पांच साल पहले इसी दौरान भारत आम चुनाव के दौर से गुजर रहा था।
मई 2004 में जब यह स्पष्ट हो गया कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार से बाहर हो गया तो बाजार में भारी चिंता व्याप्त हो गई थी।
हालांकि तब बनी यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे वामपंथियों ने साल 2004 से 2009 के बीच कोई मूलभूत बदलाव नहीं होने दिया। निष्क्रियता के बावजूद, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार पांच वर्ष तक तेज विकास दर बरकरार रखने में कामयाब रही। एनडीए ने भी पांच सालों तक लगभग ऊर्जाहीन तरीके से शासन किया।
साल 1999 में मार्च से सितंबर के दौरान कुछ मूलभूत बदलाव किए गए। इस अवधि में कई विधेयक पास किए गए और नई टेलीकॉम नीति और विद्युत नीतियों के मसौदे तैयार किए गए जो साल 2003 में विद्युत अधिनियम 2003 बना। साजग सरकार ने बी सी खंडूड़ी और अरुण शौरी जैसे मंत्रियों को बुनियादी ढांचा निर्माण और निजीकरण के प्रयासों की जिम्मेदारी सौंपी।
राजग के कार्यकाल 1999 से 2004 के बीच वृध्दि दर यूपीए के साल 2004 से 09 की तुलना में कम रही। इसमें राजग की गलती नहीं थी। डॉटकॉम का बुलबुला फूटने से वैश्विक मंदी आई थी और अमरिका के न्यूयार्क में वर्ल्ड ट्रेड टावर पर आतंकी हमले के बाद और हालात और बुरे हो गए थे। ऐसे हालात से विश्व और भारत साल 2003-04 में ही बाहर निकल पाए।
कोई भी यह दलील दे सकता है कि संप्रग तो भाग्यशाली था। इस अवधि में वैश्विक अर्थव्यवस्था की हालत काफी अच्छी थी और भारत को इसका लाभ मिला। लेकिन अगले महीने जो सरकार सत्ता में आएगी, वह उतनी भाग्यशाली नहीं होगी। आगे एक-दो साल में वैश्विक अर्थव्यवस्था अपनी हालत सुधारने के लिए संघर्षरत रहेगी और ऐसे माहौल में भारत ज्यादा अच्छा नहीं कर पाएगा।
सरकार में शामिल होने वाले किसी भी अहम घटक से इस बात की उम्मीद कम ही है कि वे बिना बाध्यता के राजनीतिक सुधार कर पाएंगे। असल बात तो यह है कि कोई व्यक्ति यह उम्मीद कर सकता है कि अगली सरकार स्थायी भी होगी और विवेक से काम करेगी। राजग या संप्रग को कम से कम इस मामले में खरा उतरना चाहिए।
वर्तमान परिस्थितियों की तुलना अक्टूबर 1999 और अप्रैल-मई 2004 से करना दिलचस्प होगा। साल 1999 में सब कुछ बड़ा अच्छा नजर आ रहा था। करगिल युध्द समाप्त हो चुका था, आईटी उद्योग और रहस्यमयी चीज इंटरनेट अप्रत्याशित प्रतिफल दे रहे थे। टेलीकॉम के क्षेत्र में हुए बदलावों से संचार काफी सस्ता होना तय हो गया। वाजपेयी सरकार काफी सक्रिय नजर आ रही थी।
मार्च 2000 में भारतीय बाजार धराशायी हो गए। जून 2000 में डॉटकॉम का बुलबुला फट गया। अक्टूबर 1999 में जब राजग की सरकार बनी थी तो निफ्टी का कारोबार 1,450 पर किया जा रहा था। फरवरी 2000 में यह 1,800 अंकों के शिखर पर पहुंच गया और फिर अक्टूबर 2001 में यह 900 अंकों पर आ गिरा।
सितंबर 2003 के बाद से ही निफ्टी उस स्तर से आगे बढ़ने लगा जब वाजपेयी सरकार ने शपथ ग्रहण की थी। जब मई 2004 में चुनाव परिणाम आए तो निफ्टी फिसल कर 1,300 के स्तर पर पहुंच गया जो 1999 में राजग के सत्ता में आने के समय की तुलना में भी कम था।
संप्रग के कार्यकाल में अपेक्षाकृत अधिक रिटर्न मिले। मनमोहन सिंह सत्ता में जिस समय आए उस समय निफ्टी 1,700 के आस-पास मंडरा रहा था। पांच साल बाद, भयानक मंदी का दौर देखने के बाद, यह 3,400 के स्तर पर है। मोटे तौर पर इसकी सालाना चक्रवृध्दि दर 15 प्रतिशत रही। ऐसे निवेशक जो जनवरी 2008 में 6,200 के स्तर पर बाजार से बाहर हो गए, फायदे में रहे।
अब अगली सरकार साल 2009-14 की समयावधि में किस तरह का प्रतिफल दिला पाएगी? यह बात योग्यता की कम और भाग्य की ज्यादा नजर आती है। सकारात्मक तौर पर दीर्घावधि के बेहतर प्रतिफल की उम्मीद करना जायज है। 15वीं लोकसभा बाजार में मंदी के साथ ऐसे समय शुरू होगी जब शेयर भाव ऐतिहासिक शिखर स्तर की तुलना में 50 फीसदी तक घट चुके हैं।
अगली सरकार से कुछ उम्मीदें हैं। दूसरी तरफ, वैश्विक हालात सही नहीं हैं तथा स्थिति और भी बिगड़ सकती है। इससे लगता है कि बाजार का दर्द दूसरे साल भी बना रहेगा और शेयरों की कीमतें और गिर सकती हैं।
