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कहीं कम न हो जाए चीनी की मिठास!

Last Updated- December 07, 2022 | 8:05 PM IST

अगर 2005-06 के दौरान किसी क्षेत्र की कंपनियों ने शेयर बाजार में सबसे दमदार प्रदर्शन किया है तो उनमें कुछ नाम चीनी कंपनियों के भी हैं।


यह अलग बात है कि इस क्षेत्र की कंपनियों में मुख्य रूप से हलचल इस अवधि की आखिरी तिमाही के दौरान देखने को मिली। चीनी के बढ़े हुए दामों का ही नतीजा है कि पिछले तीन महीनों में बड़ी चीनी कंपनियों के शेयरों के दाम 2 से 35 फीसदी बढ़े हैं। यह तेजी इसलिए भी मायने रखती है क्योंकि इस दौरान बंबई शेयर बाजार के सेंसेक्स में 9 फीसदी की गिरावट देखी गई है।

अगर पिछले एक साल या उससे कुछ ऊपर के प्रदर्शन पर नजर डालें तो चीनी कंपनियों के शेयरों के दाम 40 से 110 फीसदी तक बढ़े हैं जबकि इस दौरान सेंसेक्स में दो से तीन फीसदी की गिरावट आई है। इन कंपनियों के बेहतर प्रदर्शन की एक वजह चीनी की कीमतों में बढ़ोतरी रही है।

अगस्त 2008 में चीनी का मूल्य प्रति क्विंटल बढ़कर 1,995 रुपये (19.95 रुपये प्रति किलो) पर पहुंच गया था जबकि जुलाई 2008 में यह करीब 1,500 रुपये प्रति क्विंटल था। हालांकि अगस्त के बाद से कीमतों में गिरावट आई है और चीनी की कीमतें घटकर 1,890 रुपये प्रति क्विंटल पर आ गई हैं पर उसके बाद भी पिछले साल की तुलना में कीमतें 34 फीसदी अधिक हैं।

चीनी की कीमतें बढ़ने की कई वजहें हैं, सबसे बड़ी वजह यह है कि चीनी उद्योग में बुनियादी परिवर्तन आया है। गन्ने की खेती में इस्तेमाल किए जाने वाली जमीन में कमी, उत्पादन में कमी, बढ़ती खपत, ज्यादा से ज्यादा मात्रा में एथेनॉल की मिलावट और आने वाले मौसम में कम स्टाक की सूचनाएं।

चीनी क्षेत्र को नियंत्रण मुक्त करने की संभावनाएं भी चीनी उद्योग के लिए अच्छी खबर हो सकती हैं। भले ही चीनी क्षेत्र को बुनियादी तत्वों में बदलाव से फायदा हो सकता है, पर सवाल यह है कि क्या चीनी के शेयरों में निवेश करना भी इतना ही फायदेमंद होगा?

स्मार्ट इनवेस्टर ने इस क्षेत्र से जुड़ी कुछ हलचलों पर नजर दौड़ाई और घरेलू और अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों से यह जानने की कोशिश की कि क्या निवेशकों को उद्योग के फंडामेंटल्स में बदलाव होने से फायदा होगा या फिर यह महज मरीचिका साबित होने जा रही है। ऐसा देखने को मिला है कि समय समय पर सरकार के हस्तक्षेप और उद्योग चक्र की वजह से चीनी कंपनियों की आय में काफी उतार चढ़ाव आया है।

यही वजह है कि खास समयावधि में चीनी कंपनियों के शेयरों से अच्छा रिटर्न मिला है (वर्ष 2004-06) जबकि वर्ष 2007 ने इन कंपनियों के शेयरों ने निवेशकों को खासा निराश किया है। इस दौरान चीनी कंपनी के शेयरों का प्रदर्शन खराब रहा था। निवेशक कई बार चीनी कंपनियों के शेयरों में निवेश करने से डरते हैं और इसकी एक वजह चीनी कंपनियों की नीतियों को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं होना है।

साथ ही, कई बार निवेशकों को इस बात का डर भी होता है कि चीनी कंपनियां लंबे समय तक बेहतर रिटर्न देंगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इस क्षेत्र से जुड़े कुछ और मुद्दों और कंपनियों के बारे में अब हम विस्तार से जानकारी प्राप्त करेंगे।

