी (इक्विटीज) त्रिदिब पाठक कहते हैं, ‘हम वैश्विक आर्थिक मंदी से पहुंचे नुकसान को स्पष्ट रूप से देख रहे हैं। इसे देखते हुए लोगों को धीरे-धीरे यह विश्वास होता जा रहा है कि अब वैश्विक आर्थिक मंदी का दौर आने वाला है।’
बुरी खबरों का आना बंद ही नहीं हो रहा है। ये किसी एक जगह से नहीं हर कोने से आ रही हैं। कुछ विशेषज्ञों का ऐसा विश्वास है कि अमेरिका पहले ही आर्थिक मंदी की चपेट में आ चुका है। पिछले सप्ताह, सिंगापुर ने भी घोषणा की थी कि देश मंदी के दौर से गुजर रहा है।
प्रत्येक दिन बीतने के साथ बाजार को देख कर ऐसा लगता है कि वैश्विक मंदी की आशंकाएं बढ़ रही हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का मानना है कि विकसित देशों के विकास की सफ्तार साल 2009 में दो दशकों में सबसे कम होगी जो आर्थिक मंदी के असर को साबित करता है।
आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि शेयरों के साथ-साथ कमोडिटी और मुद्राओं के मूल्य भी वैश्विक बाजार में कम हुए हैं। उदाहरण के लिए डाउ जोंस इंडस्ट्रीयल एवरेज में पिछले सप्ताह लगभग 19 प्रतिशत की गिरावट आई और यह 8451.19 अंक पर बंद हुआ जो मई 2003 के बाद का न्यूनतम स्तर है।
एफआईआई की बिकवाली
हाल तक भारत निवेश के खयाल से उभरते बाजारों में सबसे चहेता था। विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई) जो पिछले सात वर्षों से भारतीय शेयरों के बड़े खरीदार रहे हैं, जिन्होंने साल 2007 में 71952 करोड़ रुपये की खरीदारी की थी, ने साल 2008 में 41,353 करोड़ रुपये की बिकवाली की है (8 अक्टूबर 2008 तक)।
नकदी के संकट के कारण बड़ी संख्या में एफआईआई भारत और अन्य देशों से बाहर निकल रहे हैं। पाठक कहते हैं, ‘यह जबरन तरलता लाने जैसा लगता है (एफआईआई द्वारा पैसा निकाला जाना)। भारतीय अर्थव्यवस्था के फंडामेंटल्स में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं आया है। यह अंतरराष्ट्रीय बाजारों में चल रही गतिविधियों का प्रभाव है। भारतीय बाजार में चल रही बिकवाली वैश्विक बाजारों के बिकवाली जैसा ही है।’
चिंताएं अभी समाप्त नहीं हुईं
निकट भविष्य में भारतीय बाजार को लेकर विशेषज्ञों के विचार निश्चित ही सकारात्मक नहीं हैं। इसकी वजह भी चकित करने वाली नहीं है। कार्वी स्टॉक ब्रोकिंग के वाइस प्रेसिडेंट अंबरीश बलिगा कहते हैं, ‘हम यह नहीं जानते कि निकट भविष्य में बाजार की दिशा क्या होगी क्योंकि बुनियादी बातों या तकनीकी बातों के पूरी तरह सच होने की संभावना नहीं होती है।’
वह कहते हैं कि जब बाजार में अफरा-तफरी मचती है तो कोई कारण समझने की कोशिश नहीं करता है भले ही लोग (सरकार, नियामक आदि) यह कहते रहें कि सब कुछ ठीक है। पाठक कहते हैं, ‘नेताओं की मधुर बातों से हमारे बाजार पर तब तक कोई स्पष्ट प्रभाव नजर नहीं आएगा जब तक कि इससे संबंधित कदम न उठाए जाएं और जिससे हड़बड़ी में की जाने वाली बिकवाली को नियंत्रित करने में एक सहारा मिले।
हम पिछले उदाहरणों के आधार पर अप्रत्याशित परिस्थितियों से नहीं निबट सकते और इसीलिए हम लोगों को एक निश्चित कदम उठाने की जरूरत है जिससे निवेशकों के कयामत के दिनों की आशंकाओं को उम्मीदों में बदला जा सके।’
इसके अतिरिक्त, कुछ कंपनियों द्वारा क्षमता विस्तार की योजनाओं को टाले जाने (इसमें भूषण स्टील और जेएसडब्ल्यू स्टील भी शामिल) और हिंडाल्को के राइट्स पेशकश पर निवेशकों की खराब प्रतिक्रिया इस बात की ओर इशारा करती है कि घरेलू अर्थव्यवस्था की केवल खास श्रेणियों का दर्द बढ़ रहा है।
हमारा नियामकीय वातावरण थोड़ा-बहुत भरोसा उपलब्ध कराता है। एक विशेषज्ञ कहते हैं, ‘जहां तक भारत की बात है तो यहां अभी तक बाजार-आधारित सर्किट नहीं लगा है, कोई बड़ा बेलआउट पैकेज नहीं लाया गया है, वित्तीय क्षेत्र की कंपनियों का राष्ट्रीयकरण नहीं किया गया है और न ही कारोबार पर कोई बड़ी रोक लगाई गई है।
