महंगाई और ब्याज दरों में फर्क तो कभीकभार ही होता है, वरना दोनों एक साथ ही चलती हैं। दुनिया भर के देशों के केंद्रीय बैंक अपने यहां महंगाई पर काबू करने के लिए ब्याज दर का ही इस्तेमाल करते हैं।
भारत में भी ऐसा ही होता है। यहां भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई)ने पिछले 12 से 15 महीनों के दौरान बार-बार रेपो दर ( जिस दर पर रिजर्व बैंक दूसरे बैंकों को कर्ज देता है) और सीआरआर (नकद आरक्षी अनुपात) में बढ़ोतरी की है। इन कदमों से बैंकों के फंडों की लागत बढ़ती है और कॉर्पोरेट तथा रिटेल ग्राहकों के लिए भी कर्ज महंगा हो जाता है।
ऊंची ब्याज दरों का मतलब है कम वहन क्षमता और इसकी वजह से वस्तुओं और सेवाओं की मांग पर तो असर पड़ता ही है, बैंकों और कंपनियों की मुनाफा कमाने की क्षमता भी कम हो जाती है। महंगाई दर लगातार बढ़ रही है (मौजूदा समय में 13 सालों के उच्चतम स्तर 12.44 फीसदी पर है)और अगले दो महीनों में इसके 13 फीसदी से ऊपर पहुंच जाने की संभावना है।
विश्लेषकों का मानना है कि रिजर्व बैंक आगे भी ब्याज दरों में बढ़ोतरी करेगा। दूसरी ओर ब्याज दरों के बढ़ने से जिन क्षेत्रों पर सबसे ज्यादा असर होने की आशंका होती है, उनके शेयरों में पिछले दिनों खासी तेजी से इजाफा हुआ है।
पिछले महीने(16 जुलाई से अब तक)बीएसई बैंकेक्स और बीएसई रियल्टी सूचकांकों में क्रमश: 27.8 फीसदी और 22.4 फीसदी का सुधार देखा गया जबकि बीएसई सेंसेक्स के मूल्य में इस दौरान सिर्फ 17.1 फीसदी की बढ़त दर्ज की गई। पिछले महीने के दौरान बीएसई ऑटो सूचकांक भी 15.9 फीसदी ऊपर दर्ज किया गया।
यद्यपि इन सूचकांकों ने जनवरी 2008 से अब तक बाजार में क्षमताओं से कमतर प्रदर्शन किया है। कुछ का मानना है कि महंगाई दिसंबर 2008 से थमने लगेगी और अगले साल की शुरुआत से इसमें गिरावट आनी शुरु हो जाएगी।
ऐसा होता है या नहीं, यह कई कारणों के अलावा कमोडिटी की वैश्विक कीमतों पर भी निर्भर करेगा। इन तमाम पहलुओं के बीच स्मार्ट इनवेस्टर ब्याज दरों से ज्यादा प्रभावित होने वाले तीन क्षेत्रों ऑटो, बैंकिंग और रियल एस्टेट पर नजर डाल रहा है और उनकी मौजूदा हालत तथा भविष्य की संभावनाओं पर भी गौर कर रहा है।
बैकिंग
पिछले सात महीनों के दौरान बैकिंग स्टॉक ने सूचकांक की तुलना में कभी ज्यादा अच्छा प्रदर्शन किया, तो कभी उसका प्रदर्शन कमतर भी रहा। आउटपरफॉर्म तो कभी अंडरपरफॉर्म किया है। जनवरी 2008 से लेकर जुलाई 2008 के बीच तक बढ़ती महंगाई और ब्याज दरों, धीमे क्रेडिट ग्रोथ, नेट इंट्रेस्ट मार्जिन पर दबाव और बढ़ते नॉन परफॉर्मिंग ऐसेट की वजह से बैंकेक्स ने अंडरपरफॉर्म किया।
यह हमें वित्त्तीय वर्ष 2009 की पहली तिमाही के परिणामों में भी देखने को मिला। लेकिन बिना किसी फंडामेंटल सर्पोट के सूचकांक ने 16 जुलाई से अब तक बाजार को आउटपरफॉर्म किया है( बैंक निफ्टी में 34.8 फीसदी बढ़ा जबकि निफ्टी सिर्फ 18.7 फीसदी बढ़ा)। एक बैंकिंग विश्लेषक का कहना है कि बैकिंग स्टॉक में यह सुधार कमोडिटी की वैश्विक कीमतों में आई गिरावट,घरेलू बांड प्राप्ति में हुए मामूली सुधार, बैंकिंग क्षेत्र में सुधारों की आहट और महंगाई की आग कुछ मंद पड़ने की वजह से ही दिखा है।