आपूर्ति में कमी

चीनी की बढ़ी हुई कीमतों की वजह से शेयर बाजार में चीनी कंपनियों के शेयरों में तेजी का रुख है। वर्ष 2008-09 के सत्र में, जिसकी शुरुआत अक्टूबर सें होती है और जो सितंबर तक चलता है, चीनी के घरेलू उत्पादन में कमी आने की वजह से कीमतें चढ़ी हैं।

एक अनुमान के मुताबिक 2008-09 के दौरान देश में 2.15 से 2.2 करोड़ टन के बीच चीनी उत्पाद की संभावना है जबकि 2006-07 में चीनी का उत्पादन 2.62 करोड़ टन था। पर अगर 2008-09 के दौरान 15 से 20 लाख टन चीनी का निर्यात किया जाता है तो घरेलू बाजार में चीनी की किल्लत हो सकती है।

चीनी के उत्पादन में कमी की सबसे बड़ी वजह है कि गन्ने की पैदावार कम जमीन पर की जा रही है। गन्ने की कीमतें तय किए जाने और समय से भुगतान नहीं किए जाने की वजह से किसान परेशान हैं और उनमें से कई दूसरी फसलों की पैदावार में जुट गए हैं। अब किसानों को धान, गेहूं और मक्के की खेती अधिक लुभा रही है।

सरकार ने भी इन अनाज के लिए खरीद मूल्य बढ़ा दिया है। उदाहरण के लिए पिछले दो सालों में गेहूं के लिए न्यूनतम समर्थित मूल्य (एसएपमपी) प्रति क्विंटल 750 रुपये से बढ़ाकर 1,000 रुपये कर दिया गया है यानी 33 फीसदी की बढ़ोतरी। वहीं चावल के एमएमपी में 37 फीसदी की बढ़ोतरी की गई है। पर अगर इसकी तुलना गन्ने से की जाए तो इसकी कीमतें जस की तस बनी हुई हैं और इसे लेकर अनिश्चितता बनी हुई है।

उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों के लिए वैधानिक प्रशासनिक मूल्य (एसएपी) वित्त वर्ष 07 और 08 के दौरान 125 रुपए प्रति क्विंटल रहा है और इसे लेकर अब भी विवाद जारी है। जब तक चीनी उद्योग के लिए गन्ने की पर्याप्त खरीद आसान नहीं हो जाती, तब तक चीनी के कम उत्पादन के साथ ही रहना पड़ेगा।

विशेषज्ञों का अनुमान है कि 2006-07 के दौरान जहां उत्पादन 87 लाख टन था, वहीं शुगर सीजन 2009-10 में यह घटकर महज 39 लाख टन रह जाएगा। इतनी चीनी महज 1.8 महीने की खपत के लिए ही काफी रहेगी।

बरतें सावधानी

कई इसे एक अच्छे मौके के रूप में देखते हैं, जिस कारण आखिरकार चीनी की कीमतें बहुत तेज हो जाती हैं और इसका फायदा चीनी कंपनियों को होता है। जुलाई 2008 के दौरान चीनी की कीमतें 1,500 रुपये प्रति क्विंटल के आस-पास थीं, जो कुछ समय पहले तक 1,900 रुपये प्रति क्विंटल से भी ज्यादा थीं।

सेंट्रम ब्रोकिंग के चीनी विशेषज्ञ प्रांशु मित्तल का कहना है,  ‘दो वर्ष के लिहाज से देखा जाए तो चीनी उद्योग में सकारात्मक संकेत दिखाई दे रहे हैं, जिसमें स्टॉक कम और उत्पादन गिरता हुआ लग रहा है। इसलिए हम उम्मीद कर रहे हैं कि मार्च 2009 से चीनी की कीमतें ऊपर चढ़ना शुरू होंगी।’

हालांकि मित्तल चेतावनी भी देते हैं, ‘निवेशकों के लिए यह मौका वित्त वर्ष 2004-05 के दौरान जैसा देखने को मिला था, अब शायद वैसा न हो।’ जरूरी है कि निवेशक वित्त वर्ष 2004-05 के दौरान हुई चीनी उद्योग की सभी घटनाओं पर नजर दौड़ाएं, जब चीनी मिलों को चीनी की कीमतों में अहम इजाफे (13 से 14 रुपये प्रति किलोग्राम से 18-19 रुपये प्रति किलोग्राम) और गन्ने की कीमत में गिरावट देखने को मिली थी।

