भारत की बात करें, तो इस बात पर आम राय मुश्किल से ही बनेगी कि यहां महंगाई है और यह भी तय नहीं हो सकता कि यह किस दिशा में जाएगी।
थोक मूल्य सूचकांक की बात चारों ओर होती है, लेकिन मुद्रास्फीति की दर का मतलब एक साल पहले के थोक मूल्य सूचकांक से इस बार के सूचकांक की तुलना भर ही है।
यह तुलना भी एक-एक अंक से होती है। ऐसे में आपको दोनों साल की एक खास तारीख पर कीमतों में तुलना ही मिलती है।
लेकिन यह सही नहीं है क्योंकि 12 महीने पहले एक खास दिन पर कीमतों में अप्रत्याशित उछाल या गिरावट देखी जा सकती है। लेकिन इस तुलना में यह पता नहीं चलता कि दो निश्चित दिनों के बीच कीमतों में गिरावट आई थी या उछाल।
दूसरी बड़ी दिक्कतें ये हैं कि थोक मूल्य सूचकांक के बास्केट में मौजूद 435 वस्तुओं में 100 ऐसी हैं, जो आजकल इस्तेमाल नहीं होती हैं, 1992-93 में ज्यादा इस्तेमाल होती थीं।
उस वित्त वर्ष में बमुश्किल 20 लाख भारतीयों ने हवाई यात्रा की थी, फोन का इस्तेमाल करने वालों की तादाद भी 3 करोड़ थी और डॉलर की कीमत भी इतनी ज्यादा नहीं थी।
लेकिन पिछले वित्त वर्ष में 5.5 करोड़ भारतीयों ने हवाई यात्रा की, 30 करोड़ लोगों के पास फोन थे और एक डॉलर भी 38 से 42 रुपये का था। नवंबर 2007 में थोक मूल्य सूचकांक प्वायंट टु प्वायंट (अंक दर अंक आधार पर) गणना में 9 फीसद ऊपर गया।
लेकिन मई 2008 की तुलना में यह नीचे था। पिछले तीन महीने में थोक मूल्य सूचकांक नीचे आया है और लगता है कि महंगाई कम हो गई है।
थोक मूल्य सूचकांक पर ध्यान होने की वजह से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को अनदेखा कर दिया जाता है, जो आजीविका की रिटेल कीमत पर आधारित होता है।
सितंबर के अंत में यह सूचकांक 9.8 फीसदी बढ़ गया था। लेकिन इस सूचकांक के संग समस्या यह है कि इसके आंकड़े थोक मूल्य सूचकांक के मुकाबले ज्यादा गफलत में डालते हैं।
मुद्रास्फीति के बारे में भारतीय रिजर्व बैंक के नजरिये को देखें, तो दरों में एक बार फिर कटौती हो सकती है।
दुनिया भर में दर कम होने की वजह से भी ऐसा हो सकता है। हालांकि अमेरिका, जापान और यूरोप में इसकी गुंजाइश ही नहीं है। लेकिन भारत में दरों में गिरावट की गुंजाइश है क्योंकि असल में यहां दरें ज्यादा हैं।
इसलिए यदि बैंक को लगता है कि मुद्रास्फीति पिछले तीन महीने में काबू में आई हैं, तो दरों में एक बार फिर कटौती हो सकती है।
आम विचार तो यह है कि इस साल मुद्रास्फीति में उछाल दरअसल रियल एस्टेट और कमोडिटी की कीमतों में जबरदस्त इजाफा होने का नतीजा था।
उस पर ब्याज दरों में इजाफे और तेल की कीमतों में बढ़ोतरी ने भी अपना काम किया। इसकी वजह से उपभोक्ताओं को दूसरे खर्च कम करने पर मजबूर होना पड़ा।
कच्चे तेल की कीमत जून 2006 से जून 2008 के बीच कमोबेश तीन गुना हो गई है। भारत सरकार ने इसमें केवल 60 फीसदी का इजाफा किया है। मुद्रास्फीति बढ़ने की यह भी एक वजह थी।
कच्चे तेल की कीमत अचानक कम हो गई है और कमोडिटी खास तौर पर धातुओं के भाव भी गिर गए हैं। दूसरी तिमाही में बहीखाता बिगड़ता देख विनिर्माता कीमत कम करना चाहते हैं।
इसके अलावा कच्चा माल सस्ता होना और दीवाली के बाद बिक्री में कमी आना भी इसकी वजहें हैं।
रियल एस्टेट की कीमतें कम हुई हैं और आगे भी गिरेंगी। घर के लिए कर्ज लेने वालों की तादाद भी कम हुई है। अगर दरें कम की जाती हैं, तो हमें अंग्रेजी के वी अक्षर के आकार में तेजी से बाजार संभलने की उम्मीद नहीं लगानी चाहिए।
दरअसल इसके लिए विदेशी मुद्रा के अच्छे प्रवाह और मजबूत निर्यात की भी जरूरत होती है। लेकिन वैश्विक बाजार की पतली हालत में दोनों ही दूर की कौड़ी लग रहे हैं। लेकिन ऐसी सूरत में भी दरों में कटौती जरूरी है। समूची अर्थव्यवस्था के बारे में सोचा जाए, तो जितनी जल्दी ऐसा होता है, उतना ही अच्छा होगा।
हां, बैंकिंग और वित्तीय क्षेत्रों को इससे फर्क पड़ सकता है क्योंकि मौद्रिक नीति में बदलावों से हमेशा वे हड़बड़ा जाते हैं। बैंकिंग की मुश्किलें तो बरकरार रहेंगी और तब तक ऐसी ही हालत रहेगी, जब तक पूरी अर्थव्यवस्था सुधर नहीं जाती। लेकिन दरों में कटौती होने से हालात कुछ संभल सकते हैं।
ऐसा होने पर शेयर बाजार की सेहत भी जल्द सुधर सकती है। यदि आपको भी ऐसा लगता है, तो आप बैंकों के शेयर भी खरीद सकते हैं क्योंकि दरों में कटौती तो अब कुछ वक्त की ही बात लग रही है।