मोतीलाल सेक्योरिटीज में अनुसंधान विभाग के उपाध्यक्ष मनीष कर्वा का कहना है कि महंगाई के अभी कुछ और समय तक बरकरार रहने की संभावना है और तब तक हम ब्याज दरों में गिरावट की कोई संभावना नहीं देख रहे हैं। वैसे इस दौराना आरबीआई मंहगाई को रोकने के लिए कुछ और कठोर उपाय कर सकता है। वित्त्तीय वर्ष की दूसरी छमाही में महंगाई का आधार कुछ कम हो रहा है और इसी वजह से महंगाई के सिर्फ 13 फीसदी के ऊपर पहुचने की संभावना है। इसके अलावा रिजर्व बैंक ने हाल ही में मौद्रिक नीति में जो कड़े बदलाव किए हैं, उनका आर्थिक विकास दर पर बड़ा प्रभाव पड़ सकता है।
इन सभी बातों से संकेत मिलता है कि बैंकों का प्रदर्शन आगे भी कुछ मंदा ही रहने की संभावना है, लेकिन यह कुछ समय के ही लिए रहेगा। तकरीबन सभी विश्लेषकों का कहना है कि बैंकों की हालत तो सुधर ही जाएगी, लेकिन फिलहाल उनके लिए कुछ मुश्किलें बाकी हैं। उन्हें नहीं लगता कि अगले चार से छह महीनों के दौरान बैंकिंग सेक्टर का प्रदर्शन बेहतर रहेगा क्योंकि उनके मुताबिक रिजर्व बैंक एक बार फिर रेपो दर और सीआरआर में बढ़ोतरी कर सकता है।
इससे बैंकों के फंड की लागत में और इजाफा होगा और उनके मुनाफे में भी सेंध लग जाएगी। कर्ज नहीं चुकाने वाले ग्राहकों की संख्या में इजाफे और ट्रेडिंग पोर्टफोलियो पर होने वाले नुकसान से बैकों के कारोबार में मंदी आने की पूरी आशंका है। अलबत्ता लंबी अवधि में बैकिंग क्षेत्र के लिए आसार बेहतर नजर आ रहे हैं।
मुनाफे पर डाका
पिछले 12 महीनों में आरबीआई ने रेपो रेट और सीआरआर में 1.25 फीसदी की बढ़ोतरी की है और अब दोनों नौ फीसदी के स्तर के करीब पहुंच गए हैं। इस कदम से बैंकों के फंड की लागत भी बढ़ी है। इसके साथ ही डिपॉजिट रेट भी बढ़कर 10 फीसदी हो गए हैं जो पिछले पांच सालों का उच्चतम स्तर है।
अब इस बात की संभावना बढ़ी है कि ग्राहक बचत और चालू खातों को फिक्स्ड डिपॉजिट में बदल दें। इससे भी बैंकों के फंड की लागत में अच्छा खासा इजाफा हो जाएगा। विश्लेषक कहते हैं कि जब ब्याज दरें बढ़ रही हों तो बैंकों के लिए चालू और बचत खातों का अनुपात ऊंचा होना अच्छा होता है। इसकी वजह यह है कि चालू और बचत खतों पर ब्याज की दरें काफी कम होती हैं(चालू खाते पर बैंक कोई ब्याज नहीं देते हैं और बचत खाते पर ब्याज की दर महज 3.5 फीसदी होती है)।
उनका अनुमान है कि चालू और बचत खातों की तादाद में एक फीसदी बढ़ोतरी होने पर भी बैंकों का नेट इंट्रेस्ट मार्जिन 0.1 फीसदी बढ़ जाता है। ब्याज दरें बढ़ने का भी चालू और बचत खातों पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। दूसरी ओर बैंकों ने अपनी प्रधान ब्याज दरों में भी बढ़ोतरी कर दी है। विश्लेषकों का मानना है कि वित्त्तीय वर्ष 2009 की दूसरी तिमाही में भी नेट इंट्रेस्ट मार्जिन पर दबाव रहेगा। इसके बाद नेट इंट्रेस्ट मार्जिन स्थिर हो सकता है और वित्त्तीय वर्ष 2010 से यह सुधरना शुरु हो सकता है। यह दबाव भी कुछ कम हो सकता है क्योंकि कुछ बैंकों ने अपनी डिपॉजिट रेट में मामूली इजाफा कर दिया है, जो ताज्जुब की बात भी है।