साथ ही, इस समय 1.85 करोड़ टन खपत के मुकाबले उत्पादन सिर्फ तकरीबन 1.27 करोड़ टन है। मौजूदा समय में उत्पादन और खपत के बीच का अंतर बहुत बड़ा नहीं है जो बढ़ती कीमतों का समर्थन कर सके। आगे चलकर अगर उत्पादन घट भी जाता है, तो कंपनियां कम उत्पादन करेंगी और कम बेचेंगी। इसके परिणामस्वरूप उनकी मात्रा की वृध्दि पर बुरा असर पड़ेगा।

ऐसे में अगर वसूली 30 प्रतिशत भी अधिक होती है, मात्रा में 10 से 15 प्रतिशत कमी के कारण यह लाभ लगभग खत्म ही हो जाता है। उत्तर प्रदेश की एक प्रमुख चीनी कंपनी के मुख्य वित्त अधिकारी का कहना है, ‘हमें उम्मीद है कि उत्पादन में लगभग 15 प्रतिशत की गिरावट होगी। इसका असर कंपनी के कुल कारोबार की वृध्दि पर भी पड़ेगा।

इसका सकारात्मक पहलू यह है कि इसके एक हिस्से की क्षतिपूर्ति पिछले साल के स्टॉक को इस साल बेच कर की जाएगी।’ इसलिए कंपनियों को उनके कुल कारोबार में कोई अहम इजाफा होने की उम्मीद नहीं है। इसका बुरा पहलू यह है कि मौजूदा कीमतों पर भी कंपनियों को बहुत बड़ा मुनाफा नहीं होगा, क्योंकि गन्ने की कीमतें उद्योग पर लगातार अपना दबदबा बनाए हुए हैं।

जितनी मांग की जा रही है, अगर गन्ने की कीमत उतनी दी जाए तो प्रति किलो खर्च लगभग 13 से 13.5 रुपये बैठेगा। इसके अलावा अगर इसमें 3 से 3.5 रुपये प्रति किलोग्राम प्रोसेस या परिवर्तन शुल्क और 1.5-2 रुपये प्रति किलोग्राम मूल्यह्रास और ब्याज जैसे शुल्क जोड़ दिए जाएं तो उत्पादित चीनी की कुल कीमत 17.5-19 रुपये प्रति किलोग्राम आती है, जबकि घरेलू बाजार में थोक का भाव 18-19 रुपये प्रति किलोग्राम है।

स्पष्ट है, चूंकि चीनी की उत्पादन लागत लगभग बिक्री मूल्य के बराबर ही है, ऐसे में कंपनियों के चीनी कारोबार से  बहुत अच्छा मुनाफा कमाने की उम्मीद नहीं है। कर्वी स्टॉक ब्रोकिंग के विशेषज्ञ विक्रम सूर्यवंशी का कहना है, ‘अगर उत्पादन घटने की उम्मीद है तो चीनी की कीमतों को 20 से 21 रुपये प्रति किलोग्राम से अधिक होना चाहिए, ताकि ये कंपनियां बढ़िया मुनाफा कमा सकें।’

सूर्यवंशी कहते हैं, ‘साथ ही, चूंकि इनमें से ज्यादातर कंपनियों ने नई क्षमताओं को बढ़ाया है, जिन्हें अगर गन्ने की कम उपलब्धता के चलते पूरी तरह से इस्तेमाल नहीं किया जाएगा, तो अधिक ब्याज और मूल्यह्रास लागत के कारण कंपनियों को और भी नुकसान होगा।’

चीनी की कीमतें

हालांकि मौजूदा परिदृश्य चीनी की कीमतों के इजाफे के लिहाज से बेहतर लग रहा है, बावजूद उसके यहां ऐसे कई संकट हैं जो उद्योग जगत के सिर पर मंडरा रहे हैं, जिनकी वजह से चीनी की कीमतें चढ़ नहीं पाएंगी। सबसे पहले तो क्योंकि चीनी की कीमतों का असर महंगाई दर में दिखाई देता है (लगभग 3 से 4 प्रतिशत भार), यह माना जा सकता है कि सरकार चीनी की कीमतों को बढ़ने नहीं देना चाहेगी।