बहुत कम देशों में ऐसा देखा गया है। इसके अलावा, एक देश के रुप में हमने ब्याज दरों में कोई गिरावट नहीं देखी है, जो इस बात की ओर संकेत करती है कि जरूरत पड़ने पर दरों को कम किया जा सकता है। इस नजरिये से, जब कभी बाजार में तेजी आती है तो हमारी रेटिंग बेहतर होगी।’
आगे का रास्ता
हो सकता है कि भारतीय बाजार अभी भी अपने न्यनतम स्तर से दूर हो लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार वह ज्यादा दूर नहीं है। आमराय इस बात पर है कि न्यूनतम स्तर 9,000 से 9,500 का होगा जो सेंसेक्स के वर्तमान स्तर से 9 से 14 प्रतिशत दूर है। साथ ही अनिश्चितताओं और अस्थिरता का दौर कुछ और समय तक जारी रह सकता है।
अर्थव्यवस्था और औद्योगिक विकास के संतुलन से यह बात सामने आती है कि आने वाली तिमाहियों में कॉरपोरेट इंडिया की आय में गिरावट हो सकती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि शेयरों के गिरे भावों से यह पहले ही स्पष्ट हो रहा है।
दूसरी तरफ, बड़े स्तर पर सकारात्मक बदलाव के भी कुछ संकेत दिख रहे हैं जिन्हें अंकों के रूप में प्रदर्शित होने में कुछ महीने लग सकते हैं। डॉयचे एसेट मैनेजमेंट (भारत) के मुख्य कार्याधिकारी सुरेश सोनी कहते हैं, ‘कच्चे तेल और कमोडिटी की कीमतों में कमी का महंगाई पर असर कुछ समय बाद ब्याज दरों पर दिखना चाहिए। कच्चे तेल की कीमतों में आई कमी का प्रभाव सरकार के सब्सिडी बिल (तेल एवं उर्वरक) पर भी पड़ने का अनुमान है। बाजार इन परिवर्तनों को अभी नजरंदाज कर रहा है।’
निवेशकों को क्या करना चाहिए
सोनी कहते हैं, ‘शेयर भावों में आई कमी के नजरिये से इस समय को दीर्घावधि के निवेश के खयाल से देखा जा सकता है।’ पाठक भी इसी तरह का विचार रखते हैं। पाठक कहते हैं, ‘अगर अभी नहीं तो कोई कब करेगा निवेश?
अभी का समय निवेश करने के नजरिये से अच्छा है लेकिन समय-सीमा 3 से 5 वर्षों की रखी जानी चाहिए।’ मूल्यांकन भी कम देखा जा रहा है। बीएसई सेंसेक्स का फॉरवर्ड प्राइस टु अर्निंग वित्त वर्ष 2009 के लिए 11 गुना से कम है जो 12.8 गुना के मीडियन प्राइस टु अर्निंग से कम है।
हालांकि, आने वाली तिमाहियों (पिछले तीन-चार तिमाहियों की तुलना में जब आय की विकास दर 20 प्रतिशत से अधिक थी) में आय की विकास मंद होने की संभावनाओं को देखते हुए विशेषज्ञ सतर्कता बरतने की सलाह भी देते हैं और वास्तविकता यह भी है कि सभी कंपनियों या श्रेणियों का प्रदर्शन बेहतर होने की संभावना नजर नहीं आती है।
बलिगा का विश्वास है कि वित्त वर्ष 2009 में आय-विकास की दर 24 से 15 प्रतिशत की होगी जबकि वित्त वर्ष 2010 में यह 12 से 14 प्रतिशत होना चाहिए। तिमाही लाभ में बढ़ोतरी के कुछ बुरे परिणामों को छोड़ कर, पाठक का विश्वास है कि आय में 15 से 20 की चक्रवृध्दि दर से बढ़ोतरी होगी।
लेकिन वह कहते हैं, ‘सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आने वाले समय में भारी भटकाव आने वाला है। वैश्विक मंदी के परिदृश्य में कुछ ऐसी श्रेणियां होंगी जो इससे बुरी तरह प्रभावित होंगी। इसलिए श्रेणियों का प्रदर्शन अलग-अलग होगा। इस नजरिये से शेयरों का चयन और पोर्टफोलियो का निर्माण काफी मायने रखेगा।
निकट भविष्य में परिसंपत्ति वर्ग के लिहाज से कुछ नकदी लेकर बैठना ज्यादा उपयुक्त लगता है वहीं पोर्टफोलियो का एक छोटा हिस्सा सोने में भी लगाया जा सकता है। इक्विटी वाले पोर्टफोलियो में ध्यान लार्ज-कैप शेयरों पर होना चाहिए जो अपने कारोबार के मामले में सबसे आगे हों। ऐसा अनुमान है कि लार्ज-कैप कंपनियों की आय की विकास दर मिड और स्मॉल-कैप कंपनियों की तुलना में अधिक होगी।