परिसंपत्ति गुणवत्ता और ट्रेजरी आय पर भी बोझ
बढ़ती ब्याज दरों का जिस दूसरे क्षेत्र पर असर पड़ेगा वह है बैंकों की नॉन परफॉर्मिंग ऐसेट में होने वाली वृद्धि। हालांकि यह बैंकों की पोर्टफोलियो क्वालिटी पर भी निर्भर करेगा। एक आर्थिक विश्लेषक का कहना है कि मंदी के किन्हीं भी हालात में ऐसेट क्वालिटी पर असर पड़ता है। लोटस एएमसी के मुख्य निवेश अधिकारी त्रिदिव पाठक का कहना है कि पहले की तुलना में अब बैंकों के रिकवरी सिस्टम बहुत मजबूत है। मंदी की हालत में बैंकों का एनपीए बढ़ सकता है लेकिन यह चक्रीय जोखिम है। लेकिन क्या ये किसी मंदी आने का संकेत है बिल्कुल नहीं।
विश्लेषक आगे कहते हैं कि डिफॉल्ट ज्यादातर नॉन कोलेटरल क्षेत्रों में देखे जा रहे हैं जैसे क्रेडिट कार्ड, पसर्नल लोन आदि। खुदरा परिसंपत्तियो को छोड़कर जिनकी टोटल एडवांसेज में 25 हिस्सेदारी है, जिसमें 18 फीसदी हाउसिंग लोन हैं, बचे हुए सात फीसदी में ऑटो लोन, क्रेडिट कार्ड और पर्सनल लोन हैं। इसलिए हालात कितने भी ज्यादा बिगड़ जाएं, डिफॉल्ट से निपटा जा सकता है। दूसरी ओर आरबीआई की ओर से भविष्य में ब्याज दरों में और बढ़ोतरी की संभावना के चलते अगली एक से दो तिमहियों तक बैंकों के लाभ पर असर पड़ने की संभावना है।
विकास दर- मंदी की आहट
ऊंची ब्याज दरों का मतलब है कि लोअर अर्फोडिबेलिटी और इससे रिटेल और कॉरपोरेट एडवांसेज के घटने की संभावना है जो हो भी रहा है। बैंकों ने भी क्रेडिट क्वालिटी को सुधारने के लिए रिटेल लोन की राह कुछ मुश्किल कर दी हैं। विदेशों से वित्त अब आसानी से उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं और इक्विटी बाजार उतार-चढ़ावों के दौर से गुजर रहा है फिर भी कॉरपोरेट जगत की ओर से मांग लगातार बनी हुई है।
इस प्रकार क्रेडिट ग्रोथ के 25 फीसदी के स्तर से घटकर 18 से 20 फीसदी के स्तर पर आने की संभावना है। फी-इनकम के भी अगले तिमाहियों में मंदी की ओर जाने की संभावना है हालांकि यह अभी 15 से 25 फीसदी के स्वस्थ स्तर पर बना हुआ है। इसप्रकार इंडस्ट्री की कुल आय और प्रॉफिट इनकम 15 से 25 फीसदी के सम्मानजनक स्तर पर रहनी चाहिए।
उम्मीद की किरण
हालांकि बढ़ती लागत, ऐसेट क्वालिटी और ज्यादा प्रॉविजन्स की वजह से इस सेक्टर के अगले छह महीनों में मंदी के जकड़ में रहने की संभावना है लेकिन इन सबके बावजूद मध्यम से लंबे समय के बीच इस क्षेत्र की संभावनाएं बेहतर दिखती हैं।
त्रिदिव कहते हैं कि यदि आप पिछले 15 सालों के बैंकों के प्रदर्शन को देंखे तो बैंकों का नेट इंट्रेस्ट मार्जिन औसतन तीन फीसदी की रफ्तार से बढ़ा है, जो कि इंट्रेस्ट रेट के चक्र से भी ज्यादा है। कर्वा ने कहा कि अगर हालिया बढ़ोतरी को ओर देखें तो बैंकों ने इसे पीएलआर बढ़ाकर ग्राहकों पर डाल दिया है। इसलिए कोई भी दबाव या लाभ कुछ ही समय के लिए है और कुछ समय बाद मार्जिन स्थिर हो जाएगा और बढ़ेगा भी। मार्जिन मौजूदा स्तर से आगे नहीं गिरना चाहिए और इनके बरकरार रहने की संभावना है अगर बैंक लेडिंग रेट बढ़ाना जारी रखते हैं।