सच तो यह है कि सरकार चीनी की कीमतों को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न तरीकों पर गौर कर रही है, जिनमें अगस्त 2008 में 11 लाख टन चीनी बाजार में लाना शामिल है। इसके अलावा उम्मीद है कि सितंबर में 12 लाख टन चीनी बाजार में लाई जाएगी। आपूर्ति में इस इजाफे के साथ माना जा रहा है कि चीनी की कीमतों पर नियंत्रण रखा जा सकेगा।

प्रीमियम इन्वेस्टमेंट के मुख्य कार्यकारी एस पी तुलसियान का कहना है, ‘अगले कुछ समय में हम चीनी की कीमतों में वृध्दि होते नहीं देख रहे हैं, क्योंकि सरकार के पास लगभग 22.5 लाख टन का बफर स्टॉक है, जिसे वह बाजार में उतारती रहेगी ताकि चीनी की कीमतों पर लगाम लगाई जा सके।’

हैरत की बात है कि घरेलू चीनी की कीमतों में हाल ही में 100 रुपये प्रति क्विंटल का सुधार किया गया है। इसके अलावा यह भी उम्मीद है कि सरकार चीनी पर से निर्यात में मिलने वाली छूट को हटाने वाली है। बावजूद, भारतीय बाजारों के मुकाबले वैश्विक बाजार में चीनी की कीमतें कम होते हुए लगभग 1,400 रुपये प्रति क्विंटल पर कारोबार कर रही हैं, जिसे देखते हुए चीनी का आयात एक व्यवहारिक विकल्प है।

विविधता में है फायदा

माना जा सकता है कि वे कंपनियां जिनकी एथेनॉल और बिजली उत्पादन की अपनी क्षमताएं हैं, उन पर सबसे कम असर पड़ेगा। संस्थागत ग्राहकों को सलाह देने वाली एक वैश्विक ऑफशोर अनुसंधान सेवा कंपनी, अरांका के उपाध्यक्ष श्रीनिवास माचा का कहना है, ‘ज्यादातर कंपनियों को डिस्टिलेरी और सह-उत्पादन कारोबारों से होने वाली कमाई के लगातार बढ़ने की उम्मीद है, क्योंकि नई क्षमता जोड़ने पर काम शुरू हो चुका है। इसका बड़ा हिस्सा मुनाफे में शामिल होगा, इसलिए मार्जिन पर पड़ने वाला असर काफी अहम होगा- चाहे गन्ने की कम उपलब्धता के चलते इनका इस्तेमाल घट जाए।’

लेकिन कुछ अनिश्चितताएं भी हैं। एथेनॉल के पांच प्रतिशत हिस्से का इस्तेमाल पेट्रोल में किया जाना चाहिए, फिलहाल इस योजना को भी पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका है और यह भी निश्चित नहीं है कि सरकार इसके अगले चरण 10 प्रतिशत हिस्सा पेट्रोल में मिलाने को भी लागू कर सके। हालांकि इसके अक्टूबर 2008 में लागू होने की उम्मीद है। इस योजना के लागू न होने की मुख्य वजह देश में गन्ने की गैर-मौजूदगी है।

बावजूद इसके सरकार इस बात से खुश नहीं होगी कि मिलों को एथेनॉल उत्पादन के लिए अधिक गन्ने का इस्तेमाल करने दिया जाए। क्योंकि इस साल वैसे ही, चीनी का उत्पादन कम होने की उम्मीद है और इसकी इजाजत दी गई तो चीनी की कीमतों और महंगाई पर असर पड़ेगा।

साथ ही, एथेलॉन 21.50 रुपये प्रति लीटर की दर से बेचा जा रहा है, जो बहुत लुभावनी कीमत नहीं है, क्योंकि कच्चे माल की लागत (शीरा जो वित्त वर्ष 2007 में 3 हजार रुपये प्रति टन था, अब उसकी कीमत 5 हजार रुपये प्रति टन हो चुकी है) काफी अधिक है।

एथेनॉल कारोबार से लाभ तभी एक बड़े फायदे में तब्दील हो सकता है, जब तेल मार्केटिंग कंपनियां अधिक कीमत (24 रुपये प्रति लीटर या अधिक) अदा करने के लिए तैयार हो जाएं और अगर सरकार एथेनॉल मिलाने की योजना को लागू कर दे।