इस प्रकार बाजार में आई किसी भी प्रकार की गिरावट का फायदा चयनित तरीके से बैकिंग स्टॉक खरीदकर उठाया जा सकता है। विश्लेषक उन बैंकों के शेयर खरीदने की सलाह देते हैं, जिनके पास चालू और बचत खातों का ऊंचा अनुपात, मजूबत प्रबंधन और अच्छा लोन प्रोफाइल हो। इनमें एक्सिस बैंक, एचडीएफसी बैंक, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन बैंक, फेडरल बैंक, साउथ इंडियन बैंक, पीएनबी, एसबीआई और आईसीआईसीआई बैंक के स्टॉक हैं।
रियल्टी
रियल्टी के मैदान के खिलाड़ी भी इस समय नकदी की कमी से जूझ रहे हैं। इस बारे में बेंगलरु की एक रियल्टी कंपनी के सीईओ का कहना है कि कई उद्योगपतियों के पास जमीन तो ज्यादा है पर नकदी नहीं है। इस बारे में इस क्षेत्र के उद्योगपतियों का तो कहना है कि नकदी की समस्या कम समय तक ही रहने वाली है पर विश्लेषकों की मानें तो नकदी का टोटा अगर लंबे समय तक बरकरार नहीं भी रहता है तो कम से कम आगामी दो सालों तक इसके बरकरार रहने के आसार हैं।
ब्याज दरों में इजाफा, लागत का बढ़ना और कम होते निवेश ने निर्माण क्षेत्र की परियोजनाओं की रफ्तार को मंद कर दिया है। इतना ही नहीं, कीमतों में कमी, मुनाफे के अंतर को भी इन सब कारकों ने प्रभावित किया है। बीएसई रियल्टी सूचकांक में शुमार कंपनियों के लिए साल दर साल हरेक तिमाही में बिक्री, इबडिटा एवं शुद्ध मुनाफे में तीन अंकों का इजाफा अब बीते दिनों की बात हो गई है, जिसका अंदाजा जून में समाप्त तिमाही के दौरान उनके नतीजों से जाहिर भी हुआ है।
हालांकि ऐसा भारी बेस के चलते हुआ है, पर मांग में आई कमी का प्रभाव बिक्री एवं मुनाफे के अंतर पर पड़ा है जिस कारण इन दोनों के विकास में दहाई अंक की कमी दर्ज की गई है। जाहिर तौर पर जब तक पूंजी ऊंचे दर पर उपलब्ध रहती है और लागत तथा मांग में कुछ सुधार नहीं होता है, तब तक आगामी तीन महीनों में इस सेक्टर को सबसे बदतर स्थितियों से रू-ब-रू होना पड़ेगा।
लागत मूल्य
पिछले एक सालों में रियल्टी खिलाडियों के लिए कंस्ट्रक्शन कीमतों में कुल 20 से 40 फीसदी का इजाफा देखने को मिला है। सीमेंट की कीमतें तो पिछले चार सालों से स्थिर हैं पर स्टील की कीमतों में महज एक साल के भीतर 26 फीसदी का इजाफा होने के कारण स्थिति काफी बदतर हुई है। इससे निबटने के लिए हालांकि कई डेवलपर्स ने बढ़ी हुई कीमत का भार ग्राहकों पर डाल दिया है पर डीएलएफ जैसी बड़ी कंपनियां 15 फीसदी कीमत बचा पाने में सफल साबित हो सकीं हैं। ऐसा चीन से प्रीफैब्रिकेटेड स्टील के आयात से लेकर वैल्यू इंजीनियरिंग प्रॉसेस के जरिये वे कर पाई हैं।
निवेश का मसला
पिछले एक साल के भीतर डेवलपर्स ने अपने कर्ज की दरों में 3 फीसदी का इजाफा होते हुए देखा है जो अब 14 फीसदी के ऊपर पहुंच गई है। बैंकों के द्वारा अब कदम-कदम पर डेवलपरों को शंका की नजर से देखने से लेकर स्थानीय प्राधिकरणों के द्वारा हर आवश्यक औपचारिकता को पूरा करने के बाद कर्जों को स्वीकृति देने से उन्हें मजबूरन एनबीएफसी समेत प्राइवेट पार्टियों की ओर मुंह देखना पड़ रहा है।
लेकिन वैसी पूंजी ऊंची दरों पर आई हैं और नतीजतन डेवलपरों पर दरों का भार ही चढ़ा है। एक रियल एस्टेट कंसल्टेंट कंपनी के प्रबंध निदेशक साहेल प्रमेंद्रा के मुताबिक पूंजी ऊंची दर पर मिलने और लागत कीमतों में इजाफा होने के कारण मार्जिन पर खासा दवाब पड़ा है। वैकल्पिक स्रोतों में प्राइवेट इक्विटी और मीजैनाइन फंडिंग खासी प्रसिद्ध हो रही हैं।
पब्लिक मार्केट की बात करें तो यह भी अब एक आसान विकल्प नहीं रहा क्योंकि बाजार के सही स्थिति में न रहने और माकूल निर्देशों के नहीं आने के कारण बाहर से कर्ज ले पाना टेढ़ी खीर बन चुका है। ऊपर से विश्लेषकों का भी यह मानना है कि जबतक कीमतों में 10 से 15 फीसदी का सुधार नहीं होता है, तब तक खरीदार शायद ही किसी संपत्ति को खरीदने के लिए उसकी ओर नजर घुमाएंगे।
मांग
बढ़ी हुई ब्याज दरों का डेवलपरों और होम लोन चाहने वालों पर तगड़ा असर पड़ा है। इस बारे में एक कंसल्टेंट सीबी रिचर्ड इलिस के मुताबिक ऊंची ब्याज दरों के चलते डेवलपर्स या तो परियोजनाओं का आकार छोटा कर सकते हैं या फिर निवेशकों को आकर्षित करने के लिए विभिन्न प्रकार की छूट दे सकते हैं।
मालूम हो कि होम लोन देने वाले बैंकों के द्वारा होम लोन दरों में इजाफे करने के कारण ऐसे कर्जों के आवंटन में खासी कमी दर्ज की गई है क्योंकि दर ज्यादा होने के कारण खरीदार होम लोन लेने से फिलहाल बच ही रहे हैं। वे होम लोन की दर में कमी आने का इंतजार भी कर रहे हैं।
रिहायशी संपत्तियों की कीमतों की बात करें तो महानगरों और बड़े शहरों में डेवलपर्स कीमतें कम करने को तैयार नही थे अब साल दर साल आईटी कंपनियों में कर्मियों की छंटनी होने के कारण वे भाव कम करने की तैयारी कर रहे हैं। हालांकि रिहायशी रियल्टी कंपनियों के लिए मांग में इजाफा विशेष आर्थिक क्षेत्रों से मिल सकता है। आवासीय संपत्तियों में भी भारी सुधार देखने को मिले हैं और विश्लेषकों को यह भरोसा है कि अभी और सुधार देखने को मिल सकते हैं।
शेयरों के मूल्य में गिरावट
बीएसई रियल्टी के द्वारा 22.4 फीसदी की उछाल के सहारे सूचीबद्ध कंपनियों के शेयरों के पिछले महीने रिकवरी हासिल करने के बावजूद भी पिछले एक सालों से रियालिटी सूचकांक एक तिहाई कम है। विश्लेषकों का मानना है कि शुद्ध परिसंपत्ति मूल्य- में संपत्ति की कीमतों में कमी आने ऊंची लागतें एवं कार्यान्वयन की रफ्तार कम रहने के कारण-गिरावट दर्ज की जा सकती है।
विश्लेषकों का कहना है कि संपत्तियों में 20 फीसदी की कमी होने के कारण उनके शुद्ध परिसंपत्ति कीमत में 33 फीसदी की गिरावट आई है। इनका तकाजा है कि मुनाफे एवं वैल्यूएशनों पर खासा दवाब पड़ा है। सो मौजूदा परिदृश्य में विश्लेषक यह भरोसा करते हैं कि डीएलएफ एवं एचडीआईएल पर दांव लगाना फायदेमंद साबित हो सकता है।
ऑटो
ऑटोमोबाइल क्षेत्र का देश की आर्थिक गतिविधियों से काफी गहराई तक जुड़ा हुआ है। दुपहिया, यात्री और व्यावसायिक वाहन आदि तीन क्षेत्रों में बंटा है जिनमें यात्री और व्यावसायिक वाहनों के क्षेत्र पर अर्थव्यवस्था में आई मंदी और बढ़ी ब्याज दरों का सबसे अधिक असर पड़ता है।