लंबे समय में, जैसा कि डॉ. पीटन बैरन कहते हैं,  घरेलू उद्योग के बेहतर प्रदर्शन के लिए एक दीर्घावधि योजना की जरूरत है, जहां किसान, तेल मार्केटिंग कंपनियां, चीनी कंपनियां और अन्य (जिनमें नीति निर्धारक भी शामिल हैं) एक ऐसा समाधान निकालें जो फसल के पैटर्न, इनपुट और आउटपुट लागत में अनुमानों की क्षमता को बढ़ाए और अन्य सभी बातों के साथ एथेनॉल मिलाने की नीति भी। तभी जाकर कंपनियों को लाभ मिल होगा।

निष्कर्ष

बेशक बदलती बुनियादी चीजें देखने में सकारात्मक लगें, लेकिन ऊपर बताई गई विभिन्न घटनाओं को ध्यान में रखते हुए निवेशकों को सावधानी बरतने की जरूरत है। संयम और जोखिम उठाने वालों के लिए विशेषज्ञों की सलाह है कि वे ऐसी कंपनियों को खरीदें जो विभिन्न उत्पादों में शामिल हों।

वे यह भी सलाह देते हैं कि उत्तर प्रदेश से बाहर की चीनी कंपनियों के शेयरों में पैसा लगाना, उत्तर प्रदेश में बसी कंपनियों के मुकाबले बेहतर रहेगा। सूर्यवंशी का कहना है, ‘ऐसी कंपनियां चुनें जिन्हें अच्छे इलाके में होने का फायदा मिले और वे चीनी की कीमतों को लेकर किसी कानूनी झगड़े में न फंसी हुई हों, जैसे दक्षिण भारत की कंपनियां।’ इस लिहाज से रेणुका शुगर, बलरामपुर चीनी और ईआईडी पैरी बेहतर कंपनियां हैं।

श्री रेणुका शुगर्स

श्री रेणुका शुगर्स चीनी उद्योग में चल रहे चक्रीय प्रभावाओं से अन्य कंपनियों के मुकाबले अलग है। इसकी वजह यह है क्योंकि कंपनी चीनी रिफाइनिंग क्षेत्र में भी मौजूद है और साथ ही कंपनी की मीलें दक्षिण भारत में स्थित हैं, जहां गन्ने की कीमतें चीनी की कीमतों से जुड़ी  हुई हैं।

कंपनी चीनी कारोबार पर अपनी निर्भरता को कम कर रही है और उसका ज्यादा ध्यान एथेनॉल, डिस्टिलेरी और ऊर्जा उत्पादन के कारोबार के साथ ही कंपनी अपनी क्षमताओं में विस्तार करने पर भी है। इसके कारण हो सकता है कि वित्त वर्ष 2007 में कंपनी को गैर-चीनी कारोबार से हुई कमाई जो 20 प्रतिशत थी, वित्त वर्ष 2010 तक बढ़कर 40 प्रतिशत हो जाए।

यही वजह है कि अन्य कंपनियों के मुकाबले श्री रेणुका शुगर्स के मुनाफा कमाने की संभावनाओं पर इतना बुरा असर नहीं पड़ा है। इसका शेयर 2009 की अनुमानित आय पर 16 गुना और 2010 की अनुमानित आय पर 12 गुना कारोबार कर रहा है (गन्ना वर्ष सितंबर को समाप्त होता है)

बलरामपुर चीनी

उत्तर प्रदेश मिलों के मामले में सकारात्मक शुरुआत तो तभी देखी जा सकती है जब चीनी की कीमतों में कुछ बढ़त, गन्ने की कीमतों से जुड़े लटके मामलों में कंपनियों के हित में फैसला हो। इनमें से विशेषज्ञ बलरामपुर चीनी मिल्स को पसंद करते हैं, जो दूसरी कंपनियों के मुकाबले अधिक कारोबार में लगी हुई है और चीनी कारोबार का कम फायदा उठाती है।

कंपनी का ध्यान गैर-चीनी कारोबार पर है, नतीजतन कंपनी का राजस्व उनसे (डिस्टिलेरी और ऊर्जा उत्पादन) वित्त वर्ष 2007 के 9 महीनों में 22.3 प्रतिशत से बढ़कर वित्त वर्ष 2008 के 9 महीनों में 29 प्रतिशत हो गया है। यही वजह है कि कंपनी बेहतर नतीजे घोषित कर पाई है। कंपनी का शेयर वित्त वर्ष 2009 की अनुमानित आय  पर 9 गुना कारोबार कर रहा है।

First Published - September 7, 2008 | 10:43 PM IST

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