देश में आई मंदी से देश के अलग-अलग हिस्सों में माल की होने वाली ढुलाई कम हो जाती है, नतीजतन इसका सीधा असर व्यावसायिक वाहनों पर पड़ता है। इनपुट लागत बढ़ने से देश की बड़ी व्यावसायिक वाहन निर्माता कंपनियों को अपने उत्पादों की कीमतें बढ़ाने पर विवश होना पड़ा। इस बढ़ोतरी के कारण ट्रक मालिकों को डिस्काउंट और आकर्षक फाइनेंस योजनाओं के बाद भी अपने निवेश का रिटर्न हासिल करना खासा मुश्किल हो जाता है।
बिक्री हुई प्रभावित
जुलाई माह में ईंधन की कीमतें और लागत बढ़ने के साथ ब्याज दरों के आसमान पर पहुंचने और से यात्री और व्यावसायिक वाहनों की मांग पर प्रतिकूल असर पड़ा, नतीजतन इनकी बिक्री में कमी आई। इसके साथ ही घरेलू बाजार में यात्री और यूटिलिटी वाहनों की बिक्री साल दर साल के हिसाब से क्रमश: 2 और 7 फीसदी गिरी जबकि इसी समयावधि में मध्यम और भारी वाहनों की बिक्री 1 फीसदी गिरी।
हालांकि इस क्षेत्र को सिर्फ मांग की ओर से ही मार नहीं झेलनी पड़ी। कच्चे माल की लागत, कर्मचारी और अन्य बढ़ी लागतों के चलते देश के सभी प्रमुख वाहन निर्माताओं का इबिडटा मार्जिन 1 फीसदी कम हुआ। हालांकि यहां टीवीएस मोटर्स और हीरो होंडा अपवाद रहे।
दुपहिया यात्री वाहन
यात्री वाहन क्षेत्र की बिक्री में साल दर साल के हिसाब से 11 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। विशेषज्ञ मानते हैं कि आने वाले माह में खासी तेजी देखने को मिल सकती है। इसकी वजह है आने वाली दो तिमाहियों में कंपनियों की नई कार व अन्य वाहनों को लांच करने की योजना। हालांकि आकर्षक कीमत पर बेहतर वाहन मिलने की उम्मीद में वर्तमान खरीदार अपनी योजनाओं को टाल रहे हैं।
देश में 70 फीसदी कार कर्ज के जरिये ही खरीदी जाती हैं। यह देखते हुए ब्याज दरों में हुए इजाफे से बढ़ने वाली मासिक किश्त खरीददारों के लिए यह महंगा सौदा बना देगी। एक विश्लेषक के अनुसार कार खरीदना एक काफी सोच विचार कर लिए जाने वाला निर्णय है। इसके चलते ब्याज दरों में हुए इजाफे के बाद खरीदार अपने निर्णय पर पुनर्विचार को विवश हो सकते हैं।
अब कोटक महिंद्रा और एचडीएफसी बैंक जैसी ऑटो फाइनेंस कंपनियां डीलर के बजाय ग्राहक तक सीधे पहुंच बना रही है। इससे न सिर्फ उन्हें लागत घटाने में मदद मिलेगी, बल्कि ग्राहक के बारे में ठीक जानकारी भी हासिल हो सकेगी। यह जानकारी एनपीए घटाने में मददगार साबित होगी। अपनी लो यूनिट प्राइस के कारण दुपहिया क्षेत्र पर ब्याज दरों का कोई असर नहीं पड़ रहा है। नतीजतन जुलाई माह में इस क्षेत्र ने साल दर साल के हिसाब से 20 फीसदी की बढ़त हासिल करने में सफलता अर्जित की।
व्यावसायिक वाहन
हालांकि टाटा मोटर्स और अशोक लीलैंड जैसे बड़े व्यावसायिक वाहन निर्माता बढ़ी लागत से निपटने में तो सफल रहे, लेकिन बढ़ी ब्याज दरों के कारण अपना वॉल्यूम बढ़ाने में नाकाम रहे। इसके साथ बढ़ी दरों ने ट्रक मालिकों पर अतिरिक्त बोझ डाला। जब तक ब्याज दरें नीचे नहीं आती इन वाहन निर्माताओं को ऊंची इनपुट लागत, बढ़ी ब्याज दरें और कमजोर हुई विनिर्माण गतिविधि आदि की तिहरी मार झेलनी पड़ेगी। भले ही बीते माह ईधन की कीमतों में आई गिरावट के कारण ऑटो क्षेत्र के शेयरों में 16 फीसदी की बढ़त देखने को मिली है लेकिन इस क्षेत्र के लिए मीडियम टर्म आउटलुक कमजोर है।